विश्वविद्यालय की लेटलतीफी, छात्र-छात्राओं का पलायन..इनसे बिहार की शिक्षा काफी पीछे 

बिहार में फिर से नालंदा विश्वविद्यालय तो ठीक, विद्यार्थियों का पलायन व यूनिवर्सिटी की लेटलतीफी असल चुनौती

बिहार में नालंदा विश्वविद्यालय के नए परिसर का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया और यह बेहद खुशी की बात है, लेकिन यह भी याद दिला दें कि बिहार में एक भी विश्वविद्यालय ऐसा नहीं जहां से तीन साल में स्नातक की पढ़ाई पूरी की जा सके. जो बिहार के विश्वविद्यालयों में सत्रों की स्थिति है, लगभग उसी गति से नालन्दा विश्वविद्यालय का निर्माण भी हुआ है. जब 2006 में एपीजे अब्दुल कलाम (भारत के पूर्व राष्ट्रपति) ने बिहार विधानसभा के एक संयुक्त अधिवेशन को संबोधित किया था, उसी समय उन्होंने नालन्दा विश्वविद्यालय की पुनः स्थापना की बात की थी. ये वो दौर था जब बिहार में नीतीश कुमार का सुशासन चल रहा था. राष्ट्रपति की सलाह पर तेजी से काम हुआ और बिहार विधानसभा ने 2007 में एक बिल पास करके नए विश्वविद्यालय की स्थापना को मंजूरी दे दी. उसके करीबन 17 वर्षों बाद नालंदा विश्वविद्यालय की शानदार इमारत बनकर आज राष्ट्र को समर्पित हुई. इसके साथ ही बिहार में शिक्षा (वैसे तो प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च तीनों पर खास तौर पर उच्चतर शिक्षा) की दशा और दिशा पर बहस एक बार फिर शुरू हो गयी. 

प्रणब मुखर्जी का शिलान्यास, विदेशी मदद शामिल  

नालंदा विश्वविद्यालय के लिए 455 एकड़ भूमि आवंटित की गयी और 25 नवम्बर 2010 को एक स्पेशल एक्ट लाकर संसद ने इसे राष्ट्रीय महत्व का संस्थान घोषित कर दिया. काम सरकारी गति से चला, पिलखी नाम के गांव में राजगीर में स्थित प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय के अवशेषों के पास ही 2016 में पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने इस विश्वविद्यालय का शिलान्यास किया. नोबेल पुरस्कार विजेजत अमर्त्य सेन को विश्वविद्यालय का पहला चांसलर और गोपा सभरवाल को पहला उप-कुलपति बनाया गया. फिलहाल अरविन्द पनगढ़िया इस विश्वविद्यालय के कुलपति और अभय कुमार सिंह अंतरिम उप-कुलपति हैं. इस तरह 2006 से शुरू होकर 2024 में जिस विश्वविद्यालय का उद्घाटन हो रहा है,

उसमें बीच-बीच में कई मोड़ भी आये. इतना बड़ा विश्वविद्यालय बनाने के लिए फंड चाहिए. इसके लिए प्रयास काफी पहले ही शुरू हो गए थे. दूसरे ईस्ट एशिया समिट के दौरान 2007 में सैद्धांतिक तौर पर सोलह देशों ने इस योजना को अनुमोदित किया. दो वर्ष बाद (2009 में) आसिआन देशों ने और सहयोग देने की बात की जिसमें ऑस्ट्रेलिया, चीन, कोरिया, सिंगापुर और जापान आदि शामिल थे. इसके बाद राज्य सरकार ने स्थानीय लोगों से जमीनें खरीदनी शुरू कीं. यहां ये ध्यान रखने योग्य है कि तब तक छोटी-बड़ी परियोजनाओं के लिए जमीनें लेने से पड़ने वाले असर को नापने के लिए सोशल इम्पैक्ट असेसमेंट का कोई कानून प्रभावी नहीं था. ऐसा कानून 2013 में आया. योजना के लिए फंड उपलब्ध होते रहें,  इसके लिए नीतीश कुमार तब के विदेश मंत्री एसएम कृष्णा से (मई 2011 में) भी मिले.

नालंदा की भव्यता, बाकी विश्वविद्यालय

इसी दौर में विश्वविद्यालय के डिजाईन-निर्माण शैली के चुनाव के लिए अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता भी हो रही थी. इस प्रतियोगिता के लिए लिऊ थाई केर जैसे विख्यात अभियंता भी पैनल में थे. उन्होंने मिलकर अंततः प्रिटज्कर पुरस्कार से सम्मानित वास्तुकार बीवी दोषी की संस्था को विजयी घोषित किया. बीमानगर हाउसिंग सोसाइटी सहित, अहमदाबाद की कई विख्यात इमारतें बीवी दोषी की ही डिजाईन की हुई हैं. इसके अलावा वो आईआईएम बंगलुरु, इंदौर और दिल्ली के नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ फैशन डिजाईन की इमारतों के डिजाईन के लिए भी जाने जाते हैं. अपने कार्यकाल के अधिकांश हिस्से में अहमदाबाद (गुजरात) में काम करने वाले बीवी दोषी को पद्मश्री, पद्म भूषण और पद्म विभूषण (मरणोपरांत) मिल चुका है. उनके इस नालन्दा विश्वविद्यालय के डिजाईन को ट्रिपल नेट जीरो यानि कार्बन के न्यूनतम उत्सर्जन के अलावा पानी की कम खपत और कूड़े के निस्तारण की योजनाओं के लिए भी जाना जाता है. 

भवन, जमीन, मूलभूत संरचनाओं के बाद विश्वविद्यालय में बारी आती है पढ़ाई की. ऐसा बताया जाता है कि अभी इस विश्वविद्यालय में 26 देशों के छात्र-छात्राएं हैं. शुरू में इस यूनिवर्सिटी के लिए हॉस्टल चलाने का काम बिहार स्टेट टूरिज्म डेवलपमेंट कारपोरेशन ने भी किया है. आपको ये विचित्र बात लग सकती है कि विश्वविद्यालय के बारे में इतनी बातें होने पर भी कोई ये नहीं पूछ रहा कि इस विश्वविद्यालय में कुल कितने छात्र-छात्राएं हैं, किसी ने शिक्षकों और कितने विषयों की पढ़ाई होती है, उसकी गिनती भी नहीं बताई. सत्र समय पर चल रहे हैं या बिहार के बाकी सभी विश्वविद्यालयों की ही तरह यहां भी सत्र देर से चल रहे हैं और तीन साल में स्नातक या दो वर्षों में एमए की डिग्री नहीं मिलने की बीमारी यहां भी प्रविष्ट हो गयी है, इसपर कोई बात नहीं हो रही.

छात्र-छात्राओं का पलायन जारी 

बिहार के विश्वविद्यालयों की ऐसी दशा से होता क्या है? पलायन जो थोड़े दशक पहले नौकरी-रोजगार के लिए होता था, वो अब पढ़ाई के लिए ही होने लगा है. कोटा  में इंजीनियर-डॉक्टर बनने का सपना लिए जाने वाले बच्चे कोचिंग के लिए जाते हैं. स्नातक के बाद इलाहबाद और दिल्ली के मुखर्जी नगर का रूख करने वाले युवा भी होते हैं. इससे बहुत पहले ही कहीं स्नातक तीन वर्षों में पूरा हो सके इसके लिए छात्र-छात्राओं का पलायन शुरू होता है. जिसकी भी आर्थिक स्थिति थोड़ी ठीक-ठाक है, वो अपने बच्चों को बिहार में रखकर पढ़ाने के लिए हरगिज तैयार नहीं होगा. कई बार तो जमीनें बेचकर भी बच्चों को बाहर पढ़ने भेज दिया जाता है. ये युवा बहुत कम आयु में ही अपने राज्य से कट चुके होते हैं, शायद ही कभी राज्य में वापस लौटते हैं. इसके कारण राज्य को राजस्व और सांस्कृतिक, दोनों मोर्चों पर नुकसान उठाना पड़ता है.

सत्रों में देरी क्यों हो रही है, इसके लिए न्यायलय में पीआईएल भी डाली गयी है. पीआईएल डालने वाली संस्था जनमन पीपल्स फाउंडेशन के वकील शाश्वत और शौर्य सत्रों के देरी से चलने के विचित्र कारण बताते हैं. आप अगर शिक्षकों-कर्मचारियों की कमी को कारण मान रहे हैं, तो न्यायलय में दायर विश्वविद्यालयों के जवाब के अनुसार ऐसा हर बार नहीं हुआ. परीक्षा ना होने का एक कारण ये भी बताया गया कि परीक्षा आयोजित करवाने वाली संस्था लापता हो गयी है और उनपर एफआईआर दर्ज करवाकर उन्हें ढूंढा जा रहा है. अन्य विश्वविद्यालयों से भी ऐसे ही चकित करने वाले कारण आये हैं. यद्यपि राजभवन में राज्यपाल के साथ मीटिंग में लगभग सभी विश्वविद्यालय स्वीकारते हैं कि उनके पास आवश्यकता से आधे के लगभग शैक्षणिक कर्मचारी ही हैं. वर्षों से नियुक्तियां नहीं हुई और जैसे-तैसे संविदा पर बहाल कर्मियों से काम चलाया जा रहा है, लेकिन वो सत्र के देरी से चलने का कारण नहीं है. 

एक लाख पर मात्र 8 कॉलेज

सिर्फ गिनती के हिसाब से भी देखें तो बिहार में प्रति लाख आबादी पर केवल 8 कॉलेज ही हैं. उच्च शिक्षा पर अखिल भारतीय सर्वेक्षण  (एआइएसएचई)-2021-22 की रिपोर्ट में यह तथ्य सामने आया कि बिहार में एक कालेज में औसतन 2,088 तथा चंडीगढ़ में 1,888 विद्यार्थी पढ़ाई करते हैं. पूरे देश में इतनी आबादी पर 30 कालेज उपलब्ध हैं. शिक्षक-छात्र अनुपात के बिगड़ने से शिक्षा की गुणवत्ता पर क्या असर होगा, वो बताने की तो आवश्यकता भी नहीं है. अफसोस कि एक विश्वविद्यालय की जब नींव रखी गयी और जब उद्घाटन हुआ, उस पूरे दौर में शिक्षा की स्थिति पर कोई बात हुई ही नहीं. इसपर कोई बात होगी भी या नहीं, पता नहीं.  

[नोट- उपरोक्त दिए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं. यह ज़रूरी नहीं है कि  ….न्यूज़ ग्रुप इससे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही ज़िम्मेदार है.]

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