आप मेरे जैसे तो हैं नहीं …..
आप मेरे जैसे तो हैं नहीं …..……..
सृजन, विकास और विनाश का चक्र एक निरंतर प्रक्रिया है जो अनवरत चलती रहती है। जो भी उत्पन्न होगा वो एक सीमा तक विकास करेगा फिर उसका पतन प्रारम्भ होगा तथा कालांतर में उसका विनाश फिर नई उत्पत्ति यही क्रम चलता रहता है। विनाश के बीज उत्पत्ति में ही निहित रहते हैं। विनाश के मूल में कुछ निश्चित कारण होते हैं। जिनमे कुछ प्रमुख कारक हैं उपयोगिता समाप्त हो जाना, उपयोग की अपेक्षा दुरुपयोग अधिक हो जाना, विकृति आ जाना आदि।
पिछले कुछ दिनों से मेरे भीतर कुछ प्रश्न उठ रहे हैं कि क्या सूचना तंत्र अपने विकास का चरमोत्कर्ष देख चुका है ? क्या ये विकृत हो चुका है ? क्या इसका पतन अवश्यम्भावी है ? क्या समकालीन विश्व इसको सही तरीके से प्रयोग करने में असमर्थ है ? क्या वर्तमान सूचना तंत्र ने मानव को उपभोक्ता के स्थान पर उत्पाद या वस्तु के रूप में बदल दिया है ? आदि। इतने सारे नकारात्मक प्रश्न एक साथ उठना उचित नहीं है लेकिन उठ गए तो मैंने सोचा कि साझा करूँ। साझा करने के पीछे भी कई कारण है। मज़ेदार बात ये है कि ये भी सूचना तंत्र के माध्यम से ही संभव है। फ़िलहाल जब मेरे भीतर प्रश्न उठे तो मैंने उनके उपयोग और दुरुपयोग का तुलनात्मक अध्ययन भी अपनी क्षमतानुसार किया स्वयं पर तथा कुछ अन्य जिनके विषय में मैं ये कह सकता हूँ कि उनके ऊपर क्या प्रभाव पड़ा उसका भी अध्ययन किया और अपनी बुद्धि के अनुसार कुछ निष्कर्ष भी निकाले। वो मैं आपसे साझा नहीं करूँगा क्यों कि “आप मेरे जैसे तो हैं नहीं” आपके अपने अनुभव हैं, अपनी आवश्यकताएं हैं परन्तु एक आग्रह जरूर करूँगा कि आप भी अपने लिए इतना परिश्रम तो अवश्य करें।
मैं अपना निष्कर्ष तो नहीं बता सकता लेकिन इस बात पर थोड़ी चर्चा अवश्य करूँगा कि मुझे अपने विषय में क्या पता चला। कहानी शुरू होती है मेरे खालीपन से, मैं काफी खाली था मेरे पास पर्याप्त समय था तो लोगों ने मुझसे बताया कि “खाली दिमाग शैतान का घर होता है” ऐसे कैसे रहोगे मैंने सोचा कि इनका दिमाग इतना भरा है जरूर उसमे भगवान् का वास होगा इनकी बात माननी चाहिए, तो मैंने सूचना तंत्र के क्रान्तिकारी हथियार जिसको कि हम मोबाइल कहते हैं, अपनी जमापूंजी से एक शानदार हथियार खरीद लिया और अपने शक्तिशाली होने के भाव से काफी गर्व महसूस करने लगा। मै बड़ा प्रसन्न था कि चलो अब मैं सारी दुनिया से कदम से मिलाकर चलूँगा हमेशा अपडेट रहूँगा इसमें मेरी मदद बड़ी-बड़ी नेटवर्क कंपनियों ने भी की, सस्ते भाव में क्या लगभग मुफ्त में डाटा उपलब्ध कराकर। मैं ज्यादा डाटा का प्लान लेकर अपने दोस्तों के बीच चर्चा का विषय बन गया। फिर मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा, उसके बाद मैं भी सोशल मीडिया के ढेरों प्लेटफार्म पर जुड़ गया ढेर सारे ग्रुप और दोस्त बनने लगे, मैं ऑनलाइन पढ़ने लगा, शॉपिंग करना भी सीख लिया, पड़ोसियों के टिकट बुक कराकर उनकी आँखों का तारा बन गया, मैं पंख लगाकर उड़ने लगा। मुझे लगने लगा कि मेरे भीतर भी भगवान प्रकट होने लगे मैं उसे हर पल महसूस करने लगा मेरे चेहरे पर एक नई चमक थी। अब मेरा दिमाग एकदम भी खाली नहीं था मैं हर समय लाइक, कमेंट और शेयरिंग के त्रिकोण में इस दैवीय शक्ति को महसूस कर पा रहा था। अब मैं गाडी चलाते समय भी बोर नहीं होता था, खाना चबाने के बीच समय भी मैं कुछ सीख लेता था, सोते समय तो समय ही समय था तो मैं प्रयास करता था कि उसका भी सदुपयोग कर लूँ करता भी था, रात में जाग-जाग के मैंने ज्ञान प्राप्त किया यहाँ तक कि शौच कार्यक्रम के समय का भी सद्पयोग मैंने सीख लिया ये और बात है कि मुझे बवासीर की समस्या का सामना पड़ा लेकिन मेरे जीवन में हर तरफ आनंद ही आनंद था। मेरे पास अनगिनत सूचनाएं थी मैंने कई वैश्विक विश्वविद्यालयों में एक साथ प्रवेश पा लिया था भला हो उन महापुरुषों का जिनके औदात्य ने हमको ये सुविधा मुफ्त में मुहैय्या करवाई। मेरे पास तथ्यों व विचारों का ज्वार उमड़ने लगा। मेरी मौलिकता दिन-प्रतिदिन निखरने लगी। विश्वविद्यालय की शिक्षाओं को मैं आत्मसात करने लगा। इस सीखने की प्रक्रिया में मैंने आँखों पर चश्मा और गले में पट्टा भी पहना पर हार न मानी मैं सीखता रहा। अब तो मुझे सामाजिक मंचों पर शास्त्रार्थ के लिए निमंत्रण भी मिलने लगा सब लोग मुझे आदर भरी नज़रों से देखने लगे। कई मूढ़ मुझसे ईर्ष्या भी करने लगे और मेरा आत्मसम्मान दिनों-दिन बढ़ने लगा। आप भी कभी न कभी आत्मसम्मान से विभोर होकर भावुक तो अवश्य हुए होंगे बताएं आप भले न। मैं एक योद्धा की तरह लगा रहा अब जगह-जगह मैंने ज्ञान की उलटी भी शुरू कर दी। मैं बेजोड़, मैं लाजवाब समझो कि विश्वकोश टाइप। दुनिया के सभी बड़े संदेशवाहकों का मैं प्रतिनिधि बन गया। देश-विदेश के सभी कलाकार चाहे वे पुरुष हो या महिला सबके अफेयर से लेकर बैंक डिटेल्स सब मेरे पास था। मैंने विश्वविद्यालयों से तमाम प्रकार की डिग्रियां ली, समाज में जागरूकता की अलख भी जगा दी, जात-पात के भेद भी मिटा दिए, राजनीति और विदेशनीति मुझसे पूछकर बनने लगी, गीता पर मेरा नया भाष्य छपकर प्रकाशित हो चुका था, अर्जुन मैं रोज नया खोज लेता था, स्त्री को तो पुरुष से आगे निकाल कर ही दम लिया। अभी जल्द ही मैंने चिकित्साशास्त्र में शोध समाप्त किया है, रोज़ सुबह शुद्ध ऑक्सीजन का झोंका और इम्युनिटी बूस्टर गोलियां सबको भेजना नहीं भूलता, WHO की एक गृह शाखा भी मैंने खोल ली है। अब मैं अपनी प्रशंसा कहा तक करूँ लेकिन इन सारी उपलब्धियों पर मुझे एक पैसे का अहंकार नहीं था। आप इसको अपने से न जोड़ें ये मेरी कहानी है। आप मेरे जैसे तो हैं नहीं।
जीवन सुन्दर सपने सा चल रहा था कि अचानक एक दिन आँख खुली सीने में काफी भारीपन लग रहा था सांस जैसे फूल रही थी सर फटा जा रहा था, मैं समझने की कोशिश कर रहा था कि ये हो क्या रहा है ? मैं अभी भी विश्वविद्यालय के नोट्स पढ़ रहा था मेरे संगी साथी अपने नोट्स मेरे ऊपर चला रहे थे लेकिन मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था। महीनों की उधेड़-बुन के बाद मुझे पता चला कि मैंने अपना ज्ञान आत्मसात कर लिया है। कोई भी सूचना और ज्ञान अब मुझ पर ही चिपकने लगा है मौत की सूचना अब मेरी मौत बनकर आ रही है, मेरा पेट दर्द कैंसर तो सर दर्द ट्यूमर, खांसी कोरोना में बदल चुकी है। हिंदुत्व खतरे में पड़ चुका है, सीमा पर देश खतरे में है, मेरी गर्लफ्रेंड का बॉयफ्रेंड भी है, कोरोना से एक दिन में गलने वाले फेफड़े मेरे सपने में आने लगे हैं मुझे चारों तरफ सिर्फ बीमारी और मौत दिख रही है। मेरी मौलिकता मुझे छोड़कर भाग चुकी है, मेरी हिम्मत जवाब दे चुकी है। मैं फिर दुखी हो गया कि अब मैं क्या करूँगा ? फिर मुझे कुछ लोग मिले उन्होंने बताया कि दिमाग को थोड़ा शांत करो थोड़ा खाली करो मैंने कहा कि नहीं-नहीं खाली दिमाग तो शैतान का घर होता है मैं ऐसा नहीं करूँगा और मैं कर भी कैसे सकता था हमारी हार्ड डिस्क में डिलीट का बटन तो होता नहीं है। मैं समझ गया कि मैंने उस घोड़े की सवारी कर ली है जो मेरे काबू में नहीं है। अब धीरे-धीरे मुझे अपनी मौलिकता और अपने ज्ञान पर संदेह होने लगा मैं फिर से मूर्ख बनने का प्रयास करने लगा, पर ये संभव है क्या ? अब मुझे डर लगने लगा कि क्या मैं ये सब कभी भूल भी पाउँगा ? मेरी जागरूकता ने मुझे कहाँ लाकर खड़ा कर दिया। आपके साथ ये सब नहीं होगा। आप मेरे जैसे तो हैं नहीं।
मैंने अपने विषय में ये समझ लिया है कि मैं आप जितना समझदार नहीं हूँ। मुझसे इन सूचनाओं का बोझ नहीं उठाया जा रहा। ज्ञानी होने की अभिलाषा पूरी करने में मैं असमर्थ हूँ। “सबसे भले वो मूढ़ जन जिन्हे न व्यापे जगत गति” उनको देख कर मैं जल उठता हूँ। जागरूकता से मुझे घिन सी आने लगी है। जागरूकता को मैं बाहरी दुनिया से जोड़ने लगा बाहर गति बढ़ती गई भीतर दुर्गति बढ़ती गई। मैं बाहर कुछ होने से रोक नहीं सकता भीतर भी मैं कुछ होने से रोकने में लगभग असमर्थ हूँ तो जो काम मैं कर सकता हूँ वो ये कि बाहर-भीतर का मेल न होने दूँ। लेकिन क्या ये संभव है ? मुझे क्या करना है वो मेरा दृष्टिकोण है। आप अपना दृष्टिकोण समझें आप मेरे जैसे तो हैं नहीं
@मयंक मिश्र …..