नेतागिरी के चक्कर में छोड़ दी अफसरी, अब ‘न घर के रहे न घाट के’ ?

 नेतागिरी के चक्कर में छोड़ दी अफसरी, अब ‘न घर के रहे न घाट के’…, 4 अधिकारियों की कहानी
वीआरएस लेकर राजनीति में आने के बाद भी टिकट पाने में नाकाम रहने वाले नेताओं की सूची में निशा अकेली नहीं हैं. यूपी से लेकर बिहार और मध्य प्रदेश से लेकर ओडिशा तक ऐसे नेताओं की लंबी फेहरिस्त है. 

न मैं एसडीएम रही और न ही विधायक-सांसद बन पाई, राजनीति की वजह से मेरी जिंदगी 10 साल पीछे चली गई… यह व्यथा है मध्य प्रदेश के पूर्व प्रशासनिक अधिकारी निशा बांगरे की. 2023 में सरकारी नौकरी से वीआरएस लेकर चुनावी मैदान में कूदी निशा अभी सिर्फ कांग्रेस की कार्यकर्ता हैं.

पार्टी से न तो उन्हें 2023 के विधानसभा चुनाव में टिकट मिला और न ही 2024 के लोकसभा चुनाव में. विधानसभा चुनाव में निशा अमला सीट से तो लोकसभा चुनाव में किसी सुरक्षित सीट से दावेदारी कर रही थीं. 

वीआरएस लेकर राजनीति में आने के बाद भी टिकट पाने में नाकाम रहने वाले नेताओं की सूची में निशा अकेली नहीं हैं. यूपी से लेकर बिहार और मध्य प्रदेश से लेकर ओडिशा तक ऐसे नेताओं की लंबी फेहरिस्त है. 

3 उदाहरण तो हाल ही के हैं, जिनके वीआरएस लेने के बाद चुनाव लड़ने की चर्चा थी, लेकिन टिकट की वजह से पेंच फंस गया.

इस स्पेशल स्टोरी में ‘न माया मिली न राम’ वाले ऐसे ही नेताओं के बारे में विस्तार से पढ़ते हैं…

1. बात पहले निशा बांगरे की
मूल रूप से मध्य प्रदेश के बालाघाट की रहने वाली निशा ने 2016 में पीएससी क्वालीफाई किया था. उस वक्त उन्हें डीएसपी का पद मिला था. 2018 में उन्होंने फिर से परीक्षा दी और एसडीएम पद पर चयनित हुईं.

निशा बांगरे सबसे ज्यादा मशहूर तब हुईं थीं, जब उन्होंने गणतंत्र दिवस के मौके पर बैंकॉक में सुरेश अग्रवाल के साथ भारतीय संविधान को साक्षी मानते हुए शादी की थी. 

बांगरे भोपाल और बैतूल जिला में पदस्थ रही हैं. बैतूल में पदस्थापना के दौरान ही उन्होंने अमला में अपना जनसंपर्क तैयार किया. 

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2023 के विधानसभा चुनाव से पहले निशा ने वीआरएस के लिए आवेदन कर दिया, लेकिन राज्य सरकार ने मंजूरी देने से इनकार कर दिया. मामला हाईकोर्ट गया और कोर्ट की मंजूरी के बाद उनका वीआरएस मंजूर हुआ. 

वीआरएस देने के बाद निशा ने कांग्रेस का दामन थाम लिया. उन्हें पार्टी ने टिकट का भरोसा दिया था, लेकिन टिकट नहीं मिल पाया. निशा को लोकसभा में टिकट मिलने की उम्मीद थी पर अब तक उनके नाम की घोषणा नहीं हुई है.

2. जौनपुर के अभिषेक सिंह
उत्तर प्रदेश के आईएएस अधिकारी अभिषेक सिंह भी वीआरएस लेकर चुनावी मैदान में कूदे थे. उनके जौनपुर से लड़ने की चर्चा तेज थी. कहा जा रहा था कि बीजेपी उन्हें जौनपुर से उम्मीदवार बना सकती है. 

जौनपुर सीट भारतीय जनता पार्टी के लिए के लिए 2019 से ही अनलकी साबित हो रहा है. 2019 में बीएसपी के श्याम बहादुर सिंह ने बीजेपी के केपी सिंह को 80 हजार वोटों से हराया था.

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अभिषेक भी लगातार क्षेत्र में सक्रिय थे, लेकिन पार्टी ने टिकट कृपाशंकर सिंह को दे दिया. बीजेपी से टिकट न मिलने के बाद से अभिषेक चुप्पी साधे हुए हैं. कहा जा रहा है कि लोकसभा के बाद उनको लेकर बीजेपी कोई बड़ा फैसला करेगी.

2011 बैच के आईएएस अफसर रहे अभिषेक नौकरी में लापरवाही को लेकर भी सुर्खियों में रहे हैं.  12 साल के सेवा में उन्हें 3 बार निलंबित किया गया था.  अभिषेक फिल्म इंडस्ट्री में भी काम कर चुके हैं. हाल ही में उनकी फिल्म मां काली काफी चर्चा में है. 

3. ओडिशा के वीके पांडियन
ओडिशा के आईएएस अधिकारी रहे वीके पांडियन भी साल 2023 में वीआरएस लेकर बीजेडी में शामिल हो गए थे. पांडियन को बीजेडी सुप्रीमो नवीन पटनायक का काफ़ी करीबी माना जाता है. 

पांडियन के बीजेडी में शामिल होने के बाद उनके चुनाव लड़ने की चर्चा शुरू हो गई थी. ओडिशा में इसी साल एक साथ लोकसभा और विधानसभा के चुनाव होने हैं.

पांडियन को ओडिशा में नवीन पटनायक का सक्सेसर भी माना जा रहा है. हालाँकि, बीजेडी ने उन्हें इस बार टिकट नहीं देने की बात कही है. बीजेडी के इस घोषणा के बाद पांडियन ने भी चुनाव नहीं लड़ने की बात कही थी.
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कहा जा रहा है कि पार्टी के भीतर टूट को देखते हुए बीजेडी ने यह कदम उठाया है. पांडियन के बीजेडी में आने के बाद कई पुराने नेता असहज माने जा रहे हैं. हाल ही में सौम्य रंजन पटनायक ने मोर्चा खोल दिया था, जिसके बाद उन्हें पार्टी से बाहर कर दिया गया.

आखिरी वक्त में पार्टी के भीतर कोई बड़ी बगावत न हो, इसलिए नवीन पटनायक ने हाल ही में एक बड़ा बयान भी दिया था. उनसे जब पूछा गया था कि आपका उत्तराधिकारी कौन होगा, तो उनका जवाब था- ओडिशा की जनता तय करेगी.

2000 बैच के आईएएस अफसर वीके पांडियन 2011 में नवीन पटनायक के पर्सनल सेक्रेटरी बने, तब से वे उनके साथ हैं. पांडियन 2005 में पहली बार तब सुर्खियों में आए थे, जब उन्होंने आदिवासी जिला मयूरभंजन की कमान संभाली थी. 

बिहार में पांडेय और ओझा के साथ भी हो चुका है खेल
बिहार में वीआरएस लेकर राजनीति में कूदे पूर्व डीजीपी गुप्तेश्वर पांडेय और डीपी ओझा के साथ खेल हो चुका है. 2004 लोकसभा चुनाव से पहले डीपी ओझा ने आईपीएस की नौकरी छोड़ राजनीति में कदम रखा था. ओझा उस वक्त आरजेडी के कद्दावर नेता शहाबुद्दीन पर कार्रवाई को लेकर सुर्खियों में आए थे. 

वीआरएस लेने के बाद ओझा को नीतीश कुमार की पार्टी से टिकट मिलने की उम्मीद थी, लेकिन जेडीयू ने उनके साथ एक शर्त जोड़ दी. जेडीयू ने कहा कि पार्टी उन्हें सिर्फ सीवान से टिकट दे सकती है. 

ओझा इसके बाद बेगूसराय सीट से निर्दलीय मैदान में उतर गए, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली. इस चुनाव में ओझा की जमानत जब्त हो गई.

2020 में विधानसभा चुनाव से पहले डीजीपी पद से गुप्तेश्वर पांडेय ने भी वीआरएस ले लिया. उनके बक्सर से चुनाव लड़ने की चर्चा थी, लेकिन ऐन वक्त पर जेडीयू ने उनका टिकट काट दिया. 

टिकट कटने के कुछ दिन बाद पांडेय ने जेडीयू से इस्तीफा दे दिया और धर्म के काम में जुट गए. एक इंटरव्यू में पांडेय ने कहा था कि राजनीति मेरे बस की नहीं है. अब मैं माया छोड़ राम पर ही काम करुंगा. 

नौकरी छोड़ राजनीति में क्यों आ रहे अफसर?
बड़ा सवाल यही है कि सरकारी नौकरी से वीआरएस लेकर नेता राजनीति में क्यों आ रहे हैं? आईपीएस अफसर की नौकरी छोड़ कांग्रेस में शामिल हुए एक नेता नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं- आईपीएस सेवा से राजनीति में आने का प्रमुख वजह शक्ति का दायरा है. राजनीति में जब आप आते हैं, तो काम से लेकर शक्ति तक का दायरा बहुत बड़ा हो जाता है. 

कांग्रेस नेता के मुताबिक नौकरी के दौरान आप उससे संबंधित काम ही कर सकते हैं. अगर सरकार नहीं चाहेगी, तो आप शंटिंग जोन में जा सकते हैं. 

पूर्व पुलिस अधिकारी और अब बीजेपी नेता वसंत रथ आउटलुक मैगजीन के ओपिनियन में लिखते हैं- नौकरशाह अब राजनीतिक अर्थव्यवस्था के एनपीए (नॉन प्रोफिट एस्सेट) बन गए हैं. 

रथ के मुताबिक इसमें बड़ी कमजोरी अधिकारियों की भी है. अधिकारी न तो जवाबदेही लेना चाहते हैं और न ही पुराने ठसक को छोड़ना चाहते हैं. 

बिहार के पूर्व पुलिस महानिदेशक अभयानंद अंग्रेजी वेबसाइट द प्रिंट से बात करते हुए कहते हैं- अब कार्यपालिका और विधायिका में भेद मिटता जा रहा है. कार्यपालिका के लोग विधायिका में आकर तुरंत बड़ा पद ले लेते हैं.

अभयानंद के मुताबिक आईपीएस सेवा में रहने के दौरान भी कई अधिकारी नेता से करीब होने का प्रयास करते हैं, कुछ सफल भी होते हैं.

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