खाप पंचायत का आधुनिक समाज में स्थान: क्या अब यह बदल रहा है?
खाप पंचायत का आधुनिक समाज में स्थान: क्या अब यह बदल रहा है?
खाप पंचायतें भारतीय समाज का एक अहम हिस्सा हैं. मगर ,अब बदलते समय के साथ खाप पंचायतों की भूमिका और उनके प्रति लोगों का नजरिया भी बदल रहा है.
खाप पंचायतें भारत के कई गांव-देहातों में सदियों से चली आ रही हैं. खासकर उत्तर प्रदेश, हरियाणा और उत्तर भारत में इनका ज्यादा दबदबा देखने को मिलता है. ये एक तरह की अनौपचारिक अदालत होती हैं, जो जाति या गोत्र के आधार पर बनती हैं. इनका काम होता है गांव के लोगों के बीच होने वाले झगड़े-झंझट सुलझाना और गांव की व्यवस्था चलाना.
खाप पंचायतें गांव में काफी ताकतवर होती हैं. उनके फैसले अक्सर अंतिम माने जाते हैं. कई खाप पंचायतें बहुत रूढ़िवादी विचारों वाली होती हैं. वे पुरानी परंपराओं और रीति-रिवाजों को बहुत महत्व देती हैं.
हालांकि, खाप पंचायतें कई बार विवादों में भी आ जाती हैं. खासकर जब बात आती है महिलाओं के अधिकारों, प्रेम विवाह और सामाजिक समानता की. कुछ खाप पंचायतें ऐसे फैसले लेती हैं, जो महिलाओं के अधिकारों का हनन करते हैं और कभी-कभी तो हिंसा तक ले जाते हैं.
कैसे हुई खाप पंचायतों की शुरुआत
खाप पंचायतों की शुरुआत उस समय हुई थी जब आदिवासी समुदायों ने अपने अंदरूनी मामलों को सुलझाने के लिए एक साथ आकर पंचायत लगाने की शुरुआत की थी. तब पहले ये पंचायतें कई जातियों के लोगों से मिलकर बनती थीं. लेकिन आज परिस्थितियां काफी बदल चुकी हैं. अब ये ज्यादातर एक ही जाति के लोगों से बनती हैं. ये पंचायतें गांव के बड़े-बुजुर्गों से मिलकर बनती हैं, जो गांव की परंपराओं और रीति-रिवाजों को मानते हैं. ये पंचायतें कई बार कानून से भी ऊपर चलती हैं और अपने मनमाने फैसले थोपती हैं.
दुख की बात ये है कि पुलिस भी कई बार खाप पंचायतों के दबाव में आ जाती है और पीड़ितों की मदद नहीं करती. इस वजह से लोग खाप पंचायतों के अत्याचारों का शिकार होते रहते हैं.
जातिवाद: भारत की एक पुरानी समस्या
भारत में जाति व्यवस्था बहुत पुरानी है. ये एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें लोगों को उनके जन्म के आधार पर चार वर्गों में बांटा गया है: ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र. हर वर्ग के अपने-अपने नियम-कायदे हैं. ये जाति व्यवस्था आज भी भारत की एक बड़ी समस्या है. हालांकि, आजकल लोग जातिवाद के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं. अब जातिवाद की दीवारें धीरे-धीरे टूट रही हैं. लोग अब ज्यादा खुले विचार वाले हो रहे हैं.
पहले तो लोग सिर्फ अपनी जाति में ही शादी करते थे. लेकिन अब लोग प्यार में पड़ रहे हैं और अपनी मर्जी से शादी कर रहे हैं, चाहे वो किसी भी जाति या धर्म से हों. लेकिन, अभी भी कुछ जगहों पर लोग इस तरह के विवाह को पसंद नहीं करते. खासकर कुछ खाप पंचायतें तो ऐसे विवाहों को बर्दाश्त नहीं करतीं.
ऑनर किलिंग और खाप पंचायतें
लॉक्टोपस के कैंपस लीडर कुशाग्र वशिष्ठ के रिसर्च पेपर में बताया गया है कि खाप पंचायतों की वजह से कई बार ‘ऑनर किलिंग’ जैसे घिनौने अपराध होते हैं. ये एक तरह की जातिगत हिंसा है, जिसमें परिवार के लोग ही अपने ही परिवार के सदस्यों को मार देते हैं. बस इसलिए कि उन्होंने किसी दूसरी जाति या धर्म के व्यक्ति से शादी कर ली. वहीं जब कोई लड़का-लड़की अपने मन से शादी कर लेता है, तो खाप पंचायतें इस रिश्ते को मान्य नहीं करतीं और कई बार परिवार के लोग इस रिश्ते को खत्म करने तक के लिए दबाव बनाते हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने भी कई बार खाप पंचायतों के गलत कामों पर सख्त रुख अपनाया है. कोर्ट ने कई बार कहा है कि खाप पंचायतें कानून से ऊपर नहीं हैं और उन्हें भी कानून का पालन करना होगा. खाप पंचायतों और सरकार के बीच भी कई बार टकराव होता है.
कई बार मांग उठती है कि खाप पंचायतों पर कड़ी कानून बनाने की जरूरत है. लेकिन ये इतना आसान नहीं है. क्योंकि खाप पंचायतें बहुत गहरे तक जड़ें जमा चुकी हैं. इनके खिलाफ कार्रवाई करने से सामाजिक तनाव भी बढ़ सकता है. इसलिए, इस समस्या का हल सिर्फ कानून बनाकर नहीं हो सकता.
खाप पंचायतों के कठोर नियम और परंपराएं
इसी रिसर्च पेपर में ये भी बताया गया है कि ग्रामीण इलाकों में खाप पंचायतें अपनी कठोर और अमानवीय प्रथाओं के लिए जानी जाती हैं. ये प्रथाएं अक्सर विवादित होती हैं और मानवाधिकारों का उल्लंघन करती हैं. यहां कुछ क्रूर रीति-रिवाज हैं जिनका इस्तेमाल खाप पंचायतें करती हैं:
- तेल की कटोरी में सिक्का निकालना: अगर किसी पर कोई आरोप लगता है, तो उसे उबलते तेल की कटोरी में से सिक्का निकालने के लिए कहा गया. अगर वो सिक्का निकाल लेता है तो उसे निर्दोष मान लिया गया.
- गर्म लोहे की छड़ी: अगर किसी पर शक किया गया, तो उसे हल्दी का पेस्ट लगाकर पीपल के पत्ते हाथ में बांधे गए. फिर एक गर्म लोहे की छड़ी हाथ में रखकर सात कदम चलने के लिए कहा गया. अगर हाथ नहीं जला तो उसे निर्दोष मान लिया गया.
- तलने की सजा: महिलाओं को अक्सर तेल में पूरी तलने के लिए मजबूर किया गया. अगर हाथ नहीं जलता है तो उसे निर्दोष मान लिया गया.
- शारीरिक या मानसिक यातना: कई बार खाप पंचायतों ने क्रूर और अमानवीय सजा दी है. जैसे: आरोपी के कान या नाक काट देना, बाल मुंडवा देना, चेहरे पर कालिख पोतकर उसे पूरे गांव में गधे पर बैठाकर घुमाना, उसे नंगे पैर और नंगे शरीर दौड़ने पर मजबूर करना.
खाप पंचायत और ग्राम पंचायत में क्या फर्क है?
गांव की पंचायतें और खाप पंचायतें भले ही नाम में एक जैसी लगें, लेकिन इन दोनों के काम करने के तरीके और अधिकारों में बड़ा फर्क है. खाप पंचायतें संविधान के दायरे में नहीं आतीं. ये निर्वाचित संस्थाएं नहीं होतीं और इनका कोई आधिकारिक दर्जा नहीं होता. ये जाति या गोत्र आधारित समुदायों पर आधारित होती हैं. अक्सर इन्हें एक संयुक्त परिवार की तरह माना जाता है. पहले खाप पंचायतों का मुख्य काम झगड़ों को सुलझाना और ग्रामीण इलाकों में लोगों के आचरण पर नजर रखना होता था. आज के समय में खाप पंचायतें अपने रूढ़िवादी विचारों के कारण विवादों में रहती हैं.
वहीं ग्राम पंचायतें भारतीय संविधान के तहत बनी लोकतांत्रिक संस्थाएं हैं. इन्हें स्थानीय स्तर पर लोकतंत्र को बढ़ावा देने के लिए चुने गए प्रतिनिधियों के जरिए स्थापित किया गया है. ग्राम पंचायतों का गठन 1993 के पंचायत राज अधिनियम के तहत किया गया है. ये संविधान से अपनी शक्ति और अधिकार प्राप्त करती हैं. ग्राम पंचायतों को उनके कामकाज के लिए स्थानीय प्रशासन और जनता के प्रति जवाबदेह बनाया गया है.
जहां ग्राम पंचायतें ग्रामीण विकास और लोकतंत्र को बढ़ावा देती हैं, वहीं खाप पंचायतें अक्सर अपने कट्टर और पिछड़े फैसलों के कारण आलोचना का शिकार होती हैं.
खाप पंचायतों की मनमानी पर सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा
सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में शक्ति वाहिनी बनाम भारत संघ मामले में एक ऐतिहासिक फैसला दिया, जिसने ऑनर किलिंग और अंतरजातीय विवाह को लेकर कई जरूरी मुद्दों पर बात की. कोर्ट ने कहा कि खाप पंचायतों को कानून अपने हाथ में लेने का कोई अधिकार नहीं है. अगर वे किसी को धमकी देते हैं या हिंसा करते हैं, तो उन पर कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए.
यह फैसला न सिर्फ खाप पंचायतों की विवादित भूमिकाओं पर सवाल उठाता है, बल्कि इन अपराधों पर रोक लगाने के लिए सख्त कदम उठाने की जरूरत को भी बताता है. कोर्ट ने राज्य सरकारों को सख्त निर्देश दिए हैं कि वो ऑनर किलिंग को रोकने के लिए कड़े कदम उठाएं. इसमें खास तौर पर उन कपल्स की सुरक्षा का ध्यान रखना है, जिनको उनके परिवार वालों से जान का खतरा है. ऐसे मामलों में पीड़ित जोड़ों की मदद और सुरक्षा देने के लिए विशेष सेल बनाने का भी निर्देश दिया. इस फैसले के बाद खाप पंचायतें थोड़ी सी डरने लगी हैं.
अब बदल रही हैं खाप पंचायतें?
बदलते समय के साथ खाप पंचायतों की भूमिका और उनके प्रति लोगों का नजरिया भी बदल रहा है. खाप पंचायतें जो कभी महिलाओं के अधिकारों के खिलाफ थीं, अब धीरे-धीरे बदल रही हैं. अब कुछ खाप पंचायतें महिला खिलाड़ियों को सम्मानित करने लगी हैं. इससे महिलाओं को खेलों में आगे बढ़ने का हौसला मिल रहा है. हाल ही में, जब देश के कई पहलवानों ने यौन उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाई थी, तब कुछ खाप पंचायतें उनके साथ खड़ी हुई थीं. ये एक बहुत बड़ा बदलाव है.
हरियाणा की एक खाप पंचायत (मेहम चौबीसी) महिलाओं के अधिकारों के लिए काम कर रही है. कानून का राज स्थापित होने के साथ ही खाप पंचायतों की मनमानी पर लगाम लग रही है. मीडिया के माध्यम से खाप पंचायतों के गलत फैसलों को उजागर किया जा रहा है जिससे लोगों में जागरूकता बढ़ रही है. समाज में बढ़ती जागरूकता के कारण खाप पंचायतें भी अपने फैसलों में थोड़ा सावधान हो रही हैं. कई सामाजिक संगठन भी खाप पंचायतों के खिलाफ काम कर रहे हैं और लोगों को जागरूक कर रहे हैं.
ये सब दिखाता है कि खाप पंचायतें भी बदल रही हैं और समाज के साथ चलने की कोशिश कर रही हैं. हालांकि, अभी भी बहुत कुछ करना बाकी है.
ADR: झगड़े सुलझाने का एक नया तरीका
आजकल कोर्ट-कचहरी में केस लंबे समय तक चलते हैं. इससे लोगों को काफी परेशानी होती है, पैसा खर्च होता है और समय भी बर्बाद होता है. ऐसे में एडीआर इस समस्या का एक अच्छा समाधान है.
ADR का मतलब है ‘अल्टरनेटिव डिस्प्यूट रेजोल्यूशन’ यानी विवाद समाधान का एक नया तरीका. ADR का मतलब है कि झगड़ों को कोर्ट-कचहरी में जाने की बजाय दूसरे तरीके से सुलझाया जाए. ये तरीके ऐसे होते हैं जहां दोनों पक्ष आपस में बातचीत करके समझौता कर लेते हैं. एडीआर में विवाद सुलझाने की प्रक्रिया पूरी तरह गोपनीय रहती है. इससे पक्षों को भरोसे के साथ अपनी बात रखने का मौका मिलता है.
एडीआर के जरिए विवाद सुलझाने के मुख्यत: चार तरीके होते हैं- पंचायती निर्णय, मध्यस्थता , सुलह और वार्ता. पंचायती निर्णय में विवाद का निपटारा एक पंच (अरबिट्रल ट्रिब्यूनल) के जरिए होता है और उसका निर्णय दोनों पक्षों के लिए मान्य व बाध्यकारी होता है. इसमें कोर्ट का हस्तक्षेप न के बराबर होता है.
सुलह प्रक्रिया में एक तीसरा पक्ष (सुलहकर्ता) दोनों पक्षों के बीच विवाद को सुलझाने में मदद करता है. सुलहकर्ता अपनी ओर से कुछ सुझाव देता है, लेकिन इन सुझावों को मानना या न मानना दोनों पक्षों पर निर्भर करता है. यह प्रक्रिया रिश्तों को बनाए रखने और विवाद को सौहार्दपूर्ण ढंग से निपटाने में मदद करती है.
मध्यस्थता में एक मध्यस्थ (मेडिएटर) दोनों पक्षों के बीच बातचीत कराने में मदद करता है. मध्यस्थ केवल एक मार्गदर्शक की भूमिका निभाता है और समाधान तक पहुंचने में सहायता करता है. अंतिम निर्णय लेने का अधिकार दोनों पक्षों के पास रहता है. वार्ता में दोनों पक्ष सीधे बातचीत करके समाधान खोजते हैं. इसमें किसी तीसरे पक्ष की जरूरत नहीं होती. दोनों पक्ष अपने विवाद को आपसी सहमति से हल करते हैं.