लगातार लड़ाई की जरूरत है… क्योंकि ‘भद्रलोक’ की बस्तियों में भी बसते हैं भेड़िये ?
आधी आबादी: लगातार लड़ाई की जरूरत है…क्योंकि ‘भद्रलोक’ की बस्तियों में भी बसते हैं भेड़िये
प्रतिशोध की कहानियों ने हमेशा फिल्म निर्माताओं और सिनेमा दर्शकों को आकर्षित किया है। लेकिन 17 फरवरी, 2017 में मलयालम अभिनेत्री के साथ जो हुआ, उससे न केवल मलयालम फिल्म उद्योग, बल्कि पूरा देश सदमे में है। हाल ही में उस घटना के संबंध में जब जस्टिस हेमा कमेटी की रिपोर्ट उजागर हुई, तो एक बार फिर यह मामला सुर्खियों में आ गया।
यह आंदोलन विकसित और प्रगतिशील माने जाने वाले मलयालम फिल्म उद्योग के बारे में बहुत कुछ बताता है। लेकिन यह मानना भोलापन होगा कि अन्य उद्योगों में ऐसा नहीं होता, जिसमें हॉलीवुड भी शामिल है, जिसे प्रगतिशील मूल्यों वाला फिल्मोद्योग माना जाता है।
हॉलीवुड में मीटू आंदोलन ने इस उद्योग के सबसे कायर और कामुक लोगों में से एक हार्वे वीनस्टीन के नाम को उजागर किया, जो अब अपने अपराधों के लिए जेल में है। फिर भी दशकों तक वह वैश्विक मनोरंजन उद्योग का चहेता था, उसने ऑस्कर पुरस्कार जीते और खूबसूरत अभिनेत्रियां उसके साथ थीं। यह सब तब हो रहा था, जबकि इस व्यवसाय के अंदरूनी लोग उसकी गतिविधियों और शोषण के बारे में जानते थे।
अक्सर डब्ल्यूसीसी (मलयालम सिनेमा में बहादुर महिलाओं द्वारा स्थापित संगठन) ने बताया है कि कैसे पुरुषों का एक समूह शिकारी की तरह काम करता है और वे एक-दूसरे को बचाते हैं। यह समूह इतना शक्तिशाली है कि जिन महिलाओं ने इस मुद्दे को उठाया है, उन्हें काम करने से प्रतिबंधित कर दिया गया है और उन्हें मुश्किल से काम मिल रहा है। कल्पना कीजिए कि यह ऐसी स्थिति है, जिसमें कुछ भी छिपा हुआ नहीं है।
वर्ष 2017 में हुए उस क्रूर अपराध की प्रेरणा यह थी कि कथित तौर पर अभिनेत्री सुपरस्टार दिलीप की पूर्व पत्नी की करीबी दोस्त थी, जिसे उसने अपने विवाहेत्तर संबंध के बारे में बताया, जिसके कारण तलाक हो गया। आरोप है कि दिलीप को लगता था कि पूर्व पत्नी से तलाक में इस अभिनेत्री का हाथ है। इसलिए वह गुस्से से आगबबूला हो गया और उसने बदला लेने की ठान ली। यह एक सी ग्रेड फिल्म की पटकथा की तरह लगता है, फर्क सिर्फ इतना है कि हमला वास्तव में हुआ था और चौंकाने वाली यह घटना याद दिलाती है कि फिल्म उद्योग में पुरुष वर्ग न केवल बॉक्स ऑफिस पर, बल्कि फिल्म उद्योग के अंधेरे हिस्से में भी हावी है।
हाल ही में कन्नड़ सुपरस्टार दर्शन पर एक युवा प्रशंसक, जिसने उसकी प्रेमिका को अश्लील संदेश भेजा था, की हत्या का आरोप लगा और उसे गिरफ्तार कर लिया गया। वह अब जेल में है और हाल ही में कुर्सी पर आराम से बैठकर सिगरेट पीते हुए उसकी तस्वीर सामने आई थी। यह आरोप लगाया गया है कि जिस पिटाई के कारण उस व्यक्ति की मौत हुई, वह दर्शन के आदेश पर उसके ‘प्रशंसकों’ द्वारा की गई थी। फिर से अधिकार की एक भ्रामक भावना और यह धारणा पसरी कि दुनिया और विशेष रूप से महिलाएं उनके इशारों पर नाचने के लिए उपलब्ध हैं। लेकिन इस तरह के खुलासे हमें कहां ले जाएंगे? बेशक ऐसी घटनाओं की अभी बाढ़ नहीं आई है और ऐसी घटनाएं कभी-कभार ही सामने आती हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि यह शोषण अन्य फिल्म उद्योगों में नहीं होता है, जिसमें सबसे हाई प्रोफाइल बॉलीवुड भी शामिल है। अब तक, यौन शोषण की रिपोर्ट के मामलों को ‘गॉसिप’ या ‘विवादास्पद’ महिलाओं द्वारा ध्यान आकर्षित करने का हथकंडा बताकर खारिज कर दिया गया है।
हालांकि, इसमें बदलाव आना तय है। मीटू के बाद पहली बार, जो भारत में असमय खत्म हो गया, ऐसा लगता है कि इन प्रथाओं पर लगाम लगाने की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है और जब यह बांध टूटेगा, जैसा कि मलयालम फिल्म उद्योग में हुआ है, तो जिन लोगों को हम आम जनता ने आदर्श के रूप में सम्मान दिया है, उनमें से कई लोगों की असली पहचान सामने आ जाएगी।
हालांकि यह एक ऐसी लड़ाई है, जिसमें विवेकवान पुरुषों भी को शामिल होना चाहिए, क्योंकि अगर पुरुष समस्या का हिस्सा हैं, तो वे समाधान का भी हिस्सा हैं। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि एक समाज के रूप में हम आज भी पुरुष प्रधान हैं, और फिल्म उद्योग के प्रमुख सदस्यों के रूप में शक्तिशाली पुरुषों को महिलाओं के साथ हाथ मिलाकर सिस्टम को साफ करने की जरूरत है।
इस एकजुटता की सार्वजनिक घोषणाओं के साथ-साथ इस बात पर भी जोर दिया जा सकता है कि वे जिस फिल्म सेट पर काम करते हों, वह उच्च दिशा-निर्देशों का पालन करता हो और महिलाओं के लिए कार्यस्थल सुरक्षित हो। अगर वीएफएक्स और वैनिटी वैन पर भारी बजट खर्च किया जा सकता है, तो महिलाओं के लिए स्वच्छ और सुलभ शौचालय, आराम करने की जगह और सुरक्षित यात्रा के लिए बजट क्यों नहीं बनाया जा सकता?
मैं चाहे जितना भी यह मान लूं कि मैं एक सशक्त महिला हूं, लेकिन हकीकत यह है कि आज भी मैं रात के दो बजे अकेले हाईवे पर कार में नहीं जा सकती, लेकिन मेरे पुरुष साथी ऐसा कर सकते हैं। यही नहीं, मैं तो सुबह आठ बजे भी हाईवे पर अकेले गाड़ी नहीं चला सकती। मात्र दो महीने पहले जब मैंने ऐसा किया, तो हाईवे पर कुछ किलोमीटर तक पुरुषों से भरी एक कार ने मेरा पीछा किया। यह मेरी और मेरे जैसी अन्य कई महिलाओं की सच्चाई है, और जब तक यह स्थिति नहीं बदल जाती, महिलाओं की लड़ाई जारी रहेगी।