दुनिया में अब भी चिकित्सकों पर है सबसे ज्यादा भरोसा …?

दुनिया में अब भी चिकित्सकों पर है सबसे ज्यादा भरोसा

नेताओं पर सबसे कम भरोसा करते हैं लोग

आज भरोसे का संकट सबसे बड़ा संकट बन कर उभरा है। यह कोई हमारे यहां की ही समस्या नहीं हैं, अपितु समूची दुनिया की समस्या हो गई है। एक समय था जब राजनेता को मालिक मानकर सबसे ज्यादा भरोसा किया जाता था, तो विज्ञापनों पर आंख-मीच कर विश्वास किया जाता था, बैंकर्स पर तो संदेह का प्रश्न ही नहीं होता था। डॉक्टर हर युग में भगवान के समान पूजे जाते रहे हैं। शिक्षक को गोविन्द से भी अधिक महत्त्व देने की बात कही जाती रही है, पर अब हालात तेजी से बदल गए है। इसके बाद भी डॉक्टरों पर आज भी सबसे ज्यादा विश्वास है। हालांकि भरोसे का यह आंकड़ा औसतन 59 प्रतिशत पर टिक गया है। आइपीएसओएस के अध्ययन में कोई भी वर्ग या पेशा 59 प्रतिशत के आंकड़े को पार नहीं कर सका है। इससे यह तो साफ हो जाता है कि दुनिया के देशों में लोगों का भरोसा तेजी से कम होता जा रहा है। विश्वसनीयता के वैश्विक आंकड़ों में वैज्ञानिक और अध्यापक भी चिकित्सकों की तुलना में नीचे के पायदान पर हैं। अध्ययन में सामान्य राजनेताओं, सरकार के मंत्रियों, विज्ञापन प्रतिनिधियों और यहां तक कि बैंकर्स और पत्रकारों पर भी लोगों का भरोसा कमतर देखा जा रहा है। गौरतलब है कि आइपीएसओएस बहुराष्ट्रीय बाजार अनुसंधान और परामर्श संस्था है और इसका मुख्यालय पेरिस में है। एक मोटे अनुमान के अनुसार करीब 90 देशों में यह संस्था कार्य कर रही है। हालांकि यह अध्ययन दुनिया के 28 देशों पर आधारित है।

वैश्विक विश्वसनीयता में सबसे अधिक गिरावट किसी के भरोसे पर आई है, तो वह राजनेता की आई है। शिक्षक जिसे गोविन्द के समकक्ष रखा जाता रहा है, वह भी भरोसे के मापदण्ड पर 52 प्रतिशत के साथ तीसरे पायदान पर है। कम से कम आपसी भरोसा निगेटिव मार्किंग पर नहीं गया है। सामान्य जन पर भरोसे का आंकड़ा 38 प्रतिशत है, तो सशस्त्र बलों पर 41 प्रतिशत भरोसा है। इसके भी कई कारण हैं। पाकिस्तान सहित कई देशों में सशस्त्र बलों द्वारा सत्ता की नकेल अपने हाथ में रखने या सत्ता पर दबाव बनाए रखने के कारण विश्वसनीयता पर असर पड़ा है। सवाल सीधा सा है कि आम लोग, जिनसे दो चार होते हैं उनके परिणाम जिस तरह से सामने आते हैं, उसके आधार पर भरोसा कायम होता है। आज भी अंतिम सांस तक डॉक्टरों की बात पर भरोसा रहता है। जब तक सांस तब तक आस वाली बात यहां चरितार्थ होती है। कोरोना काल में मेडिकल व पैरामेडिकल से जुड़े लोगों ने लोगों का विश्वास और अधिक मात्रा में जीता है। कोराना की त्रासदी भुगत चुके लोग जानते हैं कि किस तरह से चिकित्सकों व उनके साथ लगे स्टाफ ने जान की बाजी लगाकर लोगों को जीवनदान के अथक प्रयास किए।

शिक्षकों पर सारी दुनिया में ही अब भरोसा कम होता जा रहा है और इसका प्रमुख कारण शिक्षा का कारोबार बन जाना रहा है। निजी संस्थानों में महंगी पढ़ाई के बावजूद बच्चों को कोचिंग के सहारे रहना पड़ता है, तो सरकारी स्कूलों की छवि जगजाहिर है। लोग विज्ञापनों के आधार पर वस्तुओं या यों कहें कि उत्पादों की खरीद करते हैं, पर विज्ञापन में दिखाए जाने वाले सब्जबाग खरे नहीं उतरने के कारण लोगों का विज्ञापन और विज्ञापनकर्ता दोनों से विश्वास उठ सा गया है। यही हाल बैंकों का है। आए दिन बैंकों में होते घोटाले इसके गवाह हैं। मीडिया पर भी गाहे-बगाहे एक पक्षीय होने के आरोप लगाए जाने लगे हैं। भरोसा ही है जिस पर यह दुनिया चल रही है। जिस तरह से भरोसे को तोड़ने की घटनाएं तेजी से बढ़ती जा रही हैं, उससे चिंता होना स्वाभाविक है। भले ही यह कहा जाए कि आइपीएसओएस के अध्ययन के परिणाम अतिशयोक्तिपूर्ण हैं, पर इसमें कोई दो राय नहीं कि भागदौड़ की जिंदगी और मेरी कमीज दूसरे से अधिक उजली दिखाने के चक्कर में विश्वसनीयता कम हो रही है। भरोसे पर चल रही दुनिया में भरोसा कायम करने के हर संभव प्रयास करने ही होंगे।

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