ऐसे संन्यासी जिन्हें नहीं होता भगवान को छूने का अधिकार, इनका सबकुछ बस एक ‘दंडी’

 ऐसे संन्यासी जिन्हें नहीं होता भगवान को छूने का अधिकार, इनका सबकुछ बस एक ‘दंडी’

Maha kumbh mela: निरामिष भोजन, निरपेक्षता, अक्रोध, अध्यात्मरति, आत्मापरकता, गृहत्याग, सिद्धार्थत्व, असहायत्व, अग्नितत्व, परिब्राजकत्व, मुनिभावत्व, मृत्यु से भयहीनता, दु:ख सुख में समान भाव जैसे नियम का पालन करने वाले और दंडी की पूजा करने वाले कहलाते हैं ‘दंडी संन्यासी’। 
Dandi Sanyasi Traditions: इस बार दंडी संन्यासियों का अखाड़ा महाकुंभ के सेक्टर 19 में लगाया गया है। इनकी सबसे बड़ी पहचान उनका दंड ही होती है, जो उनके और परमात्मा के बीच की कड़ी है। उन्हें किसी को छूने का अधिकार नहीं होता और न ही खुद को छूने देने का। जितेंद्रानंद सरस्वती ने बताया कि शंकराचार्य बनने से पहले दंडी स्वामी की प्रक्रिया जरूरी है। 
इसके तहत 12 साल तक ब्रह्मचर्य का पालन करना पड़ता है। ये सनातम हिंदू धर्म के सर्वोच्च संन्यासी होते हैं। समाज और राष्ट्र हित के लिए इनका जीवन समर्पित रहता है। मौजूदा वक्त में देशभर में करीब एक हजार दंडी स्वामी हैं।
शास्त्रों में यह दंड भगवान विष्णु का प्रतीक माना गया है, इसे ‘ब्रह्म दंड’ भी कहा जाता है। जब एक ब्राह्मण संन्यास ग्रहण करता है और शास्त्रों के अनुसार उसके लिए निर्धारित नियमों को पालन करता है। इसके बाद वह दंड को पाने के लिए पात्रता हासिल करता है। 

संन्यासी की दंडी भगवान विष्णु और उनकी शक्तियों का प्रतीक है। सभी दंडी संन्यासी प्रतिदिन अपने दंड का अभिषेक, तर्पण और पूजन करते हैं। दंडी संन्यासी अपने दंड को निर्धारित आवरण के साथ शुद्ध रखते हैं। पूजन के समय वे दंडी को खुला रखते हैं, सिवाय इसके वे हर समय इसे ढक कर रखते हैं। 

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माना जाता है की संन्यासी के दंड में ब्रह्मांड की दिव्य शक्ति है; इसकी शुद्धता को हमेशा बनाए रखना होता है। अपात्र और अनाधिकृत व्यक्तियों को खुला दंड नहीं दिखाना चाहिए। देश में संतों के एक महत्वपूर्ण संप्रदाय दंडी संन्यासियों का दावा है कि शंकराचार्य उन्हीं में से चुने गए हैं। दंडी संन्यासी बनने के इच्छुक साधुओं को अपनी शरण में स्वीकार किए जाने से पहले कई बाधाओं को पार करना पड़ता है।

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दंडी संन्यासी को निधन के बाद जलाया नहीं जाता। ऐसा इस लिए किया जाता है क्योंकि दीक्षा के दौरान ही अंतिम संस्कार की क्रिया को कर दिया जाता है। माना जाता है कि इसी दौरान उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है और मृत्यु के पश्चात आम लोगों की तरह संन्यासियों को जलाया नहीं जाता है बल्कि इनकी समाधि बनाई जाती है। अद्वैत सिद्धान्त से निर्गुण निराकार ब्रह्म की उपासना इनके जीवन का लक्ष्य होता है।

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