भाजपा में मुख्यमंत्री चयन की कसौटी, अनुभवी एवं परीक्षित लोगों की टीम खड़ी करने की कोशिश
इस दृष्टि से देखने पर नेतृत्व के चयन के पीछे का सोच काफी स्पष्ट हो जाता है। उन्हें कुछ फैसले बदलने भी पड़े लेकिन निष्कर्ष यही निकलता है कि प्रधानमंत्री मोदी अपने रहते राष्ट्रीय और राज्य के स्तर पर पार्टी को भविष्य की दृष्टि से लंबे समय तक काम करने वाले अनुभवी और परीक्षित लोगों की टीम खड़ी करने की कोशिश कर रहे हैं।
…. दिल्ली में भाजपा नेतृत्व द्वारा मुख्यमंत्री के रूप में रेखा गुप्ता का चयन उसी वैचारिक और सांगठनिक पुनर्निर्माण प्रक्रिया की कड़ी है, जिसके अंतर्गत पिछले काफी समय से मुख्यमंत्री बनाए गए हैं। दिल्ली में निर्वाचित विधायकों में से कई अनुभव, कद और पहचान में रेखा गुप्ता से ज्यादा वजनदार नजर आएंगे। इसके बावजूद मुख्यमंत्री का चयन अलग तरह से हो रहा है तो इसके पीछे नेतृत्व, संगठन और दिशा की दृष्टि से दूरगामी योजनाएं होंगी।
राजनीतिक विश्लेषकों की सामान्य टिप्पणी होती है कि प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भाजपा हमेशा चौंकाती है, मगर क्या वाकई उनके निर्णय चौंकाने वाले होते हैं? महाराष्ट्र में देवेंद्र फडणवीस को छोड़ दें तो राजस्थान में भजनलाल शर्मा, मध्य प्रदेश में मोहन यादव, छत्तीसगढ़ में विष्णुदेव साय, ओडिशा के मोहन चरण माझी आदि के बारे में कल्पना नहीं थी कि वे मुख्यमंत्री बन सकते हैं।
फडणवीस 2024 में अवश्य मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे, किंतु जब उन्हें 2014 में लाया गया था, तब उनके सीएम बनने की संभावना बेहद कम थी। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के बारे में भी कल्पना नहीं थी। 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव परिणाम आने के बाद योगी आदित्यनाथ का नाम नहीं था। उन्हें विधानसभा चुनाव भी नहीं लड़ाया गया था।
भारतीय राजनीति में लंबे समय से हम शीर्ष पर जाने-पहचाने चेहरे देखने के अभ्यस्त थे, इसलिए भाजपा के निर्णय चौंकाते हैं, पर इन निर्णयों में एक निरंतरता, तारतम्यता, वैचारिक और सांगठनिक दृष्टि दिखाई देती है। कोई इसे तात्कालिक निर्णय मान ले तो समस्या उसकी है।
महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि असम के मुख्यमंत्री हिमंत विस्वा सरमा को छोड़ दें तो अधिकतर मुख्यमंत्री या प्रदेश अध्यक्ष राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की पृष्ठभूमि से भाजपा में आए। यानी गैर-वैचारिक, गैर-सांगठनिक लोगों को जगह नहीं दी गई। उपमुख्यमंत्रियों में भी बिहार में सम्राट चौधरी के अलावा ऐसा नाम नहीं दिखेगा, जिसकी वैचारिक-राजनीतिक पृष्ठभूमि भाजपा से अलग हो।
इससे समझा जा सकता है कि नेतृत्व सतही या तत्कालिकता के अनुसार निर्णय नहीं करता। मोदी सरकार ने हिंदुत्व, हिंदुत्व अभिप्रेरित राष्ट्र भाव, सभ्यता-संस्कृति-अध्यात्म आदि के अनुरूप आंतरिक एवं विदेश नीति के मामले में अकल्पनीय काम किया है। स्वाभाविक ही नेतृत्व चयन में इससे परे दृष्टि नहीं जा सकती।
यह स्मरण करें कि प्रधानमंत्री मोदी के राष्ट्रीय क्षितिज पर आविर्भाव के समय भाजपा की स्थिति क्या थी? 2004 में पराजय के बाद ही नहीं, 2000 से ही भाजपा के अंदर आंतरिक कलह, उथल-पुथल की स्थिति थी, जो चुनाव में पराजय के साथ परवान चढ़ गई। केएन गोविंदाचार्य के भाजपा से बाहर जाने के बाद लंबी कड़ी दिखाई देगी, जिसमें कल्याण सिंह, तपन सिकदर, उमा भारती, मदनलाल खुराना आदि बड़े नाम विद्रोह कर बैठे। वाजपेयी और आडवाणी के साथ कुर्सी पर बैठने वाले जसवंत सिंह तक को पार्टी से निकाला गया।
2009 में तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने झंडेवालान जाकर संघ से कहा कि अब आप ही लोग निर्णय करिए। तब नितिन गडकरी को अध्यक्ष बनाया गया। उनके लिए भी काम करना कठिन था। तब शीर्ष नेताओं के बीच आवश्यक सामंजस्य नहीं था। 2009 में आडवाणी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाया गया, लेकिन तब भाजपा 2004 से भी कम सीटों पर सिमट गई।
इसका कारण आंतरिक कलह और व्यापक पैमाने पर पूरे संगठन परिवार के अंदर नेतृत्व से मोहभंग की स्थिति थी। इसके बाद संप्रग सरकार से लोगों के अंदर व्यापक असंतोष उपजा। मुस्लिम तुष्टीकरण तथा हिंदुत्व को बदनाम करने के अभियानों ने लोगों में व्यापक गुस्सा पैदा किया, किंतु तत्कालीन भाजपा नेतृत्व उसके विरुद्ध प्रखरता से लड़ने में सक्षम साबित नहीं हो पा रहा था।
सबके अंदर छटपटाहट थी कि विचारधारा के आधार पर कोई प्रखर निष्ठावान नेतृत्व सामने आए। ऐसे में नरेन्द्र मोदी आए और उन्होंने देश में व्याप्त असंतोष, संगठन परिवार के भीतर सामूहिक सोच को अभिव्यक्ति दी। वह सबकी उम्मीद की किरण बनकर उभरे और उन्होंने अपने अभियानों से पूरे देश के मनोविज्ञान को अपने पक्ष में मोड़ा। तब भी तत्कालीन भाजपा नेतृत्व को उम्मीद नहीं थी कि पार्टी को लोकसभा में बहुमत प्राप्त हो जाएगा।
2013-14 के दौर में आम धारणा यही थी कि भाजपा 180-82 सीट से ऊपर नहीं जा सकती, पर मोदी बहुमत पाकर प्रधानमंत्री बने। जब उन्होंने अमित शाह को अध्यक्ष बनाया तब बहुत लोगों को संदेह था, लेकिन उनका चयन सही साबित हुआ। आज मोदी और शाह की जोड़ी की तुलना वाजपेयी-आडवाणी से की जाती है। मोदी जिस तरह के वैचारिक एजेंडे पर बढ़ रहे हैं, उससे लगता है कि वे उत्तराधिकारियों के लिए कोई घोषित एजेंडा शायद ही छोड़ें।
वह भविष्य की ऐसी आधारभूमि बना रहे, जिस पर संगठन और देश बढ़ सके। इस दृष्टि से देखने पर नेतृत्व के चयन के पीछे का सोच काफी स्पष्ट हो जाता है। उन्हें कुछ फैसले बदलने भी पड़े, लेकिन निष्कर्ष यही निकलता है कि प्रधानमंत्री मोदी अपने रहते राष्ट्रीय और राज्य के स्तर पर पार्टी को भविष्य की दृष्टि से लंबे समय तक काम करने वाले अनुभवी और परीक्षित लोगों की टीम खड़ी करने की कोशिश कर रहे हैं।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)