MP में भ्रष्टाचार पर नरमी ?
रिश्वतखोर को CBI पकड़े तो जेल, लोकायुक्त पकड़े तो बेल …
MP में भ्रष्टाचार पर नरमी; 10 साल में 2,165 घूसखोर पकड़े, लेकिन कोई जेल नहीं गया
सीबीआई ने जीएसटी के डिप्टी कमिश्नर कपिल कांबले को 7 लाख रुपए की रिश्वत लेते गिरफ्तार किया था। उसे जमानत पर नहीं छोड़ा, बल्कि कोर्ट में पेश कर 6 दिन की रिमांड पर लिया।
तारीख : 16 जून 2023, स्थान : आगर मालवा, राज्य : मध्यप्रदेश
जिले के मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अधिकारी रमेश चंद्र कुरील को रिश्वत लेते पकड़ा। रंगे हाथों पकड़ाए कुरील को लोकायुक्त पुलिस संगठन ने हाथोंहाथ जमानत देकर रिहा कर दिया।
ये दो मामले बताते हैं कि एक ही राज्य में किस तरह से भ्रष्ट अफसरों पर कार्रवाई में भेदभाव किया जा रहा है। मध्यप्रदेश में केंद्र का कोई अफसर भ्रष्टाचार करता है, तो उसकी गिरफ्तारी तुरंत होती है, लेकिन कोई अधिकारी रिश्वत ले ले या करोड़ों की बेनामी प्रॉपर्टी बना ले तो उसे तत्काल जमानत पर छोड़ दिया जाता है। केंद्र व राज्य दोनों की जांच एजेंसियां रिश्वत के मामले में एक ही कानून (भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम (PC act.1988) के तहत कार्रवाई करती हैं।
इस एक्ट के मुताबिक रिश्वत लेते पकड़े जाने पर आरोपी को तत्काल जमानत देने का अधिकार जांच एजेंसी को नहीं है, लेकिन मप्र की लोकायुक्त पुलिस पिछले 15 साल से भ्रष्टाचार के आरोपियों को गैर जमानती धाराओं में गिरफ्तार करने के बावजूद जेल नहीं भेजती। सरकार की मेहरबानी के चलते पिछले 15 साल से भ्रष्ट अफसर-कर्मचारी पकड़े जाने पर जेल ही नहीं भेजे गए।
नेशनल क्राइम रिकाॅर्ड ब्यूरो (NCRB) की 2021 की रिपोर्ट भी इसकी पुष्टि करती है। ……ने रिश्वत के मामलों की पड़ताल की तो सामने आया कि जांच एजेंसियां रिश्वत लेने वाले अफसर-कर्मचारी को गिरफ्तार कर जेल भेज सकती हैं, लेकिन वे इस मामले में आश्चर्यजनक ढंग से भ्रष्ट अफसर व कर्मचारियों के प्रति उदारता दिखाती हैं।
26% बढ़ा करप्शन: एक साल में 279 अधिकारी-कर्मचारी ट्रैप
एमपी में भ्रष्टाचार के आरोपी अफसरों की संख्या 26 फीसदी बढ़ी है। लोकायुक्त की सालाना रिपोर्ट के मुताबिक पिछले एक साल के अंदर 279 सरकारी अधिकारियों-कर्मचारियों को ट्रैप किया गया है। लोकायुक्त ने 25 सरकारी विभाग में पदस्थ कर्मचारियों के ठिकानों पर छापेमारी की है। 2021 में लोकायुक्त ने 252 भ्रष्टाचारियों को रिश्वत लेते पकड़ा था। 2021 की तुलना 2022 में 12 फीसदी ज्यादा केस दर्ज किए गए। पिछले 3 साल में 27 फीसदी कर्मचारी राजस्व विभाग के रिश्वत लेते पकड़ाए हैं। पिछले 3 साल में 9 प्रतिशत पुलिसकर्मी रिश्वतखोरी करते ट्रैप हुए हैं।
गिरफ्तारी के बाद रिहाई का असर, सबूत से छेड़छाड़ करते हैं
जानकारों के मुताबिक जांच के दौरान गैर जमानती अपराध में भी बाहर रहने पर भ्रष्टाचार के आरोपी अक्सर साक्ष्यों को नष्ट करने और प्रभावित करने का प्रयास करते हैं। यही कारण है कि मध्यप्रदेश में भ्रष्टाचार से जुड़े मुकदमों में पर्याप्त साक्ष्यों के अभाव में या तो आरोपी बरी हो जाते हैं या सालों तक केस चलने के बाद सजा मिल पाती है।
यही वजह है कि भ्रष्टाचार के मामलों में लोकायुक्त की कार्रवाई उतनी प्रभावी नहीं हो पाती, जितनी आमजन को अपेक्षा रहती है, जबकि केंद्रीय जांच एजेंसी सीबीआई ऐसे मामलों में आरोपी को गिरफ्तार कर सीधे कोर्ट में पेश करती है। कोर्ट ही जमानत तय करती है।
जिन्हें रिश्वत लेते पकड़ा, उन्हें प्रमोशन मिल गया, 2 उदाहरण से समझिए…
- उमरिया जिले के बिरसिंहपुर पाली में पदस्थ एसडीएम नीलांबर मिश्रा और सुरक्षा गार्ड चंद्रभान सिंह को 24 जुलाई 2019 को क्रशर संचालन की अनुमति के एवज में 5 हजार रुपए रिश्वत लेते लोकायुक्त रीवा की टीम ने पकड़ा था। अभी इन्वेस्टिगेशन चल रही है, लेकिन जांच के बीच ही नीलांबर को पन्ना एडीएम बना दिया गया।
- करीब एक साल पहले राजकीय प्रेस के तत्कालीन उप नियंत्रक (मुख्यालय) विलास मंथनवार को 3 हजार रुपए की रिश्वत लेते लोकायुक्त ने पकड़ा था। लोकायुक्त पुलिस ने मंथनवार को इस पद से हटाने के लिए राज्य शासन को पत्र लिखा था। तब उन्हें भोपाल में केंद्रीय मुद्रणालय तो शिफ्ट कर दिया गया, लेकिन फरवरी 2023 में उन्हें मुख्यालय में ही खरीद-वितरण का जिम्मा दे दिया गया।
सिस्टम में ही बचने के ये हैं रास्ते…
सामान्य प्रशासन विभाग (जीएडी) का आदेश है कि भ्रष्टाचार के आरोपी अधिकारी-कर्मचारी के खिलाफ केस दर्ज होता है, तो उसका तबादला किया जाएगा। आरोपी को चार्जशीट पेश होने पर निलंबित कर सकते हैं। ऐसे में ट्रैप केस की जांच में डेढ़-दो साल लग जाते हैं। फिर अभियोजन स्वीकृति मांगी जाती है। यूं तो 4 महीने में स्वीकृति मिलनी चाहिए, पर ऐसा होता नहीं है।
सरकार की नरमी… 115 अफसर-कर्मचारियों के केस की मंजूरी नहीं दी
मंत्रालय सूत्रों ने बताया कि भ्रष्टाचार के आरोपी 115 अफसर और कर्मचारियों के खिलाफ अभियोजन की स्वीकृति लंबित है। इसमें सबसे ज्यादा 50 केस सामान्य प्रशासन व पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग के हैं। इनमें से 12 अफसर ऐसे हैं, जिनकी अभियोजन की स्वीकृति 2018 से लंबित हैं। इसी तरह नगरीय आवास एवं विकास के 30, राजस्व के 20 और स्वास्थ्य विभाग के 15 मामले लंबित हैं।
कानून कहता है कि जेल में होना चाहिए, लेकिन मप्र में ऐसा होता ही नहीं
32 साल से एंटी करप्शन एक्ट से जुड़े मामलों में पैरवी करने वाले एडवोकेट संदीप गुप्ता के मुताबिक पीसी एक्ट नॉन बेलेबल एक्ट है। इसमें रिश्वत लेने और मांगने के लिए भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम (PC act) 1988 की धारा 7 व 13 (1) (D) के तहत केस दर्ज किया जाता है। दोनों ही धाराएं गैर जमानती हैं। इस एक्ट में 2018 में संशोधन कर रिश्वत के मामलों में केवल धारा 7 के तहत मुकदमा दर्ज किया जाता है, जो गैर जमानती है।
गुप्ता के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में अरनेष कुमार V/S बिहार सरकार के मामले में फैसला दिया था कि 7 साल की सजा की धारा के केस में आरोपी को तत्काल जमानत पर छोड़ा जा सकता है, लेकिन यदि वह जांच में सहयोग करे और उसके फरार होने की आशंका नहीं है तो। मप्र में पिछले 15 साल से लोकायुक्त पुलिस भ्रष्टाचार के आरोपियों को गिरफ्तारी के बाद खुद ही जमानत पर छोड़ती आ रही है।
जांच में सहयोग का वादा करने पर छोड़ देते हैं
मप्र के रिटायर्ड लोकायुक्त डीजी अनिल कुमार 2015-16 में सीआरपीसी एक्ट में हुए संशोधन का हवाला देते हुए कहते हैं- जिन अपराधों में 7 साल तक की सजा है उनमें यदि आरोपी सहमति देते हैं कि जांच में सहयोग करते हैं या फिर उनके फरार होने की आशंका नहीं है तो उन्हें गिरफ्तार नहीं किया जाएगा। 10 साल की सजा वाले आय से अधिक संपत्ति के मामलों में जांच लंबे समय तक चलती है। केवल छापा मारने से सभी तथ्य सामने नहीं आ पाते हैं, उनमें भी जांच पूरी होने के बाद ही गिरफ्तारी होती है।
जांच की परमिशन नहीं देना मतलब भ्रष्टाचारी का बचाव
मप्र के रिटायर्ड लोकायुक्त डीजी अनिल कुमार के मुताबिक भ्रष्टाचार के केस में इन्वेस्टिगेशन के बाद अभियोजन की स्वीकृति मिलती है। इसके बाद कोर्ट सजा तय करता है। ऐसे में परमिशन जल्दी देनी ही चाहिए, ताकि चालान में देरी न हो। देरी की वजह से केस कमजोर ही होता है। यदि इन्वेस्टिगेशन की परमिशन समय पर नहीं मिलती है, तो साफ है कि भ्रष्टाचारी का बचाव किया जा रहा है।
घूसखोर सरकारी कर्मी को जांच के दौरान प्रमोशन मिलने के सवाल पर अनिल कुमार कहते हैं कि 1982 की सुप्रीम कोर्ट की रूलिंग है। इसमें कहा गया था कि यदि अभियोजन की स्वीकृति दे दी गई है या विभागीय जांच की अनुमति फाइल पर हो गई है, तो वे प्रमोशन के हकदार नहीं होंगे।
वे यह भी कहते हैं कि कानून सरकार बनाती है। सभी एजेंसियों को उनका पालन करना होता है। 2018 में कानून में संशोधन किया गया कि जांच करने से पहले राज्य सरकार से अनुमति अनिवार्य होगी। जब किसी को पकड़ा जाता है, तो उसकी सूचना 48 घंटे में राज्य सरकार को दी जाती है। सामान्य प्रशासन विभाग (जीएडी) का नियम है कि उसको तत्काल निलंबित किया जाए, लेकिन ऐसा नहीं होता है, क्योंकि कोई नियम नहीं है कि जांच एजेंसी या लोकायुक्त सरकार पर भ्रष्टाचारी पर एक्शन लेने के लिए दबाव डाले। ऐसे केंद्र सरकार के भी निर्देश हैं।
यदि कोई रिश्वत लेते पकड़ा जाता है, तो उसे तत्काल निलंबित किया जाना चाहिए। खास बात यह है कि सारे प्रमाण देने के बाद भी अभियोजन की स्वीकृति नहीं मिलती है, जबकि अधिकांश केस में 100 से 150 पेज की रिपोर्ट तैयार कर राज्य शासन को भेजी जाती है।
राजस्थान में भ्रष्ट अफसरों की प्रॉपर्टी जब्त करने का कानून भी
राजस्थान में भ्रष्टाचार में घिरे अफसरों पर कार्रवाई को लेकर एंटी करप्शन ब्यूरो (एसीबी) है। एसीबी स्वतंत्र है, लेकिन सरकार के अधीन है। एसीबी ने कई आईएएस, आईपीएस, राज्य सेवा के अफसरों को पकड़ा, जेल भी भेजा। राजस्थान में 2012 से ऐसे केस में प्रॉपर्टी जब्त करने का कानून भी है। इतना ही नहीं, एसीबी को राज्य के साथ-साथ राजस्थान में पदस्थ केंद्र के अधिकारियों और कर्मचारियों के खिलाफ भी कार्रवाई करने का अधिकार है। यहां एंटी करप्शन ब्यूरो की टीम आरोपी को विशेष कोर्ट में पेश करती है। महाराष्ट्र, दिल्ली, उत्तर प्रदेश सहित बाकी राज्यों में यही प्रक्रिया है।