बदलाव का झुनझुना ? हर पार्टी बदलाव के सपने दिखाते हुए आती है।

बदलाव का झुनझुना ….

बदलाव सृष्टि का क्रम है। बदलाव लोकतंत्र का प्राण तत्व है। हर पार्टी बदलाव के सपने दिखाते हुए आती है। अब यह अलग बात है कि पांच साल बीतते-बीतते ही जनता को अहसास हो पाता है ये कहां आ गए हम हाथ मलते-मलते। यानी कि जनता स्वयं को ठगा हुआ महसूस करती है। पर बदलाव ही वह झुनझुना है जो थमाया जाता है और जिसे जोर-जोर से बजाया भी जाता है। बदलाव बस इतना होता है कि शिलापट्ट पर नए नाम खुदने लगते हैं, सरकारी कारिंदे नए माननीयों के आगे हां जी-हां जी करने लगते हैं। योजनाएं नए अवतार धारण कर नई बोतल में पुरानी शराब की तरह जनता के सामने प्रस्तुत कर दी जाती हैं। न कार्यशैली बदलती है, न संवादों का अंदाज और न जन के प्रति नजरिया। फाइलें उसी सुस्ती से सरकती हैं। घोषणाएं कनेर के फूलों-सी चुनावी दिनों में झरती हैं। वादे भभूत की तरह बांटे जाते हैं। आश्वासन इलायची दानों से थमाए जाते हैं मुट्ठी भर-भर के द्ग बदरी तुम लो, जुम्मन तुम भी, रिचर्ड तुम भी। सरकार के दरबार में कोऊ कमी नाहीं। शब्दों को उछालने, उनके सर्वाधिक दुरुपयोग में तो हम चैम्पियन हैं। बदल देंगे आपका जीवन। पर हकीकत यह कि सड़क किनारे पड़ा कचरा स्थल भी नहीं बदल पाता।

असल में बदलाव एक लॉलीपॉप है, एक फैंटेसी है जो सबको लुभाती है। हाथ में भले ही कुछ न आए पर रोमानी होने का आनंद अनिर्वचनीय है। यह आनंद बदलाव के भौतिक रूप में कहां? रोटी, कपड़ा और मकान भौतिक जरूरतें हैं इसलिए उनकी नहीं, परलोक की बातें करो। बदलाव ही जीवन है तो कर्ता-धर्ता यह काम तो कर ही रहे हैं। बदल ही रहे हैं आपकी सोच, आपकी दूरियां, आपकी संवेदनशीलता और आपका देखने का नजरिया। आप फिर पहले जैसे खिलखिलाकर उन्मुक्त हंस ही नहीं पाएंगे। आपके ठहाकों का स्थान कुंठाएं ले लेंगी। आपकी जिंदादिली की जगह संकीर्णता ले लेगी। एक दिन आप उनके टूल्स हो जाएंगे। तब न बदलाव की जरूरत होगी, न कुछ समझाने की। हर कदम पर आप करेंगे वाह-वाह, भले ही जनता करती रहे आह-आह। बदलाव एक कछुआ है, खरगोश नहीं। वह आएगा आहिस्ता-आहिस्ता। तब तक सांसें यदि बची रहें तो आप उसे जरूर देख पाएंगे।

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