खेती और मजदूरी करने वाले परिवारों का कितना है मासिक खर्च?

अमीर या गरीब… सरकार से मुफ्त में मिलने वाली चीजों से कौन उठा रहा ज्यादा फायदा? देखिए सर्वे
भारतीयों की कमाई बढ़ने के साथ उनके खाने-पीने की आदतों में बदलाव आ रहा है. खाने पर अब पहले से कम पैसा खर्च हो रहा है. लेकिन खाने की किन चीजों पर ज्यादा और कम खर्च हो रहा है ये जानना भी दिलचस्प है.
देश में जैसे-जैसे महंगाई बढ़ती है भारतीय नागरिकों के घर का मासिक खर्च भी बढ़ता रहता है. पिछले एक दशक में हर व्यक्ति का औसत मासिक खर्चा ढाई गुना तक बढ़ गया है. खास बात यह है कि ग्रामीण और शहरी इलाकों के बीच खर्च में अंतर घटा है.

शहरी लोगों की तुलना में ग्रामीणों के खर्चे में ज्यादा बढ़त दिखी है. साथ ही लोग खाने-पीने पर कम बल्कि घूमने और दूसरी चीजों पर ज्यादा खर्च कर रहे हैं. 2022-23 में गांव में रहने वाले लोगों का औसत मासिक खर्च 3773 रुपये था, जबकि शहरी लोगों का 6459 रुपये था. 

गांव में रहने वाले सबसे अमीर 5 फीसदी लोगों का औसत मासिक खर्च 10,501 रुपये और शहरवासियों का 20,824 रुपये था. ये सभी जानकारी नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओ) की ओर से किए गए हाउसहोल्ड कंजम्पशन एक्सपेंडिचर सर्वे से सामने आई है.

यह सर्वे न केवल घरों के खर्च के पैटर्न में होने वाले बदलाव की जानकारी देता है, बल्कि गरीबी और असमानता के आंकलन का आधार भी बनता है. इस स्पेशल स्टोरी में हम आपको कई दिलचस्प आंकड़े बता रहे हैं.   

खेती और मजदूरी करने वाले परिवारों का मासिक खर्च कितना?
1999-2000 में खेती करने वाले परिवारों का मासिक खर्च 520 रुपये था, जबकि बाकी गांव वालों का औसत खर्च 486 रुपये था. साल 2004-05 में खेती करने वाले परिवारों का खर्च 583 रुपये हो गया, जबकि बाकी गांव वालों का औसत खर्च 559 रुपये था. 2011-12 में खेती करने वाले परिवारों का खर्च 1436 रुपये हो गया, जो बाकी गांव वालों के औसत खर्च 1430 से थोड़ा ज्यादा था.

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सरकारी सर्वे के मुताबिक, 2022-23 में खेती करने वाले दिहाड़ी मजदूरों और तयशुदा मजदूरों का खर्च भी गांव के औसत खर्च से कम है. गांव में खेती करने वाले परिवारों का खर्च बढ़कर 3702 रुपये हो गया.

खेती में तयशुदा मजदूरी करने वाले परिवारों का औसत खर्च 3597 रुपये, जबकि गैर-खेती में तयशुदा मजदूरी करने वाले परिवारों का खर्च 4533 रुपये था. इसी तरह खेती में दिहाड़ी मजदूरी करने वालों का खर्च 3273 रुपये था और गैर-खेती में दिहाड़ी मजदूरी करने वाले परिवारों का औसत खर्च 3315 रुपये था.

किस जाति के लोग करते हैं सबसे कम खर्च
सरकारी सर्वेक्षण के मुताबिक, गांव में रहने वाले लोगों में सबसे कम खर्च अनुसूचित जनजाति (ST) के परिवार करते हैं. इनका औसत मासिक खर्च 3016 रुपये है. इसके बाद अनुसूचित जाति (SC) का 3474 रुपये, अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) का 3848 रुपये और बाकी लोगों का 4392 रुपये औसत मासिक खर्च है.

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शहरों में भी अनुसूचित जाति (SC) का औसत मासिक खर्च 5307 रुपये सबसे कम है. इसके बाद अनुसूचित जनजाति (ST) का 5414 रुपये, अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) का 6177 रुपये और बाकी लोगों का 7333 रुपये औसत मासिक खर्च है.

सबसे कम और सबसे ज्यादा खर्च करने वाले राज्य
गांव और शहर दोनों जगह सबसे ज्यादा खर्च करने वाले लोग सिक्किम से हैं. यहां ग्रामीण इलाकों के लिए 7731 रुपये और शहरी इलाकों में 12105 रुपये रहा था. वहीं सबसे कम खर्च छत्तीसगढ़ (ग्रामीण 2466 और शहरी 4483 रुपये) था. गांव और शहर के खर्च में सबसे ज्यादा अंतर मेघालय (83%) और उसके बाद छत्तीसगढ़ (82%) में देखा गया.

केंद्र शासित प्रदेशों की बात करें तो चंडीगढ़ (ग्रामीण 7467 और शहरी 12,575) में सबसे ज्यादा खर्च होता है. जबकि लद्दाख के ग्रामीण इलाके में 4035 रुपये और लक्षद्वीप के शहरी इलाके में 5,475 रुपये में सबसे कम खर्च होता है.

आम तौर पर यह माना जाता है कि शहरों में रहने वाले लोगों का जीवन-स्तर गांवों में रहने वालों से बेहतर होता है. इसका एक कारण यह है कि शहरों में लोगों का औसत मासिक खर्च ज्यादा होता है. 

मुफ्त में मिलने वाली चीजों से सबसे ज्यादा फायदा किसे
सर्वे में इस बार कुछ नया किया गया है. सर्वे में लोगों से पूछा गया है कि उनके परिवार को क्या-क्या चीजें मुफ्त में मिली हैं और उनकी संख्या कितनी थी. इनमें खाने की चीजें जैसे चावल, गेहूं, आटा, ज्वार, बाजरा, मक्का, अनाज, चीनी, तेल शामिल हैं.

गैर-खाद्य चीजों में लैपटॉप, टैबलेट, मोबाइल फोन, साइकिल, मोटरसाइकिल/स्कूटी, स्कूल ड्रेस शामिल हैं. स्कूल-कॉलेज की फीस माफी या अस्पताल में मुफ्त इलाज जैसी चीजों की कीमत का अनुमान नहीं लगाया गया है.

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इस आधार पर एनएसएसओ ने दो तरह का डेटा जारी किया है. एक में फ्री मिलने वाली चीजों की कीमत शामिल नहीं है. दूसरे में उनकी अनुमानित कीमत शामिल है. दोनों आंकड़ों की तुलना करने से पता चलता है कि फ्री में मिलने वाली चीजों की वजह से लोगों के पास खर्च करने के लिए थोड़ा ज्यादा पैसा बच जाता है. लेकिन, सबसे ज्यादा फायदा किसको होता है.

सर्वे के मुताबिक, गांव में सबसे गरीब 5 फीसदी लोगों को मुफ्त मिलने वाली चीजों से सबसे कम फायदा होता है. उन्हें सालाना सिर्फ 68 रुपये का ही फायदा होता है. जबकि सबसे ज्यादा फायदा उन लोगों को होता है जो पहले से ही थोड़ी अच्छी स्थिति में होते हैं.

हालांकि शहर में सबसे गरीब तीन तबके (पहले 0-5%, फिर 5-10% और फिर 10-20%) के लोगों को मुफ्त की चीजों से सबसे ज्यादा फायदा हुआ है. इन्हें क्रमश: 86 रुपये, 88 रुपये और 84 रुपये का फायदा हो रहा है.

कैसा है भारतीयों का खाने-पीने का पैटर्न
बीते दो दशक में भारतीयों का खाने-पीने पर खर्च का पैटर्न बदला है. खान-पान पर खर्च का प्रतिशत कम हुआ है. अब ये बात चाहे शहरवासियों की हो या गांव वालों की. 1999-2000 में जहां गांव में खाने-पीने पर खर्च का हिस्सा 59.4% तक था, वहीं 2022-23 में घटकर 46.38% हो गया. शहर में भी ऐसा ही बदलाव देखने को मिला है. शहर में खाने-पीने पर औसत खर्च (एमपीसीई) का हिस्सा 1999-2000 में 48.06% था, जो 2022-23 में घटकर 39.17% हो गया.

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अगर भारतीय खाने-पीने पर कम खर्च कर रहे हैं, तो मतलब लोगों के पास बाकी चीजों पर खर्च करने के लिए ज्यादा पैसे बचते हैं. ये चीजें हो सकती हैं मोबाइल, फ्रिज, कपड़े, जूते, घूमने-फिरने पर खर्च या किसी कहीं और खर्चा. 

खाने में क्या पसंद करते हैं भारतीय?
पहले ज्यादातर लोग सिर्फ अनाज (चावल, गेहूं आदि) ही खाते थे, लेकिन अब भारतीय खाने की दूसरे चीजों पर भी खर्चा कर रहे हैं. अनाज पर किया जाने वाला खर्चा पहले से काफी कम हो गया है. 1999-2000 में अनाज पर शहर में ये खर्च 12.39% हुआ करता था, जो अब घटकर 3.64% रह गया. वहीं गांव में भी ये पहले 22.23% था, जो अब घटकर 4.91% रह गया है.

पहली बार साल 2022-23 में गांव और शहर दोनों जगह लोगों ने सब्जियों और फलों पर अनाज से ज्यादा खर्च किया है. इतना ही नहीं अब अकेले सब्जियों पर जितना खर्च हो रहा है वो अनाज से ज्यादा है और फलों पर जितना खर्च हो रहा है वो दालों से ज्यादा है.

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अब लोग खाने-पीने की ज्यादा पौष्टिक चीजों जैसे अंडे, मछली, मांस, दूध और फलों पर ज्यादा खर्च करने लगे हैं. इसके अलावा, पैकेटबंद खाने और ठंडे पेय पदार्थों पर भी खर्च बढ़ा है. लोग अब पैकेटबंद खाने, ठंडे पेय पदार्थों और बाहर से लाए हुए पके भोजन पर भी पहले से ज्यादा खर्च कर रहे हैं, हालांकि ये खर्च उनकी कुल कमाई का एक छोटा सा हिस्सा ही है

खाने-पीने से अलग चीजों पर खर्च
गांव में खाने-पीने से अलग चीजों पर प्रति व्यक्ति मासिक खर्च 2023 रुपये है. कुल खर्च में इसकी हिस्सेदारी 54% रही. सबसे ज्यादा यात्रा पर 285 रुपये प्रति व्यक्ति प्रति माह खर्च होता है. इसके बाद मेडिकल पर 269 रुपये, शिक्षा पर 229 रुपये, कपड़े-जूते पर 195 रुपये और एंटरटेनमेंट पर 137 रुपये खर्च होता है. पिछले 10 सालों में यात्रा पर खर्च 4.2% से बढ़कर 7.6% हो गया है.

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शहरों में खाने-पीने से अलग चीजों पर प्रति व्यक्ति औसत मासिक खर्च 3929 रुपये है. कुल खर्च में इसका हिस्सा 61% है. शहरों में भी कन्वेएंस पर सबसे ज्यादा 555 रुपये खर्च किया गया. इसके बाद ड्यूरेबल गुड्स (जैसे कि फर्नीचर, इलेक्ट्रॉनिक्स) पर 463 रुपये, एंटरटेनमेंट 424 रुपये और शिक्षा पर 403 रुपये खर्च किए गए. बीते 10 सालों में यात्रा पर खर्च 6.5% से बढ़कर 8.6% हो गया.

क्या महंगाई मापने का तरीका अब बदलने की जरूरत है?
महंगाई को आमतौर पर कुछ निश्चित चीजों की कीमतों में बदलाव के आधार पर मापा जाता है. महंगाई मापने का तरीका कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स (सीपीआई) है. ये 2012 में तय किए गए सामानों की बास्केट के हिसाब से है, लेकिन हाउसहोल्ड कंजम्पशन एक्सपेंडिचर सर्वे 2022-23 से पता चलता है कि पिछले 11 सालों में बहुत कुछ बदल गया है.

सीपीआई (ग्रामीण) में ‘अनाज और उत्पादों’ को 12.35 फीसदी का वेटेज दिया जाता है. लेकिन नवीनतम सर्वे के आंकड़ों से पता चलता है कि ग्रामीण परिवार अनाज पर सिर्फ 4.91 फीसदी खर्च करते हैं. ग्रामीण परिवारों में खाने पर खर्च का हिस्सा 46.38 फीसदी है. लेकिन सीपीआई (ग्रामीण) में खाने की चीचों का वेटेज 54.18 फीसदी है.

ऐसे ही शहरों में खाने-पीने पर खर्च का हिस्सा सीपीआई टोकरी के मुताबिक 36.29% है, लेकिन हालिया सर्वे बताता है कि असल में ये खर्च 39.17% है. इसी तरह शहरी लोग बीड़ी-सिगरेट और मनोरंजन पर कम खर्च करते हैं, जितना सीपीआई बास्केट में दिखाया गया है उतना खर्च नहीं करते.  

ये सब इस बात की ओर इशारा करते हैं कि महंगाई मापने का मौजूदा तरीका शायद सही नहीं है. सीपीआई की बास्केट में मौजूद सामानों की समीक्षा करने और उसे अपडेट करने की जरूरत है. 

10 साल बाद जारी हुई सर्वे की रिपोर्ट
सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के तहत एनएसएसओ हर पांच साल में ऐसा सर्वे करता जाता है, लेकिन 2017-18 सर्वे की रिपोर्ट सरकार ने जारी नहीं की थी. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उस सर्वेक्षण में लोगों के खर्च करने की आदतों में कमी देखी गई थी और सरकार को लगा कि ये आंकड़े सही नहीं हो सकते. इससे पहले 2011-12 में सर्वे की रिपोर्ट सार्वजनिक की गई थी.

एनएसएसओ ने अगस्त 2022 से जुलाई 2023 के बीच देशभर में शहरी और ग्रामीणों के होने वाले मासिक खर्चे पर सर्वे कराया है. सर्वे में देशभर के 8723 गांव और 6115 शहरों को रखा गया. कुल मिलाकर 2 लाख 61 हजार 746 घरों से जानकारी जुटाई गई. इनमें 1 लाख 55 हजार 014 ग्रामीण और 1 लाख 6 हजार 732 शहरी इलाके शामिल थे.

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