पुलिस सुधार के प्रयासों को गति देने का वक्त !
पुलिस अफसरों के इस सम्मेलन में प्रधानमंत्री की इस सीख से यह जाहिर होता है कि आजादी के 76 साल बाद भी पुलिस जनता की दोस्त के रूप में काम नहीं कर रही। इसके लिए पुलिस को ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। प्रधानमंत्री की पुलिस अफसरों को दी गई नसीहत ने कई विचारणीय सवाल भी खड़े किए हैं। पहले भी पुलिस सुधारों को लेकर काफी विचार-विमर्श व सरकारी स्तर पर फैसले हुए हैं। सवाल यह है कि इसके बावजूद पुलिस अपनी कसौटी पर खरी क्यों नहीं उतर पा रही? अहम सवाल यह भी कि क्या पुलिस स्वतंत्र तरीके से काम नहीं कर पा रही? अगर इस सवाल का जवाब हां है तो हमें इसके कारण भी तलाशने होंगे। यह जगजाहिर है कि पुलिस को कई बार राजनीतिक दबाव में काम करना पड़ता है। पुलिस अफसरों की नियुक्ति में सिफारिशें किस स्तर की होती हैं, यह भी किसी से छिपा नहीं है। संकट यह भी है कि आबादी के अनुपात में जितने पुलिसकर्मी होने चाहिए, उतने आज भी नहीं हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार, देश में प्रति एक लाख जनसंख्या पर 196 पुलिसकर्मी होने चाहिए जबकि वर्तमान में यह आंकड़ा 152 ही है। अनेक राज्यों में तो यह अनुपात 130 के भी नीचे है।
जरूरत इस बात की भी है कि हाईटेक हो रहे अपराधियों से निपटने के लिए पुलिस बेड़े को तकनीकी रूप से दक्ष किया जाए। राजनेताओं को भी इसमें सहयोग देना होगा। विडम्बना यह है कि एक तरफ पुलिसकर्मियों की कमी है तो दूसरी तरफ मंत्री और विधायकों से लेकर पार्टी पदाधिकारी भी अपनी सुरक्षा के लिए पुलिसकर्मियों की तैनाती चाहते हैं। पुलिस सुधार के प्रयासों को अब गति देने का वक्त है। पुलिस में सेवा का भाव हो तभी वह जनआकांक्षाओं के अनुरूप अपने आपको ढाल सकती है। शायद तभी प्रधानमंत्री की सीख भी कारगर साबित होगी।