भारत में कैसे होनी चाहिए पॉलिटिकल फंडिंग !

भारत में कैसे होनी चाहिए पॉलिटिकल फंडिंग
भारत में पॉलिटिकल पार्टियों की तिजोरी भरने वाले इलेक्टोरल बॉन्ड को सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक करार दिया है। 15 फरवरी को कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि बॉन्ड देने वाले की पहचान गुप्त रखी जाती है। ये जानने के अधिकार का उल्लंघन है, इसलिए इस स्कीम को रद्द किया जाता है। 13 मार्च तक इलेक्टोरल बॉन्ड की सभी गोपनीय सूचनाएं सबके सामने होंगी।

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद सवाल उठ रहा है कि भारत में पॉलिटिकल पार्टियों को फंडिंग का सबसे अच्छा मॉडल क्या हो सकता है? मंडे मेगा स्टोरी में जानेंगे दुनिया के तमाम देशों में चल रहे पॉलिटिकल फंडिंग के अलग-अलग मॉडल की कहानी…

अमेरिका में राजनीतिक चंदे पर तीन सरकारी संस्थान नियंत्रण रखते हैं- इंटर्नल रेवेन्यू सर्विस, फेडरल इलेक्शन कमीशन और डिपार्टमेंट ऑफ लेबर। अमेरिका में राजनीतिक फंडिंग पर नियंत्रण रखने के लिए साल 1971 में फेडरल इलेक्शन कैम्पेन एक्ट पारित किया गया था। इसी के तहत अमेरिका में फेडेरल इलेक्शन कमीशन बनाया गया। ये आयोग ही चुनावी अभियानों के लिए पैसा जुटाने के नियमों को लागू करता है।

इसके अलावा अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के फैसलों ने भी चुनावी अभियान और पार्टियों की फंडिंग के लिए बने नियमों को प्रभावित किया है। जैसे- 2010 में सिटीजन यूनाइटेड बनाम FEC मामले में कहा था कि ‘राइट टु फ्री स्पीच में पहला संशोधन आने के बाद सरकार, कॉर्पोरेशन, लेबर यूनियंस और दूसरे संगठनों को राजनीतिक उद्देश्य के लिए पैसा खर्च करने से नहीं रोक सकते।

ब्रिटेन में राजनीतिक पार्टियों को चंदा देने वालों की सारी जानकारी रखनी होती है और एक तय सीमा के ऊपर दान देने वाले व्यक्तियों या कंपनियों के नाम और पते की जानकारी एक तिमाही रिपोर्ट के जरिए इलेक्टोरल कमीशन को देनी होती है। साल 2024 की पहली तिमाही के लिए दान की राशि की सीमा 11 हजार पाउंड यानी करीब 11 लाख रुपए रखी गई है।

ब्रिटेन में नकद पैसे के अलावा कोई प्रॉपर्टी, किसी तरह की स्पॉन्सरशिप या पार्टी के ऑफिस के लिए मुफ्त में या डिस्काउंट में मिलने वाली जगह को भी डोनेशन माना गया गया है। 500 पाउंड से कम के डोनेशन को रिपोर्ट किए जाने की जरूरत नहीं है।

सख्त नियमों के बावजूद भी कुछ खामियां हैं, जिनके कारण ब्रिटेन में राजनीतिक दलों को गुमनाम तरीके से लाखों पाउंड का चंदा मिलता है। मसलन, ‘अनइंकॉर्पोरेटेड एसोसिएशंस’ को ऑडिट के नियमों का पालन नहीं करना होता है। इसलिए ऐसे संगठनों के जरिए लाखों पाउंड की रकम राजनीतिक दलों को पहुंचाई जाती है।

बीते सालों में इजराइल में चुनाव प्रचार और मीडिया से जुड़े मदों पर राजनीतिक दलों का खर्च काफी बढ़ा है। चुनाव के दिनों में इजराइल की पॉलिटिकल पार्टियां, वोटर्स को पोलिंग बूथ तक लाने के लिए टैक्सी मुहैया करवाती हैं। इसके अलावा पार्टी के कार्यकर्ताओं के खाने और उनके वक्त के लिए भी उन्हें पैसा दिया जाता है। इजराइल में इस तरह की मदों में राजनीतिक दल करीब 25% से 33% तक पैसा खर्च करते हैं।

इजराइल में जब तक वयस्क जनसंख्या के पार्टी में शामिल होने की दर ज्यादा रही, तब तक राजनीतिक दलों के लिए फंड जुटाने का सबसे बड़ा स्रोत पार्टी की मेंबरशिप फीस थी, लेकिन कई अन्य लोकतांत्रिक देशों की तरह इजराइल में भी पार्टियों की मेंबरशिप लेने वालों की तादाद घटी। साल 1969 में इजराइल की 18 फीसदी आबादी राजनीतिक दलों की सदस्य थी, लेकिन साल 1990 आते-आते ये सिर्फ 7 फीसदी रह गई।

राजनीतिक दलों को कोई भी कभी भी चंदा दे सकता है। पार्टियां अपने सदस्यों से सदस्यता शुल्क या चंदे के तौर पर मनमानी राशि ले सकती हैं। हालांकि, इन दलों को एक वित्तीय वर्ष खत्म होने के 60 दिन के अंदर अपने खातों का स्टेटमेंट एक CA से ऑडिट करवाने के बाद इलेक्शन कमीशन को देना होता है। इस स्टेटमेंट में एक लाख रुपए से ज्यादा रकम दने वाले सभी डोनर्स की लिस्ट भी देनी होती है। पाकिस्तान की पॉलिटिकल फंडिंग में एक बड़ी दिक्कत ये है कि यहां किसी भी राजनीतिक दल के व्यावसायिक गतिविधियों में शामिल होने पर कोई रोक नहीं है।

पाकिस्तान में उम्मीदवारों के लिए चुनाव अभियान के दौरान किए जाने वाले खर्च की सीमाएं तय की गई हैं। सीनेट के उम्मीदवारों के लिए चुनावी खर्च की अधिकतम सीमा 15 लाख रुपए है, जबकि नेशनल असेंबली के लिए 4 लाख रुपए तक खर्च करने की छूट है। हालांकि, पार्टियों के लिए चुनावों में खर्च करने के लिए कोई सीमा नहीं तय की गई है।

पाकिस्तान के इलेक्शन कमीशन द्वारा जारी आंकड़ों से पता चलता है कि राजनीतिक दलों की आय का सबसे बड़ा स्रोत चुनाव के दौरान पार्टी के टिकट के उम्मीदवारों से ली जाने वाली फीस है। उदाहरण के लिए साल 2017-18 के दौरान पार्टी के टिकट की एप्लिकेशन फीस के नाम पर पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को जितना पैसा मिला, वो उसकी कुल कमाई का लगभग 89% था।

पार्टियों को मीडिया के संसाधनों के इस्तेमाल पर सब्सिडी मिलती है। स्टाम्प ड्यूटी में छूट के बतौर टैक्स में भी रियायत दी जाती है। इसके अलावा जिन उम्मीदवारों को वोट शेयर का कम से कम 5% मिल जाता है उन्हें पेपर, बैलट की छपाई, पोस्टर, सर्कुलर्स और डिस्प्ले वगैरह में आने वाला खर्च वापस कर दिया जाता है।

राजनीतिक दलों को अपना सालाना बही-खाता मेंटेन करना होता है। साथ ही चुनाव अभियानों में डोनर्स की पहचान को सार्वजानिक करना होता है। नियमों का उल्लंघन करने वाले दलों को फाइन देना पड़ता है, पब्लिक फंडिंग से हाथ धोना पड़ सकता है। यहां तक कि पार्टी का रजिस्ट्रेशन रद्द करने और कैद की सजा के भी प्रावधान हैं।

इलेक्टोरल बॉन्ड की खासियत यह है कि इसमें देने वाले का पता नहीं होता। ऐसे में राजनीतिक दलों को मिलने वाले 70% से 80% चंदे का कोई सोर्स पता नहीं चलता। यह नियम अनअकाउंटेड मनी, यानी काले धन को बढ़ावा देता है। इसका इस्तेमाल राजनीतिक दलों के जरिए अपने पक्ष में नीतियां बनवाने में किया जा सकता है। चंदे देने वाली कंपनी या शख्स का नाम पता नहीं होने पर आम लोगों को पता नहीं चलता कि सरकार ये नीति क्यों बना रही है।

इलेक्टोरल बॉन्ड का यह नियम काले धन का हेरफेर करने और फर्जी कंपनी बनाने को बढ़ावा देता है। इलेक्टोरल बॉन्ड में दी गई रकम का जिक्र कंपनी की बैलेंस शीट, इनकम टैक्स रिटर्न, प्रॉफिट-लॉस स्टेटमेंट में तो होता है, लेकिन यह किस पार्टी को दिया गया, इसका जिक्र नहीं होता है।

इलेक्टोरल बॉन्ड में दी जाने वाली पूरी रकम पर इनकम टैक्स से 100% छूट मिलती है। इस नियम का इस्तेमाल राजनीतिक दलों के साथ मिलकर इनकम टैक्स में गैरजरूरी छूट लेने के लिए किया जा सकता है।

यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट ने इलेक्टोरल बॉन्ड को असंवैधानिक करार दिया। भारत में पॉलिटिकल पार्टियों को फंडिंग का सबसे अच्छा मॉडल क्या हो सकता है, दुनिया के किस देश का मॉडल अपनाया जा सकता है ये बड़ा सवाल है।

CPI(M) के जनरल सेक्रेटरी सीताराम येचुरी ने पत्रकारों से बातचीत में स्टेट फंडिग की बात कही है। उनके मुताबिक, राजनीतिक दलों को सरकारी फंडिंग मिलने से पारदर्शिता और लेवल प्लेइंग फील्ड (समान अवसर) मिलेगा। उन्होंने स्कैंडेनिविया और जर्मनी जैसे देशों का उदाहरण दिया, जहां ये व्यवस्था लागू है।

क्या भारत में भी चुनाव लड़ने के लिए सरकारी फंडिंग मिलनी चाहिए?

भारत में चुनावी चंदे और पॉलिटिकिल पार्टियों पर स्टडी करने वाली संस्था ADR के संस्थापक प्रोफेसर जगदीप छोकर कहते हैं, ‘जहां तक सरकारी फंडिंग की बात है, यह प्रणाली लागू करना व्यावहारिक नहीं है। सरकार द्वारा दिया जाने वाला पैसा जनता का ही पैसा होता है। अगर राजनीतिक दल जनता के पैसे से फंडिंग पाते हैं तो उन्हें दूसरे तरीकों से फंडिंग नहीं लेनी चाहिए, लेकिन ऐसा होना व्यावहारिक नहीं है। इसलिए डिजिटल फंडिंग ही एक पारदर्शी तरीका है।’

पॉलिटिकल एक्सपर्ट रशीद किदवई कहते हैं, ‘दुनिया के कई देशों में पब्लिक फंडिंग की व्यवस्था है। हमारे देश में भी सभी दलों को सदन में उनके प्रतिनिधित्व के अनुपात में फंडिंग दी जाए, मीडिया और प्रचार के अन्य साधनों में भी सबकी हिस्सेदारी हो तो चुनाव में पारदर्शिता लाई जा सकती है। रशीद ये भी कहते हैं कि ये तुरंत संभव नहीं है, लेकिन सही दिशा में एक कदम जरूर होगा और संभावना है कि आगे सुधार हो।’

सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (CSDS) के प्रोफेसर संजय कुमार कहते हैं, ‘चुनावों में सरकारी फंडिंग की चर्चा पहले भी होती रही है। इससे कोई इनकार नहीं करता। सरकारी फंडिंग से चुनाव करवाया जाना कम से कम उन छोटे दलों के लिए मददगार होगा जिन्हें चंदा इकट्ठा करने में समस्या होती है। सरकारी फंडिंग की व्यवस्था लागू करना सभी राजनीतिक दलों को समान अवसर दिए जाने की दिशा में एक कदम होगा। राजनीतिक दलों के लिए सरकारी आर्थिक सहयोग के अलावा अन्य संसाधनों जैसे कि मीडिया और प्रचार के साधनों में भी हिस्सेदारी की व्यवस्था होनी चाहिए।’

भारत में पॉलिटिकल फंडिंग का सबसे अच्छा मॉडल क्या हो सकता है?

जगदीप छोकर कहते हैं, ‘भारत में 2017 से पहले भी पॉलिटिकल पार्टियों को फंडिंग होती थी और इलेक्टोरल बॉन्ड बंद होने के बाद भी होती रहेगी। ये जो इस तरह दिखाया जा रहा है कि इलेक्टोरल बॉन्ड के न रहने से राजनीतिक दलों के लिए बड़ी समस्या खड़ी हो जाएगी, ये गलत है। दुनिया भर के देशों में अलग अलग तरीके से पॉलिटिकल पार्टियों की फंडिंग होती है। इसको लेकर बनाए गए नियम कानूनों में कुछ न कुछ खामियां भी हैं। भारत में पॉलिटिकल फंडिंग को पारदर्शी बनाने के लिए डिजिटल फंडिंग शुरू की जानी चाहिए। जनता द्वारा या चंदा देने वाले संस्थानों द्वारा पैसा सीधे राजनीतिक दलों की UPI ID के जरिए ट्रांसफर किया जाना चाहिए।’

रशीद किदवई कहते हैं, ‘भारत में सबसे बड़ी समस्या ये है कि चुनावों में तय सीमा से कहीं अधिक पैसा खर्च होता है। चुनावों में काले धन का इस्तेमाल होता है। इसे रोकने की जरूरत है।’

संजय कुमार कहते हैं कि, ‘सरकारी फंडिंग की प्रणाली लागू होने से ये संभव नहीं होगा कि राजनीतिक दल, अपने सहयोगी संस्थानों, व्यापारियों वगैरह से कैश या बैंक खातों में पैसा नहीं लेंगे। ये कैश फ्लो चलेगा, लेकिन इसकी निगरानी के लिए सख्त नियम बना दिए जाने चाहिए। डोनेशन की एक सीमा तय कर देनी चाहिए, साथ ही डोनर का नाम- पता उजागर करने की व्यवस्था होनी चाहिए। और अगर कंपनियां पॉलिटिकल फंडिंग करती हैं तो उनकी वैल्यूएशन के अनुसार डोनेशन के लिए स्लैब बना देनी चाहिए। कोई कंपनी अगर ज्यादा पैसा डोनेट करती है तो ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि वो कई दलों को पैसा डोनेट करे।’

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