मुफ्त की रेवड़ी क्या वोट पाने की गारंटी है?

खजाने की हालत के बारे में बिना सोचे, योजनाएं बिछाई जा रही हैं…

बिना विचारे, बिना खजाने की हालत के बारे में सोचे, योजनाएं बिछाई जा रही हैं। पता किसी को नहीं है कि आखिर इनका फायदा मिलेगा भी या नहीं! मध्यप्रदेश में लाड़ली बहना पहले हजार रुपए महीने ले रही थीं। अब बढ़कर साढ़े बारह सौ हो गए।

पहले कहा था जिनके घर ट्रैक्टर हैं, वे लाड़ली बहना नहीं हो पाएंगी। फॉर्म सबने भर दिए। सबको पैसे मिलने लगे। बाद में ट्रैक्टर वालियों को भी आधिकारिक रूप से लाड़ली बहना बना लिया गया। पर क्या तमाम लाड़ली बहना भाजपा को वोट देंगी? यह एक सवाल है और अब तक तो अनुत्तरित ही है।

राजस्थान चलें तो वहां नजारा कुछ और ही है। वहां महिलाओं को मोबाइल फोन बांटने की घोषणा हो गई। फिर समझ में आया कि इतने मोबाइल फोन बांटने में तो बड़ी झंझट है! तब सरकार ने मोबाइल फोन की बजाय महिलाओं को नौ-नौ हजार रु. देने का मन बना लिया। दिए भी जा रहे हैं।

अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कह रहे हैं कि हर गारंटी की गारंटी मोदी है। उनका इशारा विपक्ष, खासकर कांग्रेस की तरफ था। कहना चाहते थे कि भाजपा के अलावा जो कोई भी पार्टी, जो कुछ भी वादा करती है, झूठा ही निकलता है।

जैसे मध्यप्रदेश के किसानों का दस दिन के भीतर कर्ज माफी का वादा। सालभर कांग्रेस की सरकार रही लेकिन पूरे कर्ज माफ नहीं कर सकी। वादा धरा रह गया। यही वजह है कि इन वादों पर कोई भरोसा नहीं करता। जहां तक मुफ्त में मिल रहे पैसों का सवाल है, ये भी वोट की गारंटी तो नहीं ही लगते। क्योंकि लोग समझते हैं- जो पैसा मिल रहा है, वो किसी का कोई एहसान नहीं है। ये तो उनका हक है। वोट तो वे उसे ही देंगे, जिसे चाहेंगे। वोटर भी चतुर हो चुके हैं। वे अब फायदा तो दोनों तरफ से उठाना चाहते हैं, लेकिन वोट की गारंटी किसी को नहीं देना चाहते।

समय की दरकार भी यही है। कुछ मिल ही रहा है तो क्यों छोड़ा जाए? भला दान की बछिया के कौन दांत देखे? यानी मुफ्त का पैसा किसे अच्छा नहीं लगता? उधर छत्तीसगढ़ चलिए। वहां गरीबों, आदिवासियों को भोजन देकर ही सरकार बचाने की कवायद चल रही है। गांव-गरीब को पकड़ रखा है। सरकार जानती है सत्ता की चाबी ये ही हैं। कहीं पोषक आहार, कहीं मुफ्त का भोजन बांटा जा रहा है। चूंकि मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में ये तमाम योजनाएं पहले ही शुरू कर दी गई हैं, इसलिए शायद आदर्श आचार संहिता भी इनका कुछ बिगाड़ नहीं पाएगी।

दरअसल, मुफ्त की रेवड़ियों पर पिछले महीनों सुप्रीम कोर्ट में लम्बी सुनवाई चली थी। तरह-तरह की परिभाषाएं भी दी गईं, लेकिन बात सिरे नहीं चढ़ी। कोर्ट ने चुनाव आयोग और सभी राजनीतिक दलों से कहा था कि अपने-अपने तर्क दें और बताएं कि क्या वो चीज है, क्या वो बात है, जो मुफ्त की रेवड़ी के तहत आती है और किसे यह नहीं माना जा सकता? लेकिन किसी ने कोई कंक्रीट जवाब नहीं दिया।

सब जानते हैं- कोर्ट ने कोई निश्चित परिभाषा बना दी तो सब के सब फंसेंगे। इसलिए पतली गली से सब निकल लिए। बात वहीं की वहीं रह गई। मुफ्त की रेवड़ियां ऐन चुनाव के वक्त पहले भी बांटी जाती रहीं और अब भी बांटी जा रही हैं। चुनाव आयोग को इस बारे में निश्चित रूप से कुछ सोचना चाहिए कि निष्पक्ष चुनाव आखिर कैसे हो सकते हैं? आखिर ये मुफ्त की रेवड़ियां लोगों को वोट के लिए प्रलोभन देना ही तो है। फिर इतने सब प्रलोभनों के बीच चुनाव आयोग कर क्या रहा है?

क्या चुनाव की तारीखें और उसके परिणाम घोषित कर देना ही उसका काम रह गया है? सच्चे मन से इन चुनावों की निगरानी कौन करेगा? वैसी, जैसी टीएन शेषन के मुख्य चुनाव आयुक्त रहते हुई थी। चुनाव आयोग अगर शेषन के बताए रास्ते पर चलने लगे तो निष्पक्ष चुनाव की बात की जा सकती है, वरना नहीं। हालांकि आने वाले दिनों में तो चुनाव आयोग को और भी पंगु बनाने के रास्ते खोजे जा रहे हैं।

एक विधेयक है जो अभी पारित तो नहीं हो सका है लेकिन वह आ गया तो चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति से चीफ जस्टिस को हटा दिया जाएगा और तीन सदस्यों वाली इस नियुक्ति कमेटी में सरकार का बहुमत हो जाएगा। फिर सरकार जिसे चाहेगी, चुनाव आयुक्त या मुख्य चुनाव आयुक्त नियुक्त कर सकेगी।

खैर, चुनाव आयोग जैसा भी रहे, देखना यह है कि मुफ्त की रेवड़ियों पर अंकुश लग पाता है या नहीं?

ये लोगों को वोट के लिए प्रलोभन देना ही तो है…
चुनाव के वक्त पहले भी रेवड़ियां बांटी जाती रहीं और अब भी बांटी जा रही हैं। चुनाव आयोग को सोचना चाहिए कि निष्पक्ष चुनाव आखिर कैसे हो सकते हैं? आखिर ये मुफ्त की रेवड़ियां लोगों को वोट के लिए प्रलोभन देना ही तो है।

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