डॉक्टर के पर्चे के बिना एंटीबायोटिक्स खरीदकर खा लेते हैं?
एंटीबायोटिक्स 25 साल में हो जाएंगी फेल
सर्दी-जुकाम-बुखार में बिना सोचे-समझे निगली गोलियों से हुए नुकसान को ठीक होने में लगेंगे 6 महीने
क्या आप अक्सर डॉक्टर के पर्चे के बिना एंटीबायोटिक्स खरीदकर खा लेते हैं? अगर हां तो जान लीजिए कि ये आपको मुश्किल में डाल सकता है। एंटीबायोटिक्स दवाओं का जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल बैक्टीरिया को ‘सुपरबग’ में बदल रहा है। यानी ऐसे बैक्टीरिया जिनपर कुछ समय बाद कोई दवा असर नहीं करती।
अस्पताल से लेकर पीने के पानी और दूध तक में मौजूद ये सुपरबग इंसानों को जानलेवा बीमारियों का शिकार बना रहे हैं। हर साल लाखों लोगों की जान इन ‘सुपरबग्स’ की चपेट में आकर जा रही है। WHO सहित दुनियाभर के वैज्ञानिक चिंता जता रहे हैं कि बिना डॉक्टरी सलाह के एंटीबायोटिक का बेतहाशा इस्तेमाल इसी तरह होता रहा तो अगले 25 साल में सभी एंटीबायोटिक्स दवाएं बेअसर हो जाएंगी।
अगर एंटीबायोटिक गोलियों को लेने में यही लापरवाही बनी रही तो भविष्य में बुखार और दस्त जैसी मामूली बीमारियों के बैक्टीरिया कोविड-19 से भी ज्यादा बड़ी तबाही मचा देंगे। 2050 के बाद हर साल मामूली बीमारी देने वाले बैक्टीरिया ही 1 करोड़ लोगों की जान ले सकते हैं, क्योंकि इन पर एंटीबायोटिक दवाओं का असर नहीं पड़ेगा।
बिना सोचे-समझे दवाएं गटकने की आदत इंसानों के अस्तित्व के लिए कितना बड़ा खतरा पैदा कर सकती है,
जानिए कैसे जान बचाने वाली एंटीबायोटिक दवाएं कैसे और क्यों बेअसर होती जा रही हैं।
एंटीबायोटिक दवाएं बैक्टीरिया को मारती हैं और बीमारी को रोकती हैं
पारस हॉस्पिटल, गुरुग्राम में सीनियर कंसल्टेंट व इंटर्नल मेडिसिन एक्सपर्ट डॉ. संजय गुप्ता बताते हैं कि बैक्टीरियल इन्फेक्शन के इलाज में काम आने वाली दवाओं को एंटीबायोटिक दवाएं कहते हैं। एंटीबायोटिक दो शब्दों ‘एंटी’ और ‘बायोस’ से मिलकर बना है, जिसका अर्थ है ‘एंटी लाइफ’। यानी ये दवाएं बैक्टीरिया को नष्ट कर, उन्हें बढ़ने से रोकती हैं। लेकिन, हर बीमारी की वजह बैक्टीरिया नहीं होते।
कई बीमारियां मौसमी होती हैं और अलग-अलग सीजन में ज्यादा फैलती हैं, यह भी जानें…
बीमारी की वजह वायरस, लेकिन खा रहे एंटीबायोटिक्स
डॉ. संजय गुप्ता बताते हैं कि सांस नली से जुड़े इन्फेक्शन, सर्दी-जुकाम, गले में खराश, साइनस, निमोनिया के साथ ही कान, छाती और स्किन के इन्फेक्शन जैसी समस्याएं होने पर लोग खुद अपना इलाज शुरू कर देते हैं और एंटीबायोटिक्स की गोलियां निगल लेते हैं। वे ये नहीं जानते कि उनकी तबीयत वायरस की वजह से खराब हुई है, जो अपना समय लेकर ही ठीक होगी। इसमें एंटीबायोटिक्स खाने की जरूरत नहीं।
वायरस और बैक्टीरिया दो अलग इन्फेक्शन हैं, इनकी दवाएं भी अलग होती हैं। वायरल इंफेक्शन में एंटीबायोटिक्स खाना सेहत के लिए खतरनाक है।
सर्दी-जुकाम-बुखार के 80 फीसदी मामले वायरस के
डॉ. गुप्ता बताते हैं कि जुकाम, बुखार, गले में खराश, सिरदर्द, उल्टी, दस्त में से 80 फीसदी मरीज वायरल फीवर के होते हैं। डॉक्टर इन मरीजों को लक्षणों के आधार पर सामान्य दवाएं देते हैं, जिनसे वे 2-4 दिन में ठीक हो जाते हैं। डॉ. गुप्ता इस बात पर जोर देते हैं कि वायरल इन्फेक्शन में कई बार एंटीवायरल दवाओं की भी जरूरत नहीं होती, जबकि लोग बिना डॉक्टरी सलाह के एंटीबायोटिक्स निगल लेते हैं, जो कि गलत है।
और, सिर्फ एंटीबायोटिक्स ही नहीं, ऐसी तमाम दवाएं हैं, जिन्हें लोग खुद से खरीदकर खाते रहते हैं…
गुड बैक्टीरिया को ही मारने लगती है एंटीबायोटिक्स
वायरल इन्फेक्शन में एंटीबायोटिक्स खाने पर यह दवा ‘जहर’ का काम करती है। यह शरीर में इन्फेक्शन से लड़ने वाले गुड बैक्टीरिया को भी नष्ट कर देती है। इससे खतरनाक बैक्टीरिया को शरीर पर हावी होने का मौका मिल जाता है। साथ ही बैड बैक्टीरिया एंटीबायोटिक्स से बचने के लिए तैयार हो जाता है। फिर उसपर दवाओं का असर नहीं होता।
इसे मेडिकल साइंस की दुनिया में ‘एंटीमाइक्रोबियल रेजिस्टेंस’ (AMR) कहा जाता है, जो बाद में सुपरबग की भी वजह बनता है।
एंटीबायोटिक के ओवरयूज से बैक्टीरिया बन रहे सुपरबग
एंटीबायोटिक्स के ओवरयूज से मामूली बैक्टीरिया सुपरबग बन रहे हैं, जिससे मामूली समझे जाने वाले संक्रमण का इलाज भी कठिन हो रहा है। WHO के मुताबिक इस कारण न्यूमोनिया, टीबी, ब्लड पॉइजनिंग और गोनोरिया जैसी बीमारियों का इलाज कठिन होता जा रहा है। ICMR के मुताबिक यही वजह है कि निमोनिया, सेप्टीसीमिया के इलाज में यूज होने वाली दवा कार्बेपनेम पर रोक लगा दी गई है, क्योंकि अब यह दवा बैक्टीरिया पर बेअसर है।
टीबी मुक्त भारत का सपना पूरा करना हुआ मुश्किल
दुनिया भर में टीबी के 3.7% नए मरीजों के साथ ही 20% पुराने टीबी के मरीजों को भी दोबारा टीबी हो रही है। क्योंकि, टीबी के बैक्टीरिया के खात्मे के लिए दी जाने वाली एंटीबायोटिक दवाएं असर नहीं कर रहीं। केंद्र सरकार ने 2025 तक भारत को टीबी से मुक्त करने का लक्ष्य रखा था।
लेकिन, बेअसर होतीं एंटीबायोटिक दवाओं के कारण अब सवाल खड़े हो रहे हैं कि अगले 2 साल में भारत इस बीमारी को हरा पाएगा या नहीं। दवाओं के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर लेने वाले बैक्टीरिया के खात्मे के लिए अमेरिका की ड्रग एजेंसी FDA ने 2019 में एक और दवा ‘प्रीटोमेनिड’ को मंजूरी दी, जो पुरानी दवाओं से 90 फीसदी ज्यादा पावरफुल है।
डॉक्टर बताते हैं कि मरीज थोड़ा आराम मिलते ही दवा खाना बंद कर देते हैं, जिससे बैक्टीरिया ज्यादा ताकतवर हो जाता है…
नहीं बन पा रहीं नई दवाएं, WHO ने दी चेतावनी
वहीं दूसरी तरफ, इन सुपरबग से निपटने के लिए पर्याप्त नई दवाएं नहीं बन पा रही हैं। इस बारे में WHO ने भी हाल ही में चेतावनी जारी की है। इस समय दुनिया भर में सिर्फ 27 नई एंटीबायोटिक दवाओं का क्लिनिकल ट्रायल हो रहा है। जिनमें से महज 6 दवाएं ऐसी हैं, जो असरदार एंटीबायोटिक्स बन सकती हैं और सिर्फ 2 दवाएं ऐसी हैं, जो सुपरबग को काबू कर पाएंगी।
यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के इंस्टिट्यूट फॉर सोसाइटी एंड जेनेटिक्स में प्रोफेसर भारत जयराम वेंकट कहते हैं कि हर नई एंटीबायोटिक दवा टीबी जैसी बीमारियों के खात्मे की उम्मीद जगाती है, लेकिन समय बीतने के साथ बैक्टीरिया उस दवा पर काबू पा लेता है और एक नई चुनौती खड़ी हो जाती है।
साल-दर-साल एंटीबायोटिक दवाओं की खपत बढ़ती जा रही है…
रोक के बावजूद बिना डॉक्टर के पर्चे के एंटीबायोटिक दवा खरीद रहे लोग
भारत में दवाओं से जुड़े कानूनों के तहत सभी तरह की एंटीबायोटिक्स को H और H1 जैसी कैटिगरी में रखा गया है, जिन्हें बिना डॉक्टर के पर्चे के नहीं बेचा जा सकता। लेकिन, लोग मेडिकल स्टोर से बेरोकटोक ये दवाएं खरीद रहे हैं। हेल्थ वर्कर्स से लेकर फार्मासिस्ट, झोलाछाप डॉक्टर तक एंटीबायोटिक्स के बेधड़क इस्तेमाल को बढ़ावा दे रहे हैं।
एंटीबायोटिक्स के साइड इफेक्ट्स दे सकते हैं अल्जाइमर्स, पार्किंसन जैसे रोग
रांची स्थित बर्लिन डायग्नोस्टिक्स में इंटरनल मेडिसिन डॉ. रविकांत चतुर्वेदी बताते हैं कि बिना डॉक्टर की देखरेख में खाई गईं एंटीबायोटिक्स दवाएं घातक साइड इफेक्ट्स की वजह बन सकती हैं। सिरदर्द होने, बुखार आने के साथ ही दिल, मांसपेशियों और हड्डियों पर भी इसका बुरा असर पड़ता है। गलत एंटीबायोटिक्स से लिवर और किडनी फेल हो सकती है।
NCBI पर मौजूद रिपोर्ट्स के मुताबिक एंटीबायोटिक्स से हुए नुकसान की भरपाई में 6 महीने तक लग जाते हैं। उसके बाद भी शरीर का एनर्जी लेवल नॉर्मल नहीं रहता। इम्यून सिस्टम कमजोर हो जाता है और दिल की बीमारियों, डायबिटीज से लेकर अल्जाइमर्स और पार्किंसन जैसे रोगों का खतरा बढ़ जाता है।
गुड बैक्टीरिया पर एंटीबायोटिक्स की मार के कारण पेट खराब हो जाता है, जिससे डायरिया, उल्टी और दस्त शुरू हो जाते हैं। ‘जर्नल सेल’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक एंटीबायोटिक्स के साइड इफेक्ट्स के कारण प्रोबायोटिक्स भी जल्द असर नहीं दिखा पाते।
मेडिकल स्टोर से दवा खरीदने की आदत घातक हो सकती है, इसलिए इसपर रोक जरूरी है…
अस्पताल से लेकर दूध तक सुपरबग की मौजूदगी
एंटीबायोटिक्स के ओवरयूज से ई-कोलाई, सी-डिफिसाइल और सैल्मोनेला जैसे बैक्टीरिया तेजी से प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर लेते हैं। बरेली स्थित इंडियन वेटरनरी रिसर्च इंस्टिट्यूट (IVRI) की एक रिसर्च के मुताबिक एंटीबायोटिक्स के ओवरयूज के कारण ई-कोलाई जैसा बैक्टीरिया सुपरबग बन गया है। यह बैक्टीरिया इंसानों को डायरिया से लेकर यूटीआई तक कई बीमारियों का शिकार बनाता है।
इन बीमारियों के लिए दी जाने वाली दवाएं ई-कोलाई के सुपरबग पर असर नहीं करतीं। IVRI की रिपोर्ट बताती है कि ये सुपरबग अस्पताल, डॉक्टरों, पशु-पक्षियों के साथ ही तालाब, झील और पीने के पानी तक में मौजूद हैं। गंगा से लेकर देश की तमाम झीलों व नदियों में ये सुपरबग मिल रहे हैं। पशुओं के इलाज से लेकर उनका दूध बढ़ाने तक में एंटीबायोटिक दवाएं यूज हो रही हैं।
जिससे उनमें मौजूद बैक्टीरिया भी सुपरबग में तब्दील हो रहे हैं और उनके दूध में भी पहुंच रहे हैं। ऐसे दूध का इस्तेमाल किडनी, लिवर और फेफड़ों की सेहत बिगाड़ सकता है। मछली पालन से लेकर पॉल्ट्री फार्मिंग तक एंटीबायोटिक्स का इस्तेमाल होता है, जो इंसानों तक पहुंच रहा है।
95 साल पहले एंटीबायोटिक की खोज बीमारियों से बचाने के लिए हुई थी, लेकिन इनके इस्तेमाल में लापरवाही से समस्या बढ़ने लगी है…
1928 में हुई पहली एंटीबायोटिक दवा पेनिसिलिन की खोज
पहली एंटीबायोटिक दवा पेनिसिलिन की खोज 1928 में हुई थी। एंटीबायोटिक की खोज से पहले बैक्टीरियल इंफेक्शन के शिकार मरीजों को बचाना डॉक्टरों के लिए मुश्किल होता था। पेनिसिलिन की खोज ने इलाज के तौर-तरीके बदल दिए। तब से अब तक 100 से ज्यादा तरह की एंटीबायोटिक दवाएं बन चुकी हैं, जिनका इस्तेमाल अलग-अलग बीमारियों के इलाज में किया जाता है।
लिवर इन दवाओं को तोड़ता है। फिर वहां से खून के जरिए दवा शरीर में पहुंचती है और जहां बैक्टीरिया मिलते हैं, उन्हें मार देती है। पेनिसिलिन की तरह ही सेफैलेक्सिन, एजिथ्रोमाइसिन पॉपुलर एंटीबायोटिक दवाएं हैं।
लेकिन, इन दवाओं के बनने से हजारों साल पहले से बैक्टीरिया को काबू करने के लिए तरह-तरह के जतन हो रहे हैं…
अब सवाल उठता है कि अगर एंटीबायोटिक्स दवाएं भी बैक्टीरिया और सुपरबग्स को काबू नहीं कर पा रही हैं, तो भविष्य में आखिर लोग कैसे इनके कहर से बच सकेंगे…
एंटीबायोटिक की जगह बैक्टीरिया खाने वाले वायरस पर हो रही रिसर्च
डॉ. संजय गुप्ता कहते हैं कि फिलहाल एंटीबायोटिक्स दवाओं का कोई विकल्प नहीं है। संभव है आने वाले वर्षों में बैक्टीरिया को काबू करने के लिए ऐसी दवाएं बनें, जो बिना नुकसान पहुंचाए बीमारियों का इलाज कर सकें। दुनिया भर के साइंटिस्ट एंटीबायोटिक दवाओं का बेहतर विकल्प तलाशने में जुटे हुए हैं।
ऐसी ही एक रिसर्च यूनिवर्सिटी ऑफ सिडनी के साइंटिस्ट कर रहे हैं। वे एंटीबायोटिक की जगह ऐसे वायरस पर रिसर्च कर रहे हैं, जो बीमारी फैलाने वाले बैक्टीरिया को खा जाते हैं। ऐसे वायरस ‘बैक्टीरियोफेज’ कहलाते हैं और धरती पर प्राकृतिक तौर पर मौजूद हैं। बैक्टीरियोफेज वायरस ऐसे बैक्टीरिया का नामोनिशान मिटा सकते हैं, जिनपर एंटीबायोटिक्स दवाएं काम करना बंद कर चुकी हैं।
कुछ मामलों में बैक्टीरियोफेज के इस्तेमाल पर सफलता भी मिली है…
मौत के मुंह से जिंदगी छीन लाए बैक्टीरियोफेज
2015 में फ्रैंकफर्ट के टॉम पीटर्सन अपनी पत्नी के साथ इजिप्ट गए। वहां पैंक्रियाटाइटिस की वजह से उनको पेट दर्द, तेज बुखार और उल्टी के साथ ही दिल की धड़कनें बढ़ गईं। किसी दवा के काम न करने पर उन्हें फ्रैंकफर्ट लाया गया। जहां पता चला कि वह सुपरबग की चपेट में आ गए थे। 9 दिन में टॉम कोमा में चले गए।
उनकी पत्नी ने नया इलाज आजमाने की अनुमति मांगी और फिर उनके शरीर में 4 तरह के बैक्टीरियोफेज डाले गए। जिसके बाद तेजी से उनकी हालत सुधरी और 3 दिन में वह कोमा से बाहर आ गए।
बैक्टीरिया और सुपरबग आपको बीमार न कर सकें, आप हेल्दी बने रहें, इसके लिए नीचे दिए गए टिप्स का रखें ध्यान…
डॉ. संजय गुप्ता कहते हैं कि वायरल इन्फेक्शन में एंटीबायोटिक दवाएं न लें। वायरस के कारण हुआ नॉर्मल सर्दी-जुकाम या बुखार अपना समय लेकर ही जाता है। एंटीवायरल दवाएं इसलिए कम बनती हैं, क्योंकि वायरस खुद को ज्यादा तेजी से बदलते हैं। वायरल इन्फेक्शन की दवाओं को बनाना ज्यादा मुश्किल और चुनौती भरा है, क्योंकि वायरस वक्त के साथ बदलता है और दवाएं बेअसर होती जाती हैं।