इलेक्टोरल बॉन्ड पर एसबीआई के रुख़ से दाँव पर है सुप्रीम कोर्ट !
इलेक्टोरल बॉन्ड पर एसबीआई के रुख़ से दाँव पर है सुप्रीम कोर्ट, चुनाव आयोग और सरकार पर नागरिकों का भरोसा
इलेक्टोरल या’नी चुनावी बॉन्ड पर देश के सबसे बड़े बैंक.. स्टेट बैंक ऑफ इंडिया का रुख़ चौंकाने वाला है. किसी ने नहीं सोचा होगा कि देश की सर्वोच्च अदालत के आदेश को भी तय समय में मानने से एसबीआई पीछे हट जाएगी. एसबीआई को 6 मार्च तक इलेक्टोरल बॉन्ड का पूरा विवरण डोनर के नाम के साथ चुनाव आयोग को देना था. हालाँकि इस अवधि के बीत जाने के बाद भी ऐसा नहीं हो पाया.
एसबीआई 6 मार्च आने से पहले ही स्टेट बैंक ऑफ इंडिया 4 मार्च को सुप्रीम कोर्ट पहुँच गया. एसबीआई का कहना है कि उसे डोनर के नाम के साथ इलेक्टोरल बॉन्ड के विवरण को चुनाव आयोग से साझा करने के लिए 30 जून तक का समय दिया जाए. इसके लिए एसबीआई की ओर एक आवेदन सुप्रीम कोर्ट को दिया गया है. एसबीआई का कहना है कि इलेक्टोरल बॉन्ड से जुड़ी पूरी जानकारी जमा करने में उसे समय लेगा. फिर से हर साइलो (silo) से जानकारी हासिल करना होगा. उसके बाद एक ‘साइलो’ की जानकारी को दूसरे से मिलाना होगा. एसबीआई का कहना है कि इस पूरी प्रक्रिया में समय लगेगा.
बॉन्ड पर एसबीआई का रुख़ चौंकाने वाला
छह मार्च की तारीख़ निकल चुकी है. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक़ चुनाव आयोग को एसबीआई से मिली जानकारी को 13 मार्च, 2024 तक अपनी आधिकारिक वेबसाइट पर प्रकाशित करना था. एसबीआई के रुख़ के बाद अब इतना तय हो गया है कि इलेक्टोरल बॉन्ड से जुड़ी जानकारी 13 मार्च तक सार्वजनिक नहीं होने जा रही है. डोनर का नाम और उस डोनर से किस दल को राशि मिली..यह सबसे महत्वपूर्ण जानकारी है, जो अब तक सिर्फ़ एसबीआई के पास है.
डोनर के नाम 13 मार्च तक नहीं जान पाएंगे
सुप्रीम कोर्ट ने लंबी सुनवाई के बाद 15 फरवरी, 2024 को इलेक्टोरल बॉन्ड से जुड़ी योजना को असंवैधानिक क़रार देते हुए रद्द कर दिया था. यह आदेश चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संविधान पीठ का था. संविधान पीठ की ओर से दो अलग-अलग लेकिन सर्वसम्मत फ़ैसले सुनाए गए थे. नया बॉन्ड जारी करने पर रोक लग गयी थी. इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदने वाले और इसे प्राप्त करने वाले का नाम सार्वजनिक करने का आदेश दिया गया था. इससे डोनर के नाम का ख़ुलासा होना तय हो गया. किस इलेक्टोरल बॉन्ड से किस दल को कब-कब, कितनी-कितनी राशि मिली.. देश के आम नागरिकों को इसकी जानकारी 13 मार्च को मिल जाती.
इलेक्टोरल बॉन्ड और पारदर्शिता का मसला
पूरा मामला इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर पारदर्शिता का है. इसी आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने योजना को असंवैधानिक भी ठहराया. बॉन्ड एसबीआई की चुनिंदा शाखा से ही ख़रीदा जा सकता था. इसलिए चुनाव आयोग को जानकारी भी वहीं से मिलनी थी. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद देशवासियों की नज़र एसबीआई के रुख़ पर टिकी थी.अब एसबीआई के रुख़ से अजीब-ओ-ग़रीब स्थिति पैदा हो गयी है.
इलेक्टोरल बॉन्ड पर एसबीआई के रुख़ को बेहद चिंताजनक माना जाना चाहिए. इससे एक साथ सुप्रीम कोर्ट, चुनाव आयोग और सरकार पर आम लोगों का भरोसा दाँव पर लग गया है. तमाम विरोध के बावजूद 2017 में राजनीतिक चंदा में पारदर्शिता सुनिश्चित करने के नाम पर मोदी सरकार इलेक्टोरल बॉन्ड लाने का फ़ैसला करती है. लेकिन पूरी व्यवस्था और प्रक्रिया ऐसी अपनायी जाती है, जिसमें देश के नागरिकों के लिहाज़ से पारदर्शिता का छोटा-सा अंश रहने की भी गुंजाइश नहीं रह जाती है.
इलेक्टोरल बॉन्ड लाने के लिए वित्त विधेयक, 2017 के माध्यम से मोदी सरकार देश के पाँच महत्वपूर्ण क़ानूनों में बदलाव करती है. इनमें जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के साथ ही कंपनी अधिनियम, 2013 और आयकर अधिनियम, 1961 भी शामिल थे. भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम, 1934 और विदेशी योगदान विनियमन अधिनियम, 2010 (FCRA) में भी संशोधन किया गया था. इन बदलावों के माध्यम से मोदी सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड के क्रियान्वयन में आने वाली हर अड़चन को दूर करने के साथ ही पारदर्शिता की छोटी-सी गुंजाइश को भी सदा के लिए ज़मीन-दोज़ कर दिया था.
मूकदर्शक की भूमिका में चुनाव आयोग
राजनीतिक चंदों की निगरानी करने के मामले में इन बदलावों का प्रभाव देश के एक महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्था.. चुनाव आयोग की भूमिका पर भी पड़ा था. संविधान से देश में राजनीतिक और चुनावी तंत्र में निष्पक्षता और स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने का दायित्व चुनाव आयोग को मिला हुआ है. इसके बावजूद मोदी सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड योजना में चुनाव आयोग की भूमिका को मूकदर्शक से भी कम कर दिया था.
चुनाव आयोग भी नहीं जान सकता था कि बॉन्ड से किस व्यक्ति या कंपनी ने किस दल को कितनी राशि दी है. एक तरह से मोदी सरकार ने पूरी प्रक्रिया में चुनाव आयोग के हाथ-पैर बाँधने के साथ आँखों पर पट्टी भी लगा दी थी. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद यह उम्मीद जगी थी कि चुनाव आयोग के पास तय समय में जानकारी पहुँचेगी और उसके बाद चुनाव आयोग के माध्यम से देश के आम लोगों को भी जानकारी मिलेगी. एसबीआई को निर्देश था कि सारी जानकारी चुनाव आयोग को दी जाए. हालाँकि एसबीआई के रुख़ पर आयोग की ओर से कोई क़दम नहीं उठाया गया है. मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार भी इस मसले पर पूरी तरह से मौन हैं.
डिजिटल फॉर्मेट में है बॉन्ड से जुड़ी पूरी जानकारी
न्यायपालिका भारतीय लोकतंत्र के तीन प्रमुख स्तंभ में से एक है. देश के लोग विधायिका और कार्यपालिका से भी ज़ियादा भरोसा न्यायपालिका पर करते हैं. न्याय और अधिकार के लिए अंतिम उपाय के तौर पर सिर्फ़ और सिर्फ़ कोर्ट ही आम लोगों के ज़ेहन में होता है. भारतीय अदालत प्रणाली के शीर्ष पर सुप्रीम कोर्ट ही है. सुप्रीम कोर्ट ने एसबीआई को तीन हफ़्ते का समय दिया था. यह समय उन आँकड़ों और सूचनाओं की जानकारी मुहैया कराने के लिए दी गयी थी, जो पूरी तरह से डिजिटल फॉर्मेट में हैं. डोनर के बॉन्ड ख़रीदने और उस बॉन्ड को बैंक से भुनाने की पूरी प्रक्रिया डिजिटल तरीक़े से ही पूरी की जाती थी. कहने का तात्पर्य यह है कि इलेक्टोरल बॉन्ड की जो जानकारी एसबीआई को चुनाव आयोग को देनी है, वो काग़ज़ी रजिस्टर या काग़ज़ी दस्तावेज़ में नहीं है, बल्कि डिजिटल फॉर्मेट में है.
एसबीआई का इतना बड़ा नेटवर्क, फिर भी असमर्थ
एसबीआई एक चौथाई बाज़ार हिस्सेदारी के साथ देश की सबसे बड़ी बैंक है. यह बैंक 22,405 से अधिक शाखाओं के अपने विशाल नेटवर्क से 48 करोड़ से अधिक ग्राहकों को बैंकिंग सेवा मुहैया कराता है. बैंक सेवा, पारदर्शिता, नैतिकता, विनम्रता और स्थिरता को कोर वैल्यू बताता है. स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की आधिकारिक वेबसाइट पर ये सारे दावे मौजूद हैं. वर्ष 2004 से ही एसबीआई का हर शाखा कम्प्यूटरीकरण के जरिए एक-दूसरे से जुड़ा है. इलेक्टोरल बॉन्ड के मामले में एसबीआई को 22,217 बॉन्ड की जानकारी देनी है.
इतने बड़ा नेटवर्क होने के बावजूद 22,217 बॉन्ड की डिजिटल जानकारी देने में एसबीआई को तीन हफ्त़े का समय कम लगा. इसके लिए उसे 30 जून तक का समय चाहिए. 15 फरवरी से जोड़ने पर यह साढ़े चार महीने का वक़्त हो जाता है. 22,217 चुनावी बॉन्ड के खरीदारों का लाभार्थी पक्षों से मिलान करने में इतना समय लगना कहीं से भी तर्कसंगत नहीं दिखता है. एसबीआई जैसे बड़े बैंक के लिए तो यह बहुत ही कम समय लेने वाला काम है. उसके बावजूद बैंक की तरफ़ से इस तरह का रवैया कई सवाल खड़ा करता है.
सुप्रीम कोर्ट की अवमानना से जुड़ा पहलू
पूरे प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट की अवमानना के साथ ही राजनीतिक पहलू और संविधान से हासिल नागरिक अधिकारों से जुड़े सवाल भी हैं. एक एनजीओ ‘एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स’ ने एसबीआई के आवेदन को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में अवमानना याचिका दायर की है. इलेक्टोरल बॉन्ड पर सुप्रीम कोर्ट ने जो फ़ैसला पिछले महीने सुनाया था, उस केस में एक याचिकाकर्ता के तौर एडीआर भी शामिल था. संभावना है कि सुप्रीम कोर्ट में एसबीआई के आवेदन के साथ ही इस अवमानना याचिका पर 11 मार्च को सुनवाई होगी.
हालाँकि इस प्रकरण से यह भी निष्कर्ष निकलता है कि इतना महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक फ़ैसला होने के बावजूद एसबीआई को अवमानना का कोई ख़ौफ़ नहीं है. तभी आदेश के 18-19 दिन बाद एसबीआई और समय मांगने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाती है. 15 फरवरी के आदेश के बाद ही एसबीआई को पता चल गया था कि किस तरह की जानकारी चुनाव आयोग से साझा करनी है. अगर पूरी जानकारी साझा करने में इतनी ही परेशानी थी, तो बैंक ने आदेश के एक-दो दिन बाद ही इसके लिए सुप्रीम कोर्ट से गुहार क्यों नहीं लगायी.
एसबीआई का रुख़ है संदेह के घेरे में
एसबीआई के रुख़ पर एक राष्ट्रीय बैंक यूनियन की ओर से भी आपत्ति जतायी गयी है. बैंक एम्प्लाइज फेडरेशन ऑफ इंडिया के महासचिव हरि राव का कहना है कि हम राजनीतिक मक़्सद के लिए बैंकों का इस्तेमाल करने का विरोध करते हैं. उन्होंने स्पष्ट तौर से एसबीआई के रुख़ को डिजिटल युग में ख़ासकर बैंक क्षेत्र में कई लोगों को हैरान करने वाला क़रार दिया है. एसबीआई की दलील है कि कुछ ब्योरे को भौतिक रूप में जमा किया जाता है और सीलबंद कवर में रखा जाता है. इसी पर हैरानी जताते हुए बैंक एम्प्लाइज फेडरेशन ऑफ इंडिया के महासचिव का कहना है कि इस बारे में अधिकतर जानकारी माउस के एक क्लिक पर उपलब्ध होती है.
इलेक्टोरल बॉन्ड का राजनीतिक खेल
स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की ओर से जानकारी देने में इस तरह के रवैये को लेकर राजनीतिक खींचतान भी जारी है. पूरे प्रकरण में सबसे महत्वपूर्ण पहलू राजनीतिक ही है. योजना का एलान 2017-18 के आम बजट में होता है. दो जनवरी, 2018 से योजना लागू हो जाती है. कुल 30 चरण में इलेक्टोरल बॉन्ड की बिक्री हुई है. 2017-18 से 2022-23 तक के आँकड़ों के मुताबिक़ इन 6 साल में बीजेपी को इलेक्टोरल बॉन्ड से 6,566 करोड़ रुपये से अधिक की राशि हासिल हुई. वहीं कांग्रेस को इस अवधि में बॉन्ड से 1,123 करोड़ रुपये से ज़ियादा की राशि मिली. इस दौरान इलेक्टोरल बॉन्ड का 54.78% हिस्सा सत्ताधारी दल बीजेपी के पास गया. वहीं कांग्रेस के पास 9.37% हिस्सा गया. योजना के तहत पाँच मूल्य वर्ग हज़ार रुपये , दस हज़ार रुपये, एक लाख रुपये, दस लाख रुपये और एक करोड़ रुपये मूल्य का बॉन्ड जारी किया गया था.
बॉन्ड और कॉर्पोरेट-राजनीतिक साँठ-गाँठ
मार्च 2018 से जुलाई 2023 के दौरान 27 फ़ेज़ में बेचे गए बॉन्ड में राशि के आधार पर एक करोड़ रुपये मूल्य वर्ग के चुनावी बांड की हिस्सेदारी 94% और 10 लाख रुपये वाले बॉन्ड की हिस्सेदारी 5.52% रही. इस दौरान महज़ 99 बॉन्ड एक हज़ार और 208 बॉन्ड 10 हजार रुपये वाले बिके. इस अवधि में राशि के आधार पर एक लाख रुपये मूल्य वर्ग वाले बॉन्ड की हिस्सेदारी 0.22% और दस हज़ार रुपये वाले बॉन्ड की हिस्सेदारी 0.001% रही थी.
इन आँकड़ों से स्पष्ट है कि इलेक्टोरल बॉन्ड से सबसे अधिक लाभ बीजेपी को हुआ है. साथ ही इस योजना के तहत 99 फ़ीसदी से भी अधिक राशि एक करोड़ और दस करोड़ के बॉन्ड में दी गयी. इसका स्पष्ट मतलब है कि इलेक्टोरल बॉन्ड से आम लोगों ने राजनीतिक चंदा नहीं दिया. योजना के तहत कमोबेश पूरी राशि देश के अमीर वर्ग में गिने जाने वाले लोग या कंपनियों की ओर से राजनीतिक दलों को दिया गया है. इतनी बड़ी राशि जब बतौर चंदा दी जाती है, तो इसके पीछे राजनीतिक दलों से कुछ पाने की लालसा ज़रूर होती होगी. उसमें भी सत्ताधारी दल को बड़े पैमाने पर चंद मिला है. सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले में भी इस पहलू पर ग़ौर किया गया था.
डोनर का नाम और लोक सभा चुनाव का संबंध
लोक सभा चुनाव अप्रैल-मई में निर्धारित है. ऐसे में चुनाव से पहले अगर डोनर का नाम सार्वजनिक हो जाएगा, तो देश के मतदाताओं को पूरा मामला समझ आ जाएगा. इसका राजनीतिक नुक़सान भी हो सकता है. जब योजना से अधिक लाभ बीजेपी को हुआ है, तो राजनीतिक नुक़सान की आशंका भी सबसे अधिक उसे ही है. जिस तरह से एसबीआई ने सीधे-सीधे 30 जून की मी’आद मांगी है, उससे स्पष्ट है कि एसबीआई लोक सभा चुनाव के बाद नाम का ख़ुलासा करना चाहती है. अगर सुप्रीम कोर्ट ने सख़्ती नहीं दिखायी, तो एसबीआई के इस रुख़ से डोनर का नाम देश के आम लोग आम चुनाव के बाद ही जान पाएंगे.
इसमें कोई शक-ओ-शुब्हा नहीं है कि इलेक्टोरल बॉन्ड का अधिकांश हिस्सा कॉरपोरेट चंदा से जुड़ा हुआ है. डोनर का नाम सार्वजनिक होने से उन कॉर्पोरेट का भी ख़ुलासा हो जाएगा. राजनीतिक दल, सरकार और कॉरपोरेट के बीच राजनीतिक साँठ-गाँठ का आरोप वर्षों से लगते रहे हैं. पिछले एक दशक में इस तरह के आरोप में और भी इज़ाफ़ा हुआ है. अगर चुनाव से पहले कॉर्पोरेट चंदादाताओं का ख़ुलासा होता है, तो इन आरोपों को और हवा मिल सकती है. यह एक बड़ा चुनावी मुद्दा बन सकता है, जिसका सबसे ज़ियादा ख़म्याज़ा बीजेपी को ही भुगतना पड़ सकता है. इस पहलू से भी एसबीआई के रुख़ को देखने की ज़रूरत है.
नागरिकों के भरोसे से जुड़ा है मसला
इलेक्टोरल बॉन्ड पर जिस तरह की खींचतान चल रही है, उसमें सबसे अधिक नुक़सान देश के आम नागरिकों का है. चुनाव आयोग से लेकर सरकार पर भरोसे से जुड़ा मसला है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का लगातार दूसरा कार्यकाल अब ख़त्म होने जा रहा है. वे तीसरे कार्यकाल के लिए जी-तोड़ मेहनत कर रहे हैं. पिछले एक दशक में सार्वजनिक मंचों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सरकार के साथ ही राजनीतिक शुचिता को लेकर बड़े-बड़े दावे किए हैं. चाहे भ्रष्टाचार रोकने की बात हो या फिर प्रशासन में पारदर्शिता सुनिश्चित करने का पहलू हो, प्रधानमंत्री ने हमेशा ही इन दोनों को लेकर बड़े-बड़े दावे किए हैं.
इलेक्टोरल बॉन्ड प्रकरण में भ्रष्टाचार का पहलू भी है. पारदर्शिता भी पूरी तरह से कटघरे में है. ऐसे में सरकार पर आम लोगों का भरोसा बना रहे, इसके लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को आगे से पहल करने की ज़रूरत है. बतौर प्रधानमंत्री उन्हें चुनाव से पहले हर वो क़दम उठाने के लिए पुर-ज़ोर कोशिश करनी चाहिए, जिससे इलेक्टोरल बॉन्ड से जुड़े तमाम सवालों के जवाब देश की जनता को मिल सके.
सरकारी और राजनीतिक तंत्र में पारदर्शिता
ऐसा होता है, तभी देश के आम लोग चुनाव आयोग की निष्पक्षता के साथ ही सरकारी और राजनीतिक तंत्र में पारदर्शिता को लेकर आश्वस्त हो सकते हैं. अन्यथा यह सवाल बना रहेगा कि सत्ताधारी दल अपने हित में पारदर्शिता को दरकिनार करते हुए योजना बना सकती है. साथ ही यह सवाल भी लोगों के ज़ेहन में घूमता रहेगा कि चुनाव आयोग और सुप्रीम कोर्ट जैसी संवैधानिक संस्था भी नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों को संरक्षित रखने में विफल है.
हम सब जानते हैं कि बॉन्ड से जुड़ी योजना और प्रावधान संविधान से हासिल सूचना के अधिकार और बोलने एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन करते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने इसे स्वीकार भी किया था. गोपनीयता के नाम पर डोनर के नाम का ख़ुलासा नहीं करना सीधे-सीधे मौलिक अधिकार अनुच्छेद 19 (1)(a) का उल्लंघन है. राजनीतिक चंदा भी दें और डोनर का नाम गुमनाम रहे..यह सीधे तौर से सूचना के अधिकार का हनन है. नागरिक अधिकारों को सुनिश्चित करना..अदालत के साथ-साथ सरकार की भी ज़िम्मेदारी बनती है. इस मामले में सरकार की जवाबदेही अदालत से भी अधिक है. बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस दिशा में ज़रूर सोचना चाहिए.
राजनीतिक दलों को क्यों है विशेषाधिकार?
राजनीतिक दलों ख़ासकर राष्ट्रीय दलों की साख भी इस प्रकरण से जुड़ी है. वित्तीय वर्ष 2022-23 के दौरान राष्ट्रीय दलों को अज्ञात स्रोत से हुई आय में से 82.42 फ़ीसदी का संबंध इलेक्टोरल बॉण्ड से है. एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म के अध्ययन में यह ख़ुलासा हुआ है. वित्तवर्ष 2022-23 के दौरान इन दलों को अज्ञात स्रोत से हुई कुल 1,832.88 करोड़ रुपये की आय हासिल हुई. इनमें 1510 करोड़ रुपये इलेक्टोरल बॉण्ड से आए. छह राष्ट्रीय दलों बीजेपी, कांग्रेस, बसपा, सीपीआई, आम आदमी पार्टी और नेशनल पीपुल्स पार्टी के आँकड़ों से यह पता चलता है. बीजेपी को इस दौरान 1400 करोड़ रुपये मिले जो कुल अज्ञात चंदे का 76.39 फ़ीसदी है. वहीं कांग्रेस को अज्ञात स्रोत से 315.11 करोड़ रुपये मिले, जो कुल अज्ञात चंदे का 17.19 फ़ीसदी है.
सरकार लगातार उस तरह की व्यवस्था बनाने में जुटी है, जिसमें आम लोगों की कमाई के एक-एक पैसे का रिकॉर्ड सरकारी तंत्र में हो. लेकिन, राष्ट्रीय दलों को अज्ञात स्रोत से हुई आय को देखते हुए कहा जा सकता है कि तमाम राजनीतिक दलों को इस मामले में विशेषाधिकार हासिल है. क्या आम लोग को यह छूट है कि वो अपनी आय के लिए भी सरकार से कह दें कि अज्ञात स्रोत से कमाई हुई है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की है जवाबदेही
इलेक्टोरल बॉन्ड से जुड़े प्रकरण में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका तीनों पर भरोसा का मसला शामिल है. कार्यपालिका या’नी सरकार योजना के लिए प्रस्ताव लाती है. योजना में कोई बाधा नहीं आए, इसके लिए विधायिका या’नी संसद से तमाम क़ानूनों में बदलाव को मंज़ूरी दी जाती है. बाद में योजना को न्यायपालिका या’नी सुप्रीम कोर्ट असंवैधानिक घोषित कर नागरिकों के जानने के हक़ को संरक्षित करती है. नागरिक अधिकार के लिहाज़ से मुद्दा जितना गंभीर है, उतना ही संवेदनशील भी है. इसलिए नागरिकों का भरोसा बनाए रखने के लिए अब सरकारी तंत्र से ठोस क़दम उठाए जाने की ज़रूरत है और इसकी जवाबदेही पूरी तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की है.
बॉन्ड से राजनीतिक चंदे का दुरुपयोग हुआ या नहीं!
इलेक्टोरल बॉन्ड प्रकरण भारतीय लोकतांत्रिक ढाँचा के तहत राजनीतिक तंत्र की विश्वसनीयता से भी जुड़ चुका है. राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता लाने का दावा कर 2017 में यह योजना मोदी सरकार लायी थी. पारदर्शिता की कसौटी पर ही खरा नहीं उतरने की वज्ह से योजना असंवैधानिक क़रार दी गयी. ऐसे में पूरी जवाबदेही लेते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ऐसा तंत्र बनाने के लिए ठोस क़दम उठाना चाहिए, जिससे इलेक्टोरल बॉन्ड से हासिल एक-एक पैसे का हिसाब आम लोग देख सकें.
इसके साथ ही प्रधानमंत्री को इसकी भी गारंटी देनी चाहिए कि इलेक्टोरल बॉन्ड का इस्तेमाल या कहें दुरुपयोग किसी भी तरह से किसी भी व्यक्ति या कंपनी को लाभ लेने और देने के लिहाज़ से नहीं किया गया है. कम-से कम भारतीय जनता पार्टी के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यह गारंटी तो दे ही सकते हैं और उसके सारे प्रमाण जनता के सामने रख सकते हैं. अगर उनकी ओर से इस तरह की पहल की गयी, तो बाक़ी राजनीतिक दलों पर भी दबाव बनेगा.
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