अगर हमें ‘विश्व मित्र’ बनना है तो…बदलना होगा पड़ोसियों से अपना व्यवहार

दृष्टिकोण: अगर हमें ‘विश्व मित्र’ बनना है तो…बदलना होगा पड़ोसियों से अपना व्यवहार
अगर भारत दुनिया के सभी देशों का दोस्त बनकर रहना चाहता है तो उसे अपने पड़ोसियों के साथ व्यवहार में बदलाव लाना होगा।

If India wants to remain a friend of all of world then it will have to change its behavior with its neighbours
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी – फोटो 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पहले और दूसरे कार्यकाल में सरकार के समर्थकों ने यह दावा किया कि भारत विश्व गुरु बनने की ओर बढ़ रहा है। बार-बार कहा गया कि हमारी सभ्यतागत गहराई, समृद्ध दार्शनिक परंपराएं और विशिष्ट आध्यात्मिक प्रथाओं ने हमें संस्कृति के मामले में हमेशा अग्रणी रखा है। अब भारत आर्थिक और तकनीकी तौर पर सफल है। वैश्विक नेतृत्व भी इससे पूरी तरह आश्वस्त है। इस दावे को व्यक्ति केंद्रित रखा गया और कहा गया कि सिर्फ भारत ही नहीं, बल्कि नरेंद्र मोदी विश्व का नेतृत्व कर रहे हैं। इसलिए विदेश में जी-20 बैठकों की मॉर्फ्ड तस्वीरें सामने आईं, जिनमें हमारे प्रधानमंत्री को एक भव्य इमारत की सीढ़ियों से उतरते हुए देखा गया, जबकि अमेरिकी राष्ट्रपति, फ्रांसीसी राष्ट्रपति, ब्रिटिश प्रधानमंत्री आदि चुपचाप उनके पीछे चल रहे थे। इस तरह के प्रचार का कुछ हद तक असर भी हुआ। वर्ष 2023 में भारत द्वारा जी-20 की बारी-बारी से अध्यक्षता संभालने के बाद मेरे एक मित्र ने दिल्ली मेट्रो में किसी को यह कहते हुए सुना, “आपको पता है कि मोदी जी केवल हमारे देश के नहीं, बीस देशों के प्रधानमंत्री हैं!”

उसी समय एक बदलाव पार्टी के प्रचार की दुनिया में उभरकर सामने आया। कहा जाने लगा कि भारत विश्व मित्र है। यह मोदी शासन की महत्वाकांक्षाओं का स्पष्ट रूप से अवमूल्यन था। भारत अभी दुनिया को सिखाने की स्थिति में नहीं था, फिर भी वह दुनिया के हर देश से दोस्ती करने की अनोखी स्थिति में था। अपनी बड़ाई खुद करने की यह स्थिति भारतीय राजनीति में क्यों आई, इसके बारे में अटकलें ही लगाई जा सकती हैं। क्या ऐसा इसलिए हुआ कि दिल्ली मेट्रो में बैठे भक्तों के विपरीत शासन के प्रचारकों को पता था कि भारत की जी-20 अध्यक्षता बहुत अस्थायी है और बहुत जल्द समाप्त हो जाएगी? या हमारी अर्थव्यवस्था लोगों की अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरी? या फिर हमारी सीमा पर चीनी घुसपैठ और प्रधानमंत्री की उसके बारे में बोलने की अनिच्छा ने वैश्विक नेतृत्व के हमारे दावों को खोखला बना दिया? तथ्य यह है कि विमर्श में एक स्पष्ट बदलाव आया था। सत्ता पक्ष के शांत और यथार्थवादी समूहों में ‘विश्व मित्र’ शब्द का उपयोग पहले से कहीं अधिक बार किया जा रहा था।

हालांकि बांग्लादेश संकट के मद्देनजर इस हल्के, कम गंभीर अहंकार को भी त्यागने का समय आ गया है। ऐसा लगता है कि हमारे निकटतम पड़ोसी देशों के नागरिक भारत को एक विश्वसनीय या भरोसेमंद मित्र नहीं मानते हैं। कई बांग्लादेशी भारतीय इरादों को लेकर आशंकित हैं, जिसका मुख्य कारण मोदी शासन द्वारा शेख हसीना के निरंकुश तरीकों का उत्साहपूर्ण समर्थन है। पिछली जनवरी में जब शेख हसीना ने दोबारा हुए चुनाव में धांधली से जीत हासिल की थी, तब भी भारतीय चुनाव आयोग ने बांग्लादेशी चुनाव आयोग की तारीफ की थी। श्रीलंका और नेपाल में भी यह भावना साफ तौर पर मौजूद है कि भारत का व्यवहार पड़ोसी देशों के प्रति अहंकारपूर्ण है। इन तीनों देशों के नागरिकों द्वारा दिए गए एक संयुक्त बयान में यह कहा गया कि “भारत सरकार को हमारी राजनीति में दखल नहीं देना चाहिए। कई सालों से कोलंबो, ढाका और काठमांडू में नई दिल्ली के राजनीतिक, नौकरशाही और खुफिया तंत्र के दखल ने एक अंतहीन राजनीतिक अस्थिरता को बढ़ाया है और निरंकुश शासन को बढ़ावा दिया है।” इन आरोपों को एक खास अहमियत दी जाती है। इसलिए बांग्लादेश के इन लेखकों के बयान कि पिछले दशक में शेख हसीना के निरंकुश शासन को बढ़ावा देने में नई दिल्ली ने सक्रिय भूमिका निभाई और उसके बदले में कई तरह की राजनीतिक और आर्थिक रियायत प्राप्त कीं। श्रीलंका के बारे में वे कहते हैं, “आईपीकेएफ के समय से पहले और उसके बाद से श्रीलंका को अपनी राजनीति में नई दिल्ली के अतिक्रमण से बार-बार जूझना पड़ा है। इसके अलावा नई दिल्ली के अधिकारी सक्रिय रूप से भारतीय व्यापार समूहों को द्वीप पर व्यापार के लिए प्रेरित कर रहे हैं।” नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका के बुद्धिजीवियों का ऐसा विचार है कि भारत ने हमेशा से एक दबंग बड़े भाई का किरदार निभाया है। 19वीं सदी में मेक्सिको के राष्ट्रपति ने कहा था, “मेक्सिको ईश्वर से जितना दूर है, अमेरिका के उतना ही करीब है।”

ऐसा नहीं है कि भारत के इरादे अभी ऐसे हो गए हैं। यह पहले से ही रहे हैं, जब राजीव गांधी ने भारतीय शांति सेना को श्रीलंका में भेजा था। उन्होंने नरेंद्र मोदी से पहले नेपाल पर नाकाबंदी लगा दी थी। सही मायनों में वह हमारे पहले प्रधानमंत्री ही रहे होंगे, जो विदेश मंत्री भी थे। उन्होंने ही इस संबंध में दिशा तय की होगी। जवाहरलाल नेहरू के साथ काम कर चुके राजनयिक जगत मेहता ने एक बार कहा था, “नेहरू इस बात को पूरी तरह से समझ नहीं पाए या विदेश मंत्रालय ने उन्हें सही सलाह नहीं दी कि 20वीं सदी में अपने असमान पड़ोसियों के साथ कूटनीति स्थापित करना कितना मुश्किल हो सकता है?” कम्युनिस्ट चीन ने मैकमोहन रेखा को कभी नहीं माना। उसका कहना है कि उससे हस्ताक्षर दबाव में कराए गए थे। उस समय वह पश्चिमी साम्राज्य के अधीन था। 1962 में चीन के आक्रमण ने भारतीयों के मन पर एक गहरा घाव दिया है। उसी तरह पाकिस्तान ने न सिर्फ जम्मू-कश्मीर, बल्कि देश के कई हिस्सों में आतंकवाद को बढ़ावा दिया है। ऐसे में उसके साथ मेल-मिलाप से मुश्किलें बढ़ती हैं। हालांकि छोटे पड़ोसी देशों के साथ इस तरह की समस्या नहीं है। इसके विपरीत कई ऐसे कारक हैं, जो देशों के बीच सौहार्दपूर्ण संबंधों को बढ़ावा देने का काम कर रहे हैं। मसलन, भारत और नेपाल के बीच खुली सीमा है और कई सांस्कृतिक समानताएं हैं। भारत ने बांग्लादेश को पाकिस्तान से आजाद होने में मदद की। भारत और श्रीलंका का औपनिवेशिक इतिहास एक ही रहा है। ऐसे में अगर भारत और इन तीनों देशों के बीच संबंध कभी भी सहज नहीं रहे हैं तो यह बड़े और शक्तिशाली राष्ट्र की ओर से आत्मनिरीक्षण की मांग करता है।

साल 2007-08 में जब हमारी अर्थव्यवस्था बहुत अच्छी थी, तब भारत के ‘सुपर पावर’ बनने की बातें बहुत की जाती थीं। इस तरह के दावे समय से पहले थे। दुनिया पर वर्चस्व बनाने वाली सोच की जगह अपनी सामाजिक और राजनीतिक गलतियों में सुधार करना अधिक बुद्धिमानी थी। मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल में भारत को वैश्विक स्तर पर महान बनाने की बात कम हो गई। हालांकि नरेंद्र मोदी के पहले कार्यकाल में यह बात फिर से उभरी और स्वदेशी के लेबल के तहत उसकी ब्रांडिंग की गई।

हमारा देश जिस तरह की चुनौतियों का सामना कर रहा है, उनमें संस्थाओं का नष्ट होना, बढ़ती असमानता, भ्रष्टाचार तथा भाई-भतीजावाद के अलावा पर्यावरणीय गिरावट शामिल हैं। ऐसे में भारत के विश्व गुरु बनने की बात का कोई मतलब नहीं है। हां, विश्व मित्र बनने वाली बात में दम लगता है। अगर भारत दुनिया के सभी देशों का दोस्त बनकर रहना चाहता है तो उसे अपने पड़ोसियों के साथ व्यवहार में बदलाव लाना होगा, खासतौर पर बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका के साथ। इन देशों के साथ अच्छे संबंध बनाने के लिए हमें न सिर्फ उनके नेताओं, बल्कि नागरिकों के प्रति भी आदर और विश्वास का भाव दिखाना होगा।

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