भारत में ज़्यादातर किसानों के पास छोटी ज़मीन है। गरीबी से जूझते हुए, वे साल भर भूख से बचने का प्रबंध करते हैं। धीरे-धीरे, खेती एक अनाकर्षक पेशा बनती जा रही है। कई छोटे किसान शहरी भारत में दिहाड़ी मज़दूर के रूप में काम करने के लिए दूर जा रहे हैं। इसलिए, अगर उन्हें मृदा संरक्षण कार्यक्रमों में शामिल करना है, तो सरकारी सहायता एक महत्वपूर्ण कारक है।

ऐसे ही  हे हालात को पड़ जाएंगे मिट्टी के लालेभारत में कुल भौगोलिक क्षेत्र (328.7 मिलियन हेक्टेयर) का 29% यानी करीब 96.4 मिलियन हेक्टेयर से अधिक का क्षरण हुआ है। वहीं दुनियाभर में मिट्टी की उर्वरता खोने के मामले में 40 फीसदी तक गिरावट बढ़ गई है। इससे वैश्विक जीडीपी का लगभग आधा हिस्सा खतरे में है। इसके अलावा मिट्टी से लगातार ऑर्गेनिक कार्बन कम हो रहा है। लगातार घट रहे ऑर्गेनिक कार्बन से उत्पादकता पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। अगर ऐसा ही चलता रहा तो कुछ सालों में कई स्थानों पर जमीन बंजर जाएगी।

  

युनाइटेड नेशन एजुकेश्नल, साइंटिफिक एंड कल्चरल ऑर्गनाइजेशन (यूनेस्को) ने चेतावनी जारी करते हुए कहा है कि 2050 तक पृथ्वी की 90 प्रतिशत उपजाऊ भूमि का क्षरण हो सकता है। इससे आने वाले समय में वैश्विक जैव विविधता और मानव जीवन के लिए बड़ा संकट पैदा होगा। गौरतलब है कि मरुस्थलीकरण के विश्व एटलस के अनुसार, 75 फीसदी उपजाऊ मिट्टी का क्षरण पहले ही हो चुका है, जिसका सीधा असर 3.2 अरब लोगों पर पड़ रहा है। यदि यही स्थिति बनी रही तो 2050 तक स्थितियां बेहद गंभीर हो सकती हैं। साइंस जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक भारत में मिट्टी के अम्लीय होने से अगले 30 सालों में मिट्टी की ऊपरी 0.3 मीटर सतह से 3.3 बिलियन टन अकार्बनिक कार्बन का नुकसान हो सकता है।

पृथ्वी पर जीवन को बनाए रखने में मिट्टी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, फिर भी अक्सर इसकी उपेक्षा की जाती है। इसका प्रबंधन ठीक से नहीं किया जाता। यूनेस्को की ओर से मोरक्को में आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान संगठन के 194 सदस्य देशों से अपील की गई है कि वो अपनी मिट्टी के संरक्षण को प्राथमिकता दें। वहीं मिट्टी की उर्वराशक्ति को बढ़ाने के लिए भी प्रयास करें। कार्यक्रम के दौरान यूनेस्को ने अपने अंतरराष्ट्रीय भागीदारों के साथ मिलकर ‘विश्व मृदा स्वास्थ्य सूचकांक’ स्थापित करने की भी बात कही है। यह सूचकांक अलग अलग क्षेत्रों और पारिस्थितिकी प्रणालियों में मृदा गुणवत्ता के विश्लेषण और तुलना के लिए मानकीकरण उपाय में मदद करेगा।

भारत में प्रति वर्ष प्रति हेक्टेयर औसतन 21 टन मिट्टी नष्ट होती हैअध्ययन में एक वर्ष में एक हेक्टेयर भूमि पर मिट्टी के कटाव के मामले में “मामूली” से लेकर “विनाशकारी” तक के पैमाने पर छह वर्गीकरण किए गए। जब ​​यह आंकड़ा 100 टन से अधिक हो जाता है, तो यह घटना सबसे गंभीर स्तर पर पहुँच जाती है।

सबसे खराब स्थिति पूर्वोत्तर राज्य असम में स्थित ब्रह्मपुत्र घाटी में है। यहाँ कटाव की घटना लगभग 300 वर्ग किलोमीटर सतही मिट्टी को प्रभावित करती है, जो कुल क्षेत्रफल का 31 प्रतिशत है। देश में मृदा अपरदन के लिए सबसे अधिक संवेदनशील 20 जिलों में से नौ असम में स्थित हैं। भारत में, राष्ट्रीय औसत कटाव प्रति वर्ष 21 टन प्रति हेक्टेयर अनुमानित है । इस नुकसान को सीधे तौर पर वनों की कटाई और गहन कृषि प्रथाओं जैसे मानवजनित हस्तक्षेपों के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।

भारत के 30 फीसदी भूभाग में हो रहा है उपजाऊ मिट्टी का क्षरणभारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान दिल्ली द्वारा 2024 में किए गए एक अध्ययन के अनुसार, भारत के 30% भूभाग में उपजाऊ मिट्टी का क्षरण हो रहा है, और 3% क्षेत्र में विनाशकारी रूप से उपजाऊ मिट्टी की क्षति हो रही है। इसका मतलब है कि भारत प्रति वर्ष प्रति हेक्टेयर 20 टन से अधिक उपजाऊ मिट्टी खो देता है। अब तक 1,500 वर्ग किलोमीटर से अधिक उपजाऊ भूमि का नुकसान हो चुका है। असम और ओडिशा में ब्रह्मपुत्र घाटी में मिट्टी का क्षरण सबसे तेजी से हो रहा है। रिपोर्ट के मुताबिक शिवालिक और हिमालय से आसपास के क्षेत्र भी गंभीर रूप से उपजाऊ मिट्टी के नुकसान से प्रभावित हैं।

मिट्टी होती जा रही अम्लीय, घट रहा ऑर्गेनिक कार्बनखेती के लिए रसायनों के अंधाधुंध इस्तेमाल और औद्योगिक गतिविधियों के चलते भारत में मिट्टी तेजी से अम्लीय होती जा रही है। साइंस जर्नल में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, भारत में मिट्टी के अम्लीय होने से अगले 30 वर्षों में मिट्टी की ऊपरी 0.3 मीटर सतह से 3.3 बिलियन टन अकार्बनिक कार्बन (SIC) की हानि हो सकती है। चीन के इंस्टीट्यूट ऑफ सॉयल के वैज्ञानिकों की ओर से किए गए एक अध्ययन में कहा गया है कि आने वाले समय में मिट्टी में मौजूद कार्बन के नुकसान के सबसे ज्यादा मामले भारत और चीन में देखे जा सकते हैं। इन देशों में नाइट्रोजन की मात्रा के कारण मिट्टी में अम्लता भी बढ़ रही है।

भारतीय मृदा विज्ञान संस्थान के प्रिंसिपल साइंटिस्ट और सॉयल केमिस्ट्री एंड फर्टिलिटी के विभाग प्रमुख डॉक्टर एके विश्वास कहते कहते हैं कि किसी भी पौधे के विकास के लिए कुल 17 पोषक तत्वों की जरूरत होती है। इसमें से 14 मिट्टी से आते हैं। बाकी पानी, धूप और हवा से आते हैं। 14 पोषक तत्वों के अलावा भी पौधे को कई तरह के माइक्रो न्यूट्रिएंट्स की जरूरत होती है। भारत में ज्यादा मिनरल सॉयल पाई जाती है। इसमें पोटेशियम भरपूर होता है। लेकिन खेती, औद्योगिकीकरण और अन्य कारणों से मिट्टी में पोटेशियम की कमी होने लगी है। आज हमारे किसान मिट्टी में पोषक तत्व के तौर पर नाइट्रोजन खूब डालते हैं क्योंकि नाइट्रोजन की कमी के लक्षण पौधे में दिखने लगते हैं। लेकिन कई ऐसे पोषक तत्व हैं जिनकी कमी पौधे को देख कर पता नहीं लगाई जा सकती है। किसान खेतों में मुख्य रूप से फर्टिलाइजर के तौर पर नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और पोटेशियम डालते हैं। लेकिन मिट्टी में बोरॉन, कोबाल्ट, निकल जैसे कई ऐसे सूक्ष्म पोषक तत्व होते हैं जिनके बिना इन फर्टिलाइजर का पूरी तरह से फायदा पौधे को नहीं मिलता। उदाहरण के तौर पर पर अगर मिट्टी में निकल कम है तो बहुत से फर्टिलाइजर मिट्टी में अच्छे से काम नहीं करेंगे। हम जो भी पोषक तत्व या ऑर्गेनिक मैटर मिट्टी में डालते हैं उसका मात्र 3 फीसदी ही मिट्टी में मिल पाता है। बाकी पानी, हवा या अन्य माध्यमों से चला जाता है। ऐसी स्थिति में हमें संतुलित मात्रा में पोषक तत्व मिट्टी में डालने की जरूरत है जो देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग है। मिट्टी में किस पोषक तत्व की कमी है इसका पता हम मिट्टी की जांच के जरिए लगा सकते हैं।

क्लाइमेट चेंज के चलते भी बड़े पैमाने पर मिट्टी की उर्वरा शक्ति का क्षरण हो रहा है। हमारी मिट्टी की ऊपरी ढाई इंच मिट्टी बनने में कई सौ साल लगे हैं। इसका क्षरण होने से मिट्टी की उपजाऊ शक्ति पर गंभीर असर पड़ता है। हमारी मिट्टी में ऑर्गेनिक कार्बन भी लगातार घट रहा है। भारत सरकार लैंड डिग्रेडेशन न्यूट्रिलिटी पर काम कर रही है, ताकि जितनी भूमि का क्षरण हो हम उतनी भूमि को दोबारा उपजाऊ बना सकें।

आईसीएआर की संस्था राष्ट्रीय मृदा सर्वेक्षण और भूमि उपयोग नियोजन ब्यूरो के अनुमान के मुताबिक 147 मिलियन हेक्टेयर उपजाऊ भूमि का क्षरण अब तक हो चुका है। इसमें से 83 मिलियन हेक्टेयर भूमि जल क्षरण के कारण, 25 मिलियन हेक्टेयर भूमि रासायनिक क्षरण के कारण, 12 मिलियन हेक्टेयर भूमि वायु क्षरण के कारण, 1.1 मिलियन हेक्टेयर भूमि भौतिक क्षरण के कारण और 7 मिलियन हेक्टेयर भूमि लवणता या क्षारीयता के कारण क्षरित हुई है। भारत सरकार ने 2030 तक 26 मिलियन हेक्टेयर भूमि को फिर से उपजाऊ बनाने का लक्ष्य रखा है।

रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय झांसी के कुलपति डॉक्टर ए.के. सिंह कहते हैं कि भारत में मिट्टी में ऑर्गेनिक कार्बन की बेहद कमी है। मिट्टी में इसकी मात्रा एक फीसदी से कम नहीं होनी चाहिए। लेकिन देश में ज्यादातर भूमि जहां फसलों का उत्पादन अधिक होता है इसकी मात्रा 0.5 फीसदी या इससे कम है। वहीं किसान पराली जला कर अपने खेतों को बंजर बना रहे हैं। मिट्टी के लिए ऑर्गेनिक कार्बन बेहद जरूरी है। अगर मिट्टी में इसकी कमी हो जाए तो किसानों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले केमिकल फर्टिलाइजर भी काम करना बंद कर देंगे। इसका फसलों पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। अच्छी फसल के लिए मिट्टी में आर्गेनिक कार्बन होना बेहद जरूरी है। अगर किसान पराली न जलाएं तो दूरगामी परिस्थिति में उनकी आय बढ़ सकती है। मिट्टी में ऑर्गेनिक कार्बन की मात्रा बढ़ाने के लिए किसानों को गोबर की खाद, डेंचा आदि का इस्तेमाल करना चाहिए। किसानों को खेत कभी खाली नहीं छोड़ने चाहिए। खेत खाली होने से भी ऑर्गेनिक कार्बन का नुकसान होता है।

इंटरनेशनल क्रॉप रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर सेमी एरॉयड ट्रॉपिक (ICRISAT) के ग्लोबल रिसर्च प्रोग्राम के डिप्टी डायरेक्टर डॉक्टर शैलेंद्र कुमार कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन, बढ़ती गर्मी और असमय बारिश से मिट्टी की ऊपरी उपजाऊ परत का लगातार नुकसान हो रहा है। देश में ऐसे इलाकों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ी है जहां खेती के लिए पर्याप्त पानी की उपलब्धता नहीं होती है। ऐसे इलाकों में मिट्टी में ऑर्गेनिक कार्बन की कमी एक बड़ी समस्या होती है। ऐसे हालात में मिलेट्स खाद्य जरूरतों को पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। मिलेट्स के पौधों की जड़ें मजबूत होती हैं। तेज बारिश में भी इनका पौधा गिरता नहीं है। वहीं जड़ें गहरी होने के चलते सूखे के दौरान इनका पौधा पारंपरिक फसलों की तुलना में ज्यादा समय तक जीवित रह जाता है। मिलेट्स के पौधे तेज गर्मी भी बर्दाश्त कर लेते हैं। मिलेट्स पोषक तत्वों से भी भरपूर हैं। ऐसे में आम लोगों को बेहतर पोषण प्रदान करने के लिए भी ये एक बेहतर विकल्प है।

जलवायु परिवर्तन के चलते गर्मी और असमय बारिश लगातार बढ़ रही है। मौसम से इस बदलाव से खेती और जमीन की उर्वरा शक्ति पर भी असर पड़ रहा है। वैज्ञानिकों के मुताबिक अगर अलग अलग प्रजाति के पेड़ लगा कर वन विविधता बढ़ाई जाए तो जमीन को और अधिक उपजाऊ बनाया जा सकता है। वहीं जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को भी कम किया जा सकता है। कनाडा के नेशनल फ़ॉरेस्ट इन्वेंटरी डेटा का अध्ययन करने पर वैज्ञानिकों ने पाया कि वन विविधता को संरक्षित करने पर जमीन की उत्पादकता बढ़ती है। डेटा मॉडल पर किए गए अध्ययन में पाया गया कि जमीन पर अलग तरह के पेड़ लगाने पर जमीन में नाइट्रोजन और कार्बन की मात्रा तेजी से बढ़ती है। इसके चलते जमीन अधिक उपजाऊ हो जाती है।

अध्ययन के मुताबिक वन विविधता बनाए रखने पर मिट्टी में एक दशक में कार्बन का भंडारण 30 से 32 फीसदी तक और नाइट्रोजन का भंडारण 42 से 50 फीसदी तक बढ़ जाता है। कनाडा के न्यू ब्रंसविक विश्वविद्यालय के वानिकी और पर्यावरण प्रबंधन संकाय के प्रोफेसर एंथनी आर टेलर के मुताबिक इस अध्ययन में राष्ट्रीय वन सूची में शामिल सैकड़ों भूखंडों के डेटा का विश्लेषण किया है ताकि प्राकृतिक वनों में पेड़ों की विविधता और मिट्टी के कार्बन और नाइट्रोजन में परिवर्तन के बीच संबंधों की जांच की जा सके। ज्यादातर प्रयोगों में पाया गया कि पेड़ों की ज्यादा विविधता वाले क्षेत्रों की मिट्टी में कार्बन और नाइट्रोजन का अधिक संचय हो सकता है। यूएस इंस्टीट्यूट फॉर ग्लोबल चेंज बायोलॉजी में पोस्टडॉक्टरल एक्सचेंज फेलो और पोस्टडॉक्टोरल अध्ययन के प्रमुख लेखक शिनली चेन कहती हैं कि, आज जलवायु परिवर्तन के इस दौर में इस अध्ययन के परिणाम जलवायु परिवर्तन के प्रभावाओं को कम करने की राहत दिखाते हैं । “हमारे नतीजे बताते हैं कि पेड़ों की विविधता को बढ़ावा देने से न केवल जमीनक की उपज में वृद्धि होती है बल्कि वैश्विक जलवायु परिवर्तन को भी कम किया जाता है।

मृदा अपरदन इतनी बड़ी समस्या क्यों है?मिट्टी एक प्राकृतिक संसाधन है जो देखने में मजबूत और अंतहीन लग सकता है, लेकिन वास्तव में यह हज़ारों सालों के निर्माण का नाज़ुक उत्पाद है। ऊपरी मिट्टी, जो ज़मीन की सतह के सबसे करीब होती है, उसमें फ़सलों के लिए ज़रूरी पोषक तत्व होते हैं। मिट्टी की यही परत हवा और पानी के कटाव से ख़तरे में है। मिट्टी के कटाव से मिट्टी की उर्वरता कम हो जाती है, जो फ़सल की पैदावार को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकती है। यह मिट्टी से लदे पानी को नीचे की ओर भी भेजता है, जिससे तलछट की भारी परतें बन सकती हैं जो नदियों और नालों को सुचारू रूप से बहने से रोकती हैं और अंततः बाढ़ का कारण बन सकती हैं। एक बार मिट्टी का कटाव होने के बाद, इसके दोबारा होने की संभावना अधिक होती है। यह एक वैश्विक समस्या है। मिट्टी जितनी तेजी से बन रही है, उससे कहीं अधिक तेजी से उसका क्षरण हो रहा है।

जलवायु परिवर्तन को कैसे प्रभावित करता है?कटाव से भूमि का क्षरण होता है, जिसका अर्थ है कि यह कम पौधों को सहारा दे सकती है जो जलवायु-वार्मिंग कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित कर सकते हैं। मिट्टी स्वयं संभावित रूप से एक वर्ष में पर्याप्त ग्रीनहाउस गैसों को सोख सकती है जो सभी वार्षिक मानव-निर्मित GHG उत्सर्जन के लगभग 5% के बराबर है। बेहतर भूमि प्रबंधन मिट्टी को बरकरार रखने में मदद कर सकता है ताकि वे अधिक कार्बन-चूसने वाली वनस्पति उगा सकें। यह पहले से ही चीन में हो रहा है, जहां येलो रिवर बेसिन में ग्रेन-फॉर-ग्रीन परियोजना ने मिट्टी और पानी को संरक्षित किया और कार्बन उत्सर्जन को कम किया।

दूसरी ओर, अनियंत्रित जलवायु परिवर्तन से कटाव की समस्या और भी बदतर हो सकती है। जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (आईपीसीसी) की एक रिपोर्ट में पाया गया है कि संरक्षण प्रथाओं के बिना खेती करने पर, मिट्टी वर्तमान में बनने की तुलना में 100 गुना अधिक तेज़ी से कटाव कर रही है। उत्सर्जन-संचालित तापमान परिवर्तनों के कारण भविष्य में कटाव का जोखिम और भी अधिक हो जाएगा, जिसके परिणामस्वरूप कृषि उत्पादन, भूमि मूल्य और मानव स्वास्थ्य में कमी आएगी।

लैटकन्स्यू और चेरापूंजी में है कटाव का सबसे ज्यादा खतराजर्नल कैटेना में प्रकाशित इस अध्ययन के मुताबिक भारत में बारिश के कारण होने वाला औसत अनुमानित कटाव 1200 एमजे-मिमी/हेक्टेयर/घंटा प्रति वर्ष है। शोध के मुताबिक, मेघालय के ईस्ट खासी हिल्स में लैटकन्स्यू और चेरापूंजी में बारिश के कारण होने वाले कटाव का जोखिम सबसे ज्यादा है। जहां आर फैक्टर 23,909.21 एमजे-मिमी/हेक्टेयर/घंटा/वर्ष है। आपकी जानकारी के लिए बता दें कि मेघालय दुनिया के सबसे आद्र क्षेत्रों में से एक है।

वहीं दूसरी तरफ लद्दाख के ठंडे और शुष्क शाही कांगड़ी पर्वतीय क्षेत्र में मिट्टी के कटाव का जोखिम सबसे कम है। इस क्षेत्र का आर फैक्टर 8.10 एमजे-मिमी/हेक्टेयर/घंटा/वर्ष है।

इस बारे में आईआईटी दिल्ली के सिविल इंजीनियरिंग विभाग के प्रोफेसर मानवेंद्र सहरिया का कहना है कि यह अध्ययन भारत के लिए राष्ट्रीय स्तर पर मिट्टी के कटाव संबंधी मॉडल के निर्माण की दिशा में उठाया गया एक कदम है।

उनका कहना है कि राष्ट्रीय स्तर पर बारिश के कारण होते कटाव को दर्शाने वाला यह मानचित्र वाटरशेड प्रबंधकों को विभिन्न स्थानों पर बारिश के कारण होने वाले कटाव की पहचान करने के साथ-साथ उसे कम करने के लिए आवश्यक वाटरशेड विकास गतिविधियों सम्बन्धी योजना बनाने और उसे लागू करने में मददगार साबित हो सकता है।

री-जेनेरेटिव कृषि भी है एक विकल्प

मिट्टी वैज्ञानिकों के बीच इस बात को लेकर एक राय क़ायम हो रही है कि पुनर्योजी कृषि ही वो माध्यम है, जिसमें बिगड़ी हुई परिस्थितियों में मिट्टी का स्वास्थ्य और उत्पादकता को सुधारने एवं छोटे किसानों को वित्तीय लाभ प्रदान करने की अपार क्षमता है। इतना ही नहीं पुनर्योजी कृषि मिट्टी के स्वास्थ्य और पोषक तत्वों को धारण करने की क्षमता को बढ़ाकर पानी के उपयोग और दक्षता में भी बढ़ोतरी करती है। अध्ययनों के मुताबिक़ प्रति 0.4 हेक्टेयर (हेक्टेयर) मिट्टी के कार्बनिक पदार्थ में 1 प्रतिशत की वृद्धि जल भंडारण क्षमता को 75,000 लीटर से ज़्यादा बढ़ा देती है। अब इसको लेकर वैश्विक स्तर पर लंबे समय तक खेतों पर किए गए प्रयोगों से सबूत भी उपलब्ध हैं, जो यह सिद्ध करते हैं कि पुनर्योजी कृषि पद्धतियां मिट्टी के जैविक कार्बन भंडार को उल्लेखनीय ढंग से बढ़ा सकती हैं। अपनी जलवायु प्रतिबद्धता के हिस्से के रूप में भारत सरकार ने सतत कृषि के लिए नेशनल मिशन फॉर सस्टेनेबल एग्रीकल्चर के माध्यम से विभिन्न पुनर्योजी कृषि सिद्धांतों को बढ़ावा देना शुरू कर दिया है।