Story of Mayawati: मोदी लहर में भी जिसका वोट बैंक बचा रहा, उस दलित सियासत की ‘मायावी’ कहानी

2 जून 1995 को मायावती ने मुलायम सरकार से समर्थन वापसी की घोषणा कर दी. इसके बाद यूपी ने वो घटना देखी, जिसकी उम्मीद किसी को नहीं थी. मुलायम सिंह यादव ने बहुमत जुटाने के लिए कई लोगों से बात की, लेकिन कोई समर्थन हासिल नहीं हुआ.

मंडल कमिशन की आंच समाज तक पहुंचने से ठीक पांच साल पहले और हिंदुस्तान के सियासी इतिहास में चुनावी सोशल इंजीनियरिंग की चर्चा से पहले 1985 का वो साल… 1984 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) की हत्या के एक साल बाद देश में राजनीतिक हलचल तेज़ थी. लोकसभा उपचुनाव का वक़्त आया. उस समय यूपी के छो़टे से ज़िले बिजनौर में बड़ा सियासी संग्राम छिड़ा था. दलितों के रहनुमा बाबू जगजीवन राम की बेटी मीरा कुमार कांग्रेस के टिकट पर और तब लोक क्रांति दल के नेता राम विलास पासवान मैदान में थे. दलित वर्ग के इन दोनों दिग्गज नेताओं के सामने थीं एक साल पहले यानी 1984 में गठित की गई बहुजन समाज पार्टी (Bahujan Samaj Party) की नेता मायावती (Mayawati). 27 साल की उस लड़की ने साइकिल के कैरियर पर बैठकर चुनाव प्रचार किया. सलवार सूट में बिजनौर की गलियों में दिन-रात दौरे किए. दलित बस्तियों में जाकर लोगों के साथ खाना किया, उनका हालचाल पूछा और वोट मांगे. तब पहली बार लोगों ने जाना कि यूपी की बेटी और BSP नेता मायावती ने पहली बार बड़ी राजनीतिक हुंकार भरी है.

संसद में पहुंचने का ऐसा जुनून कि पार्टी के गठन के बाद लगातार हार के बावजूद चुनाव लड़ना नहीं छोड़ा. कैराना से 1984 में, बिजनौर लोकसभा से 1985 में और हरिद्वार से 1987 में चुनाव हारने वाली उस लड़की ने अपने लिए जो कुछ तय कर रखा था, उसे पूरा करके ही दम लिया. अपनी सियासी तक़दीर और राजनीतिक ढांचे को बदलते हुए 1989 में बिजनौर लोकसभा से पहली बार मायावती लोकसभा पहुंचीं. नमस्कार, मैं हूं…. भारतीय राजनीति के इतिहास में बहुत बड़ा आंदोलन चलाए बिना दलितों और पिछड़ों के वोटबैंक पर लगातार आधिपत्य जमाने का करिश्मा करने वाली मायावती यूपी की पहली दलित महिला मुख्यमंत्री बनीं. चुनाव आयोग ने उन्हें 1984 और 1985 में निर्दलीय के रूप में रजिस्टर किया था, क्योंकि उनकी पार्टी शुरुआती दौर में थी.

1984 में कैराना लोकसभा क्षेत्र में 27 साल की मायावती सलवार सूट में प्रचार करती दिखाई दीं. उनका एक समर्थक साइकल चलाता. वो रुकने का इशारा करती, साइकल रुकती, फिर वो सड़क किनारे ही किसी के साथ बैठकर खाना खातीं, युवाओं-बुजुर्ग से बात करतीं और फिर साइकल पर सवार होकर दूसरे इलाके में चली जातीं. ये मायावती का पहला चुनाव था, जिसे वो हार गई थीं. लेकिन, अगले ही साल 1985 में उन्होंने कुछ ऐसा किया, जिसके बाद यूपी समेत पूरे देश में दलितों और पिछड़ों को लेकर राजनीतिक चाल-ढाल पूरी तरह बदल गई.

1985 मीरा कुमार के सामने लड़ीं

बिजनौर से कांग्रेस के वरिष्ठ सांसद गिरधर लाल के निधन के बाद खाली हुई सीट पर 1985 में उपचुनाव हुआ. दलित के लिए आरक्षित इस सीट पर कांग्रेस के तत्कालीन दलित पोस्टर बॉय बाबू जगजीवन राम की बेटी मीरा कुमार और पिछड़ों के नेता रामविलास पासवान के सामने मायावती ने जो राजनीतिक दमखम दिखाया, वो दलित सियासत में करिश्माई शुरुआत थी. दिसंबर 1985 में बिजनौर लोकसभा उपचुनाव में कांग्रेस को लग रहा था कि सहानुभूति फैक्टर के चलते उसे आसानी से जीत मिल जाएगी, लेकिन एक लड़की के सियासी जुनून के सामने उसकी रणनीति चरमराने लगी. माया के तीखे भाषण सुर्ख़ियों में आने लगे. देखते देखते बिजनौर का उपचुनाव हाई प्रोफाइल बन गया. मीरा कुमार के समर्थन में यूपी के तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह उतर गए.

तो पासवान के लिए मुलायम सिंह यादव और शरद यादव समेत कई बड़े नेताओं ने बिजनौर में डेरा डाल दिया. कांटे के मुकाबले में मीरा कुमार को 1,28,101 वोट मिले, लेकिन वो सिर्फ़ 5,346 वोटों के मामूली अंतर से जीत सकीं. वहीं, रामविलास पासवान को 1,22,755 वोट मिले. अब इसे आप पासवान की करीबी हार का कारण समझें या मीरा कुमार की मामूली जीत की वजह. इस चुनाव में मायावती को इन दिग्गजों के सामने 61,506 वोट मिले. वो भले ही तीसरे नंबर पर रहीं, लेकिन, दलित और मुस्लिम समुदाय के 18 फीसदी वोटों ने उन्हें यूपी समेत देश की सियासत में सुर्ख़ियों में ला दिया. 1989 में जब मायावती बिजनौर से दूसरी बार लड़कर जीतीं, तो BSP ने पहली बार 3 लोकसभा सीटें हासिल की. ये बहुजन समाज पार्टी और मायावती दोनों के उदय का पहला शुभ संकेत था.

दलितों के नाम पर होने वाली राजनीति बदली

मायावती के आने के बाद दलितों और पिछड़ों को लेकर ना केवल उस वर्ग का समाज बदल रहा था, बल्कि दलितों के नाम पर होने वाली राजनीति भी बहुत तेज़ी से बदल रही थी. एक ही झटके में दलितों को लगा कि उन्हें अपना सबसे तेज़ तर्रार रहनुमा मिल गया है. क्योंकि, मायावती का लहजा विरोधियों को लेकर काफ़ी तीखा रहता था. दिल्ली के इंद्रपुरी इलाक़े में 15 जनवरी 1956 को मायावती का जन्म हुआ था. 1975 में उन्होंने दिल्ली यूनिवर्सिटी से पॉलिटिकल साइंस और अर्थशास्त्र में बीए किया. उसके बाद बी.एड. की पढ़ाई की, बतौर टीचर काम किया और फिर डीयू से एलएलबी की डिग्री हासिल कर ली. मायावती के मुताबिक वो UPSC की परीक्षा पास करके IAS अफ़सर बनना चाहती थी और उसी की तैयारी कर रही थीं. लेकिन, वो IAS अफ़सर का इम्तिहान दे पातीं, इससे पहले ही ज़िंदगी ने बड़ी करवट ली. BSP के संस्थापक कांशीराम से अचानक उनकी मुलाक़ात हो गई. 1977 की एक सर्द रात दिल्ली के इंद्रपुरी इलाक़े में कांशीराम उनके घर पहुंचे. मायावती उस वक़्त पढ़ाई कर रही थीं. कांशीराम ने पूछा… तुम क्या बनना चाहती हो? मायावती ने जवाब दिया- ‘मैं IAS अफसर बनना चाहती हूं ताकि अपने समाज के लिए कुछ कर सकूं’.

कांशीराम ने कहा ‘मैं तुम्हें उस मुकाम पर ले जाऊंगा जहां दर्जनों IAS अफसर तुम्हारे आगे-पीछे खड़ें होंगे. तुम तय कर लो, तुम्हें क्या बनना है?’ दरअसल इस मुलाक़ात से एक दिन पहले मायावती दिल्ली के कंस्टीट्यूशन क्लब में भाषण दे रही थीं. मंच से कांग्रेसी नेता राजनारायण को दलितों को बार बार हरिजन कहने पर वो भड़क गई थीं. दलित हितों को लेकर 21 साल की लड़की के ऐसे तेवर देखते ही कांशीराम ने बहुत कुछ तय कर लिया था.

मायावती ने ज़्यादा सोचा नहीं. IAS बनने का पिता का सपना और पिता का घर दोनों छोड़कर कांशीराम के साथ चल पड़ीं. ये वोे सफ़र था, जहां समाज और सियासत दोनों जगह कई अग्निपरीक्षा देनी थी. लेकिन, मायावती हर इम्तिहान के लिए तैयार थीं. मायावती के तीखे भाषण और कांशीराम के संगठनात्मक हुनर ने 1984 में एक पार्टी बनाई. नाम रखा बहुजन समाज पार्टी. दिल्ली के रामलीला मैदान से कांशीराम और मायावती ने बहुजनों की तक़दीर बदलने की हुंकार भरी. दोनों ने मिलकर बहुत तेज़ी से संगठन का विस्तार किया. पार्टी बनाने के पहले ही साल से मायावती चुनावी सियासत में सक्रिय हो गईं. 1989 के लोकसभा चुनाव में जब मायावती बिजनौर से जीतकर संसद पहुंचीं.

अब यहां से देश की राजनीति में अचानक दलितों और पिछड़ों का वोटबैंक बहुजन समाज पार्टी की ओर एक धारा की तरह बहना शुरू हो गया. मायावती के तेवर वाले भाषण और उनका बेबाक़ राजनीतिक अंदाज़ देखकर दलितों और पिछड़ों के बीच ये संदेश गया कि उनकी आवाज़ बुलंद करने वाला नेता उन्हें मिल गया है. जनता की नब्ज़ टटोलने में और वंचित समाज के लोगों की बात को दमदार तरीक़े से कहने में मायावती माहिर थीं. इस वजह से बहुजन समाज में उनकी लोकप्रियता बहुत तेज़ी से बढ़ने लगी. कांशीराम के सहयोग से उन्होंने सियासी दांवपेच और राजनीतिक गठबंधन की बारीकियों को समझा और इसी दौर में यूपी में एक बहुत बड़ा राजनीतिक घटनाक्रम हुआ. 1992 के राम मंदिर आंदोलन में विवादित ढांचा गिर चुका था. सांप्रदायिक हिंसा भड़कने और क़ानून व्यवस्था को चुनौती देने वाली घटनाओं के थमने के बाद 1993 में विधानसभा चुनाव का ऐलान हुआ.

सपा-बसपा ने गठबंधन में लड़ा चुनाव

1993 विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी और BSP ने मिलकर चुनाव लड़ा. समाजवादी पार्टी ने 109 सीटें जीत लीं. वहीं, बहुजन समाज पार्टी ने 67 सीटें हासिल की. 1993 के चुनाव में BSP को 11.2% प्रतिशत वोट मिला. मायावती और मुलायम सिंह ने मिलकर सरकार बना ली. BSP के गठन के 9 साल बाद ही मायावती सत्ता की राजनीति में आ गईं. 1993 में बीजेपी ने नारा दिया, आधी रोटी खाएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे. जवाब में कांशीराम और मुलायम ने अपनी पहली राजनीतिक सोशल इंजीनियरिंग को कसौटी पर रखा. एक नारा दिया, “मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम”. इस नारे की बदौलत यूपी में BSP के समर्थन से मुलायम की सरकार बन गई.

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक मुलायम यादव की सरकार का दौर था. बीएसपी ने सिर्फ़ समर्थन दिया था, वो सरकार में शामिल नहीं हुई. क़रीब साल भर ये गठबंधन चला और बाद में मायावती की बीजेपी के साथ तालमेल की ख़बरें आईं, जिसका ख़ुलासा आगे चलकर हुआ. राजनीतिक विश्लेषक बताते हैं कि यूपी में सरकार में आने के बाद समाजवादी पार्टी के तत्कालीन मुखिया मुलायम सिंह यादव पंचायत चुनाव के ज़रिये राज्य में अपना वर्चस्व कायम करना चाहते थे. कांशीराम भी अपनी पार्टी की सियासी ताक़त बढ़ाने के लिए पंचायत चुनावों का रुख़ कर रहे थे. हालांकि, वो काफ़ी बीमार थे, इसलिए उन्होंने ये ज़िम्मेदारी मायावती को दे दी.

सपा के साथ हुई अनबन

मई 1993 में जब पंचायत चुनावों का दौर आया, तब एक दलित महिला के नामांकन को रोकने के लिए समाजवादी पार्टी के लोग अड़ गए. ये बात भले ही छोटी थी, लेकिन आपसी टकराव की इसी चिंगारी ने मायावती और समाजवादी पार्टी की दोस्ती को सबसे बड़ी दुश्मनी में तब्दील कर दिया. कहते हैं कि यूपी में एसपी और बीएसपी की सोशल इंजीनियरिंग को तोड़ने के लिए बीजेपी और कांग्रेस पर्दे के पीछे से कुछ कही-अनकही कोशिशें कर रही थीं. तभी पंचायत चुनाव में एक दलित महिला का नामांकन रोकने के मुद्दे पर मायावती और मुलायम आमने-सामने आ गए. राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि बीजेपी ने पर्दे के पीछे से मायावती को ऑफ़र दिया था कि वो मुलायम सरकार से समर्थन वापस ले लें, तो बीजेपी उन्हें मुख्यमंत्री बनाने के लिए तैयार है.

2 जून 1995 को मायावती ने मुलायम सरकार से समर्थन वापसी की घोषणा कर दी. इसके बाद यूपी ने वो घटना देखी, जिसकी उम्मीद किसी को नहीं थी. मुलायम सिंह यादव ने बहुमत जुटाने के लिए कई लोगों से बात की, लेकिन कोई समर्थन हासिल नहीं हुआ. दूसरी, तरफ़ मायावती लखनऊ के मीराबाई सरकारी गेस्ट हाउस में अपने कुछ विधायकों के साथ चर्चा कर रही थीं. कुछ ही देर में गेस्ट हाउस में समाजवादी पार्टी के नेताओं की भीड़ पहुंच गई. बीएसपी नेताओं के साथ मारपीट होने लगी. कहते हैं, गेस्ट हाउस में जुटी भीड़ में कुछ बीजेपी नेता भी शामिल थे, जो बीएसपी के लोगों के लिए बीच-बचाव कर रहे थे. गेस्ट हाउस के जिस कमरे में मायावती मीटिंग कर रही थीं, वहां जबरन घुसने की कोशिश की गई.

BSP कार्यकर्ताओं ने कमरा अंदर से बंद कर लिया, तब भी समाजवादी पार्टी के लोग बाहर से दरवाज़ा तोड़ने की कोशिश करते रहे. मायावती के साथ बहुत बदसलूकी हुई. इस घटना को लेकर मायावती ने कहा था कि सपा समर्थक उनकी हत्या करना चाहते थे. उस वक़्त वहां मौजूद बीजेपी नेता ब्रह्मदत्त द्विवेदी ने गेस्ट हाउस पहुंचकर मायावती को बचाया था. मायावती को बीजेपी पर भरोसा हो गया. अगले दिन 3 जून 1995 को मायावती ने बीजेपी के समर्थन से सरकार बनाई और पहली बार यूपी के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली.

पहली दलित सीएम बनीं

मायावती मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल करने वाली देश की पहली दलित महिला थीं. तब देश के प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने कहा था, ये ‘लोकतंत्र का चमत्कार’ है. लेकिन चमत्कार से बनी मायावती सरकार से बीजेपी ने सिर्फ़ 4 महीने में ही समर्थन वापस ले लिया. 17 अक्टूबर 1995 को उनकी सरकार गिर गई. मायावती के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने ख़ुद को राजनीति में ऐसा माहिर खिलाड़ी साबित किया, जिसमें हवा का रुख़ समझने और बदलने का हुनर रहा है. सियासी गुणा-भाग में उन्होंने ऐसा वोटबैंक तैयार किया, जो उनसे पहले अलग-अलग दलों में बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना की तरह देखा जाता था. दलितों और पिछड़ों की सियासत करके पहली दलित मुख्यमंत्री बनने वाली मायावती ने 1996 में एक बार फिर पूरी ताक़त के साथ चुनाव लड़ा. इस बार समाजवादी पार्टी के बजाय कांग्रेस से गठबंधन किया. लेकिन महज़ 67 सीट ही मिलीं. विपक्ष में बैठकर वक़्त गंवाने के बजाय मायावती ने एक बार फिर बीजेपी के साथ डील की. 21 मार्च 1997 को मायावती ने दूसरी बार यूपी के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली. वो जिस अंदाज़ में प्रशासनिक फेरबदल के फ़ैसले करती थीं, वो अपने आप में मिसाल है.

मायावती के मुख्यमंत्री काल की सबसे बड़ी उपलब्धि ये है कि उनके शासनकाल में प्रशासनिक तौर पर किसी भी लापरवाही की पर सामूहिक निलबंन होना आम बात थी. हालांकि, मायावती का दूसरा कार्यकाल भी लंबा नहीं चल सका. वो बीजेपी की शर्त थी कि 6 महीने बाद उनका सीएम बनेगा. लेकिन 6 महीने पूरे करने के बाद मायावती ने बीजेपी से समर्थन वापस ले लिया. बाद में बीजेपी ने किसी तरह अन्य दलों के साथ मिलकर सरकार चलाई. हालांकि, मायावती ने अपने 6 महीने के शासन में ही सख़्त प्रशासक वाली छवि का परिचय दे दिया था. जब बीजेपी का वक़्त आया, तो मायावती ने क़रीब सवा महीने बाद ही कुछ राजनीतिक टकराव के कारणों की वजह से समर्थन वापस ले लिया. सितंबर 1997 में वो बीजेपी से अलग हो गईं. अब मायावती और बीजेपी दोनों ने राजनीतिक क़मस खाई कि एक-दूसरे की ओर देखेंगी भी नहीं. बीजेपी जोड़-तोड़ से सरकार में बनी रही, तो वहीं मायावती एक नई सोशल इंजीनियरिंग की तलाश में निकल पड़ीं. अब उनके सामने अगड़ों को निशाने पर लेने के सिवा कोई बड़ा हथियार नहीं था.

कांशीराम की उत्तराधिकारी बनीं

2001 में मायावती के जीवन की सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक घटना हुई. लंबे समय से बीमार रहने वाले कांशीराम ने मायावती को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया. इसके बाद BSP के सबसे बड़े चेहरे के तौर पर मायावती की पहली चुनावी अग्निपरीक्षा हुई. 2002 के विधानसभा चुनाव में मायावती ने 98 सीटें जीत लीं. एक बार फिर बीजेपी और बीएसपी ने अपने गिले-शिकवे भुलाकर सरकार बनाने के लिए गठबंधन कर लिया. मायावती ने तीसरी बार यूपी के मुख्यमंत्री का ताज हासिल कर लिया. तब बीजेपी की ओर से नारा दिया गया, हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा विष्णु महेश है. क्योंकि, चुनाव से ठीक पहले मायावती ने बीजेपी के अगड़े वोटर्स के ख़िलाफ़ नारा दिया था, तिलक तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार. बहरहाल, मायावती और बीजेपी दोनों को सरकार बनाने के लिए साथ आना पड़ा. हालांकि, ये वो दौर था, जब मायावती ने सीएम की कुर्सी संभालने के बाद कुछ बड़ी योजनाओं और स्थलों के नाम पर स्मारकों और पत्थरों की सियासत को हवा दे दी. ताज कॉरिडोर मामला ऐसी ही घटना थी, जिसकी वजह से बीजेपी और मायावती के बीच टकराव शुरू हो गया.

साल 2003 की राजनीतिक शुरुआत काफ़ी हलचल भरी रही. मायावती ने निर्दलीय विधायक रघुराज प्रताप सिंह ऊर्फ राजा भैया पर आतंकवाद निरोधक अधिनियम (पोटा) के तहत केस लगा दिया. बताया जाता है कि राजा भैया और धनंजय सिंह उन 20 विधायकों में शामिल थे, जिन्होंने राज्यपाल विष्णुकांत शास्त्री से मिलकर मायावती सरकार को बर्ख़ास्त करने की माँग की थी. इसलिए उन्हें नवंबर में ही जेल में बंद कर दिया गया. बीजेपी के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष विनय कटियार ने भी राजा भैया से पोटा हटाने की मांग की, लेकिन मायावती ने ये मांग ठुकरा दी. बात बिगड़ती चली गई. इसी तनातनी के कुछ दिनों बाद ताज हैरिटेज कॉरिडोर निर्माण को लेकर यूपी की मायावती सरकार और केंद्र के बीच तल्ख़ियां और बढ़ गईं.

केंद्रीय पर्यटन मंत्री जगमोहन ने बिना नियमों का पालन किए ताज कॉरिडोर निर्माण में वित्तीय गड़बड़ियों को लेकर जांच की सिफ़ारिश कर दी. मायावती ने जगमोहन को केंद्रीय मंत्रिमंडल से हटाने की मांग कर दी. जगमोहन के इस्तीफे की मांग को लेकर बीएसपी सांसदों ने लोकसभा में ख़ूब हंगामा भी किया. अब बीजेपी और मायावती के रिश्ते इतने बिगड़ गए कि 26 अगस्त 2003 को मायावती ने कैबिनेट की बैठक बुलाकर विधानसभा भंग करने की सिफारिश करते हुए साथ राज्यपाल को अपना इस्तीफ़ा सौंप दिया. मायावती तो मुख्यमंत्री नहीं रहीं, लेकिन विधानसभा भंग नहीं हुई. बीजेपी ने बड़ा खेल कर दिया. बीएसपी के 13 विधायक बाग़ी हो गए. तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष केशरीनाथ त्रिपाठी ने बीएसपी की अपील ख़ारिज कर दी. बीएसपी के बाग़ी विधायकों की सदस्यता दल-बदल के तहत रद्द नहीं की गई, जिसकी वजह से उन 13 बागी विधायकों का समर्थन मिलते ही मुलायम सिंह ने 210 विधायकों की सूची राज्यपाल विष्णुकांत शास्त्री को सौंप दी. बिना समय गंवाए शास्त्री ने उन्हें शपथ ग्रहण का न्योता दे दिया.

29 अगस्त, 2003 को मुलायम सिंह ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली. जिस बीजेपी ने फ़रवरी 2002 में मुलायम सिंह को मुख्यमंत्री नहीं बनने दिया, उसी ने उनकी सरकार बनाने में पूरी मदद की. 14 साल से मुलायम सिंह के ख़िलाफ़ राजनीति कर रहे चौधरी अजित सिंह ने उन्हें समर्थन दे दिया. जो कल्याण सिंह, मुलायम को रामसेवकों की हत्या करने वाला रावण कहते थे, उन्होंने मुलायम को बहुमत जुटाने में मदद की और सोनिया गांधी को मुलायम सिंह ने 1999 में प्रधानमंत्री बनने से रोक दिया था, लेकिन, उनकी पार्टी ने सरकार बनाने के लिए मुलायम सिंह को समर्थन दे दिया. ये यूपी की राजनीति में अब तक का सबसे नाटकीय घटनाक्रम रहा है.

2006 में मायावती को अपने राजनीतिक जीवन का सबसे बड़ा झटका लगा. BSP के संस्थापक कांशीराम ने ब्रेन स्ट्रोक की वजह से चल रहे लंबे इलाज के बाद दम तोड़ दिया. अब BSP में मायावती को वन मैन आर्मी की तरह काम करना पड़ा. हर नीति से लेकर रणनीति तक और सुझाव से लेकर फ़ैसले तक सबकुछ मायावती ही तय करती थीं. इसके बाद यूपी की सियासत में वो दौर आया, जब मायावती ने अपने दम पर ऐसी सोशल इंजीनियरिंग को अंजाम दिया, जो अपने आप में मिसाल है. अब तक दलित हितों के लिए अगड़ों पर हमले करने वाली मायावती अपना वोटबैंक मज़बूत कर रही थीं, लेकिन 2007 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने नया कार्ड खेला.

पूर्ण बहुमत से बनाई सरकार

दलित और ब्राह्मण वोटर्स को साथ लाने के लिए मायावती ने अगड़ों को ख़ूब टिकट बांटे. नतीजा आया तो राजनीतिक पंडित हैरान रह गए. 206 सीटें जीतकर मायावती ने पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई. पहली बार पूर्ण बहुमत की सरकार में आने के बाद मायावती ने वो मिशन शुरू किया, जिसने उन्हें दलितों की सर्वमान्य नेता बनकर स्थापित कर दिया. लखनऊ से नोएडा तक और दलित प्रेरणा स्थल से लेकर कांशीराम के नाम पर बड़े-बड़े पार्क और स्मारकों तक एक लंबा सिलसिला चल पड़ा. उस दौर में मायावती पर इस तरह की परियोजनाओं के ज़रिये घोटाले के आरोप भी लगे, लेकिन उन्होंने यूपी की राजधानी में आंबेडकर पार्क से लेकर दिल्ली की सरहद के पास नोएडा तक दलित सियासत की अमिट छाप छोड़ी.

इतना ही नहीं सामाजिक न्याय को लेकर उनका दावा था कि यूपी में प्राइवेट सेक्टर में भी उन्होंने दलितों के लिए 30 प्रतिशत आरक्षण लागू किया. राजनीति में मायावती का इनकम टैक्स भरने वाला किस्सा भी बहुत चर्चित रहा. 2007-08 में सबसे ज़्यादा इनकम टैक्स देने वालों में वो 20वें नंबर पर थीं. उन्होंने 26 करोड़ सिर्फ़ इनकम टैक्स के तौर पर भरा था. हालांकि, 2001 में उनकी एक करोड़ की घोषित आय 2007 में बढ़कर 50 करोड़ हो गई थी. तब मायावती ने कहा था कि ये रक़म पार्टी के कार्यकर्ताओं ने उन्हें बतौर डोनेशन दी है.

आय से अधिक संपत्ति के मामले में CBI ने उनके ख़िलाफ़ जांच भी की और ग़ुस्से में उन्होंने UPA सरकार से समर्थन वापस ले लिया. मायावती ने आरोप लगाया कि ‘कांग्रेस अपनी सरकार बचाने के लिए CBI जैसी उच्च जांच एजेंसी का दुरुपयोग करके मेरे ऊपर राजनीतिक दबाव बनाने की पूरी कोशिश की है’. नोएडा में मेट्रो लाने की कोशिश से लेकर ताज एक्सप्रेस वे की तरह मायावती के तमाम कार्य राजनीतिक इतिहास के रूप में उद्घाटन के पत्थरों में दर्ज़ हैं. मायावती के राजनीतिक जीवन में उपलब्धियों के साथ-साथ कुछ विवाद भी जुड़े. इनमें जन्मदिन पर महंगे तोहफ़ों की कथित डिमांड भी शामिल रही. हालांकि, इसका कोई सबूत नहीं दे पाया, लेकिन जब भी सवाल पूछा गया तो मायावती ने ख़ुद ही कह दिया कि दलितों और ग़रीबों की पार्टी है, जो लोग ख़ुशी से चंदा दे देते हैं, वो उसे स्वीकार कर लेती हैं.

फिर भी ये बात हमेशा सुर्ख़ियों में रही कि राजनीतिक हस्ती बनने के बाद से मायावती का जन्मदिन हमेशा बड़े पॉलिटिकल इवेंट में तब्दील हुआ. बहरहाल, मायावती ने हमेशा ये दावा किया कि उन्होंने जनता का पैसा जनहित के कामों में लगाया. 2012 में भारत का पहला फ़ॉर्मूला वन रेसिंग ट्रैक बुद्धा इंटरनेशनल सर्किट नोएडा में खुला. मायावती ने अपने हाथों से विजेताओं को ट्रॉफ़ी बांटी. गौतमबुद्ध नगर में महामाया बालिका और बालक इंटर कॉलेज खोलने के साथ-साथ गौतम बुद्ध यूनिवर्सिटी जैसा तोहफ़ा दिया. राजनीतिक विरोधी कुछ भी कहें, लेकिन गौतमबुद्ध नगर ने मायावती के शासन में नया आकार लिया. बड़े-बड़े पार्क, सरकारी स्कूल, हॉस्पिटल और मुख्य चौराहों पर विकास की चमक मायावती के शासन में पहली बार दिखी.

मायावती के शासन काल को लोग एक बात के लिए सबसे ज़्यादा याद रखते हैं. यूपी में अपराध पर लगाम लगी. सांप्रदायिक दंगे नहीं हुए. मायावती को यूपी की सियासत में प्रयोगवादी नेता के तौर पर जाना जाता है. तीन बार बीजेपी के साथ गठबंधन करने के बाद उन्होंने अपनी राहें अलग कर लीं. तो वहीं, समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन और फिर सबसे बड़ी चोट खाने के बाद 2019 में लोकसभा उपचुनाव के लिए फिर गठबंधन कर लिया. बीएसपी के समर्थन से गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा सीट उपचुनाव जीतने के बाद बुआ और बबुआ की जोड़ी के चर्चे होने लगे. लेकिन, 2019 के लोकसभा चुनाव नतीजों ने एक बार फिर मायावती को समाजवादी पार्टी से अलग राह तलाशने के लिए मजबूर कर दिया. क्योंकि, दोनों दलों की सियासत और राजनीतिक विरासत टिकाऊ गठबंधन में इजाज़त नहीं देती.

राज्यसभा से दे दिया इस्तीफा

मायावती से जुड़ी एक ख़ास बात ये है कि वो समय की पाबंद हैं. वक़्त बचाने के लिए उन्होंने अपने लंबे बाल तक कटवा दिए थे. मायावती ने अपने राजनीतिक करियर के शुरुआती दौर में लंबे बाल रखे थे. लेकिन, कुछ साल बाद हेयरस्टाइल बदल गया. एख इंटरव्यू में उन्होंने बताया था कि लंबे बाल होने पर बार-बार उन्हें बांधना पड़ता था. हर रोज़ राजनीतिक दौरे की वजह से कई-कई जगह जाना पड़ता था, इसलिए बार-बार बाल बांधने पड़ते थे. इसमें समय बहुत ख़राब होता है. इसलिए समय बचाने के लिए बाल ही कटवा दिए. मायावती के सियासी तेवर हमेशा सुर्ख़ियों में रहे.

2012 में जब वो राज्यसभा गईं, तो सहारनपुर में दलितों के ख़िलाफ़ हिंसा पर जब उन्हें सदन में अपनी बात नहीं रखने दी गई, तो उन्होंने राज्यसभा की सदस्यता से ही इस्तीफ़ा दे दिया. यूपी में क़रीब 21प्रतिशत दलित वोटबैंक पर BSP अपना अधिकार मानती है. हालांकि, ये भी सच है कि 21फ़ीसदी होने के बावजूद दलित वोटर्स एकतरफ़ा जिस ओर रुख़ करते हैं, उसकी सत्ता तय मानी जाती है. ये भी उतना ही सच है कि मायावती या BSP के पास पारंपरिक विरासत में यही दलित वोटबैंक है, जिसमें गुणा-भाग करके उन्हें राजनीतिक वजूद बचाना भी है और सियासी वर्चस्व दिखाना भी है. यूपी से लेकर संसद तक मायावती को ऐसे नेता के तौर पर जाना जाता है, जो अक्सर चौंकाने वाले फ़ैसले लेती हैं. हर चुनावी समीकरण और राजनीतिक गणित में मायावती के दलित वोटबैंक पर सबकी नज़र रहती है. मायावती ने BSP के इस वोटबैंक को इतना मज़बूत बनाया कि उसमें बड़ी सेंध लगा पाना किसी के लिए भी नामुमकिन से कम नहीं.

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