पिता के बाद अब बेटे की बारी ?

सियासत: पिता के बाद अब बेटे की बारी; अखिलेश के सामने बढ़त को बरकरार रखने की चुनौती
लोकसभा चुनाव की सफलता अखिलेश के लिए अवसर लेकर आई है, तो चुनौतियां भी हैं, क्योंकि देश में फिर से गठबंधन का दौर लौट आया है।

देश के सबसे अधिक आबादी वाले और राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश से लोकसभा चुनाव में अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी (सपा) ने अविश्वसनीय छलांग लगाई है। पिछली बार पांच सीटें जीतने वाली पार्टी इस बार पांच गुना से ज्यादा 37 तक पहुंच गई है। यह इस पार्टी का अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन है। सपा ने 2004 में अनुभवी नेता मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में 35 सीटें जीती थीं।

अपने पिता के रिकॉर्ड को पीछे छोड़ना अखिलेश के लिए व्यक्तिगत बड़ी सफलता है, जिनकी अक्सर राजनीतिक सूझबूझ और संगठनात्मक कौशल की कमी के लिए आलोचना की जाती रही है। लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने प्रदेश में लगभग खत्म हो चुकी कांग्रेस के साथ गठबंधन कर अपना मतदान प्रतिशत 33.59 तक पहुंचा दिया और 2019 के चुनाव में 62 सीटें हासिल करने वाली भारतीय जनता पार्टी (33 सीट) को दूसरे स्थान पर खिसका दिया। हालांकि अतीत में 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा के साथ गठबंधन करने का समाजवादी पार्टी का अनुभव अच्छा नहीं रहा था, फिर भी अखिलेश ने राहुल गांधी और ‘इंडिया’ गठबंधन के साथ जाकर चुनाव लड़ने का फैसला किया। अखिलेश शुरुआत में हिचकिचा रहे थे, लेकिन जमीन स्तर पर चर्चा करने के बाद उन्होंने कांग्रेस के साथ गठबंधन करने का मन बनाया।

अखिलेश का पीडीए (पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक) मुद्दा, विशेषकर पूर्वी उत्तर प्रदेश में काम कर गया। जहां गैर-यादव पिछड़ी जातियां, दलित और मुस्लिम मतदाताओं का महत्वपूर्ण गठजोड़ बनता है।

यादव मतदाताओं की निष्ठा के प्रति आश्वस्त और यह जानते हुए कि मुसलमानों के पास समाजवादी पार्टी-कांग्रेस गठबंधन को वोट देने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं होगा, उन्होंने गैर-यादव पिछड़ी और दलित जातियों के लिए अपना रास्ता ही बदल लिया। यद्यपि यादवों और मुस्लिमों की पार्टी का ठप्पा लगा होने के बावजूद समाजवादी पार्टी ने सिर्फ चार मुस्लिम और पांच यादव प्रत्याशियों को टिकट दिया, जबकि अन्य पिछड़ी जातियों, जैसे कि निषाद और कुर्मियों के साथ-साथ दलितों को 27 टिकट दिए। महत्वपूर्ण तो यह है कि दलितों को न केवल आरक्षित सीटों पर, बल्कि फैजावाद जैसी सामान्य श्रेणी की सीट पर टिकट दिया, जहां अयोध्या में राममंदिर है, वहां समाजवादी पार्टी के अनुभवी दलित नेता अवधेश प्रसाद ने बड़े अंतर से जीत दर्ज की।

लोकसभा चुनाव से ठीक पहले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में करीबी सहयोगी राष्ट्रीय लोकदल के नेता जयंत चौधरी के भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) में शामिल होने से अखिलेश को तगड़ा झटका लगा था, लेकिन वह इससे घबराए नहीं, इसके लिए उनकी तारीफ की जानी चाहिए। इस चुनाव में अखिलेश यादव और समाजवादी पार्टी का उत्थान हुआ है, तो यह मायावती और बहुजन समाज पार्टी का शायद अंतिम राजनीतिक पतन है, जिन्होंने डेढ़ दशक पहले भारत के राजनीतिक परिदृश्य को बदलने का वादा किया था। बहनजी की पार्टी का वोट प्रतिशत एकल अंक (9.39 फीसदी) में आ गया है, जो 2014 के लोकसभा चुनाव में उसके प्रदर्शन से भी ज्यादा निराशाजनक है। 2014 में भी बसपा कोई सीट नहीं जीत सकी थी, लेकिन उसे 20 फीसदी वोट मिले थे।

 बहनजी के लिए सबसे अधिक अपमानजनक तो नगीना लोकसभा क्षेत्र से उनके प्रतिद्वंद्वी दलित नेता और भीम आर्मी के नेता चंद्रशेखर आजाद की जीत रही। चंद्रशेखर ने आश्चर्यजनक रूप से डेढ़ लाख से ज्यादा मतों के अंतर से जीत दर्ज की थी। हालांकि, अब यह देखना दिलचस्प होगा कि उत्तर प्रदेश में मायावती और बसपा द्वारा रिक्त किए गए राजनीतिक स्थान पर चंद्रशेखर आजाद कब्जा कर पाते हैं या नहीं। निश्चित रूप से राज्य की राजनीति में आजाद का भविष्य है, जबकि मायावती अब बीता हुआ कल हैं। जहां तक सपा की बात है, तो वह भाजपा और कांग्रेस के बाद तीसरी बड़ी पार्टी बन गई है। यह सफलता अखिलेश के लिए अवसर लेकर आई है, तो चुनौतियां भी साथ में हैं, क्योंकि देश में फिर से गठबंधन के राजनीतिक युग की वापसी हुई है। उनके पिता राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन की राजनीति से अधिकतम लाभ उठाने में माहिर थे। अब बेटे की बारी है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *