मैसूर लैंड स्कैम: लोकायुक्त करेगा सिद्धारमैया की जांच…
मैसूर लैंड स्कैम: लोकायुक्त करेगा सिद्धारमैया की जांच… जानें ये कितने पावरफुल, इनकी रिपोर्ट की कितनी अहमियत
Lokayukta Power: मैसूर लैंड स्कैम मामले में अब लोकायुक्त कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया के खिलाफ जांच करेंगे. उन्हें तीन महीने में अपनी जांच रिपोर्ट मैसूरु जिला पुलिस को सौंपनी होगी. जानिए, लोकायुक्त कितना पावरफुल होता है, इनकी रिपोर्ट की कितनी अहमियत होती है?
बेंगलुरु की स्पेशल कोर्ट ने कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया के खिलाफ मैसूर शहरी विकास प्राधिकरण से जुड़े मामले की जांच कर्नाटक लोकायुक्त को सौंप दी है. उनको अपनी जांच रिपोर्ट मैसूरु जिला पुलिस को तीन महीने में सौंपनी होगी. आइए जान लेते हैं कि लोकायुक्त के पास कितनी जिम्मेदारी, कितने अधिकार और कितनी शक्ति होती है? इनकी रिपोर्ट की कितनी अहमियत होती है?
भारत में प्रशासनिक सुधार आयोग (1966-70) की ओर से केंद्र में लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्त नियुक्त करने की सिफारिश की थी. इसके सालों बाद साल 2013 में लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम बना था. हालांकि, इससे पहले भी कई राज्य लोकायुक्त संस्थान के लिए कानून बना चुके थे. इनमें महाराष्ट्र पहला राज्य था, जहां साल 1971 में ही लोकायुक्त निकाय की स्थापना की जा चुकी थी. साल 2013 में लोकायुक्त अधिनियम के बाद सभी राज्यों में लोकायुक्त की नियुक्ति अनिवार्य हो गई.
कर्नाटक में साल 1984 में पास हुआ था अधिनियम
जहां तक कर्नाटक की बात है तो कर्नाटक लोकायुक्त अधिनियम साल 1984 में पास हुआ था और यह 15 जनवरी 1986 से ही लागू है. लोकायुक्त के पास सरकारी अधिकारियों और राजनीतिक दलों के नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार,घूसखोरी और सत्ता के दुरुपयोग से जुड़ी शिकायतों की जांच का अधिकार होता है. इनमें मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री, मंत्री, राज्य मंत्री, उपमंत्री, विपक्ष के नेता, अतिरिक्त सचिव, सचिव और इससे ऊपर के अधिकारी शामिल हैं, जिनके खिलाफ होने वाली शिकायतों की जांच लोकायुक्त कर सकते हैं.
पूछताछ से लेकर तलाशी तक का अधिकार
लोकायुक्त के पास किसी भी अधिकारी या लोकसेवक से पूछताछ करने, उनके रिकॉर्ड देखने और जरूरत होने पर तलाशी लेने और बरामदगी का भी अधिकार होता है. वैसे तो लोकायुक्त कोई शिकायत अथवा विश्वसनीय सूचना मिलने पर जांच करते हैं पर अपने अधिकार क्षेत्र के मामलों की जांच खुद की प्रेरणा से भी कर सकते हैं.
लोकायुक्त का कार्यकाल पांच साल का होता है लेकिन अगर किसी की नियुक्ति 62 की उम्र में होती है तो कार्यकाल सिर्फ तीन साल ही होगा. राज्य सरकार लोकायुक्त के खिलाफ एक्शन नहीं ले सकती. इन्हें केवल राज्य विधानसभा में पारित महाभियोग प्रस्ताव से ही हटाया जा सकता है. कई राज्यों में यह भी प्रावधान है कि लोकायुक्त किसी ऐसी शिकायत की जांच नहीं कर सकते, जो पांच साल से अधिक पुरानी हो.
लोकायुक्त की रिपोर्ट पर तीन महीने में कार्रवाई जरूरी
अगर लोकायुक्त की जांच में लोक सेवक के विरुद्ध आरोप स्थापित होते हैं तो पूरी तरह से संयुष्ट होने के बाद वह अपनी जांच रिपोर्ट सक्षम प्राधिकारी को सौंप देते हैं. सक्षम प्राधिकारी की यह जिम्मेदारी होती है कि वह लोकायुक्त की रिपोर्ट मिलने के बाद तीन महीने के भीतर की गई अपनी कार्रवाई की रिपोर्ट दें. अगर लोकायुक्त किसी अधिकारी द्वारा की गई कार्रवाई से संतुष्ट नहीं होते हैं तो वे संबंधित मामलों में राज्यपाल को अपनी एक विशेष रिपोर्ट भेज सकते हैं.
रिपोर्ट के बाद जा सकती है कुर्सी
अगर लोकायुक्त को शिकायत की जांच के बाद यह भरोसा हो जाता है कि लोक सेवक के खिलाफ की गई शिकायत सही है और संबंधित लोक सेवक को अपने पद पर नहीं रहना चाहिए तो वह अपनी रिपोर्ट में इसकी घोषणा कर सकते हैं. इसके बाद जिन मामलों में सक्षम प्राधिकारी राज्यपाल, राज्य सरकार या मुख्यमंत्री होते हैं, उन मामलों की सुनवाई के बाद इस घोषणा को मान भी सकते हैं या खारिज भी कर सकते हैं.
अगर लोकायुक्त की रिपोर्ट मिलने के तीन महीने के भीतर उसे अमान्य नहीं किया जाता है तो मान लिया जाता है कि उनकी रिपोर्ट स्वीकार ली गई है. ऐसे में संबंधित लोक सेवक को अपना पद छोड़ना पड़ सकता है. कई मामलों में राज्य सरकार आरोपित को निलंबित भी रख सकती है.
मुकदमा चलाने का भी प्रावधान
ऐसे ही अगर लोकायुक्त को किसी शिकायत की जांच के बाद लगता है कि संबंधित लोक सेवक ने आपराधिक काम किया है और उसके खिलाफ कोर्ट में केस चलाया जाना चाहिए, तो वह इसका आदेश भी दे सकता है. यही नहीं, अगर किसी लोक सेवक के खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए किसी प्राधिकारी की पूर्व मंजूरी की जरूरत होती है तो भी लोकायुक्त द्वारा अभियोजन शुरू करने पर यह मंजूरी स्वत: मिली हुई मानी जाती है.