एनसीबी का काम ड्रग्स की बड़ी खेप को रोकना व बड़े खिलाड़ियों को पकड़ना है, छिटपुट मामलों से दूर रहना चाहिए

मीडिया की सुर्खियां बटोरने वाली एफआईआर या फिर गिरफ्तारियों में दो बातें कॉमन होती हैं। पहला, केंद्र की एजेंसियों जैसे सीबीआई, ईडी और राज्यों में अलग-अलग दलों की सरकारों से संचालित पुलिस की मार विरोधी पक्ष के लोगों पर पड़ती है। इसका मतलब यह है कि पुलिस व जांच एजेंसियों का एक्शन या नाॅन एक्शन कानून के बजाय सत्ता के रिमोट कंट्रोल से संचालित होता है।

दूसरा, सिस्टम के मगरमच्छ की गिरफ्त में आए मदमस्त हाथी को मुक्ति के लिए गज-ग्राह की तर्ज पर अलौकिक शक्तियों की मदद की दरकार होती है। महाराष्ट्र सरकार और उसके मंत्रियों ने केंद्रीय जांच एजेंसियों पर जोरदार हमले किए और बड़े वकीलों की फौज ने अदालतों में मोर्चा सम्हाला, जिसके बाद आर्यन खान को 8 महीने के भीतर ड्रग्स मामले में क्लीन चिट मिल गई।

बॉलीवुड का ड्रग्स के साथ चुनावी सियासत से भी गाढ़ा नाता है, जिस कारण इन मामलों में राज्य और केंद्र की सरकारों को विशेष रुचि रहती है। बिहार चुनाव के समय सुशांत सिंह राजपूत तो यूपी चुनाव के समय आर्यन खान मामले से सोशल मीडिया में अभियान चल रहे थे। रिया चक्रबर्ती मामले में पिछले साल ही 12 हजार पेज की चार्जशीट फाइल हुई थी।

आर्यन को क्लीनचिट के बाद रिया मामले में भी एसआईटी से नई जांच कराने की मांग उठने लगी है। लेकिन लाखों अन्य लोग इतने समर्थ और भाग्यशाली नहीं होते और न ही उनकी मदद के लिए कोई एसआईटी आती है। गरीब हो या अमीर, संविधान के अनुसार किसी भी बेगुनाह को जेल में नहीं रखा जाना चाहिए। आर्यन की गलत गिरफ्तारी और उत्पीड़न के लिए के लिए समीर वानखेड़े और नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो (एनसीबी) का तंत्र जिम्मेदार था।

लेकिन उस अन्याय के लिए जमानत खारिज करने वाले जजों की भूमिका को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। एनडीपीएस की विशेष अदालत ने माना था कि आर्यन के बयानों से साजिश में उसकी संलिप्तता दिखती है। उसके बाद सेशंस कोर्ट ने भी मान लिया कि आर्यन को अरबाज मर्चेंट के पास मादक पदार्थों होने की जानकारी थी, इसलिए उसे जेल में रखना चाहिए।

मामले की जांच कर रहे एनसीबी के अधिकारी समीर वानखेड़े नौकरी के लिए फर्जी जाति प्रमाण पत्र, बार लाइसेंस और बालीवुड के साथ हितों के विरोधाभास आदि कई वजहों से विवादों के घेरे में आए। लेकिन उनकी जांच की खामियां अब उजागर हो रही हैं।

एक ऐसा हाई प्रोफाइल मामला, जिसमें जोनल डायरेक्टर खुद छापेमारी में शामिल रहे, उसमें सबूतों को पुख्ता करने के लिए वीडियोग्राफी नहीं हुई; मोबाइल को वैधानिक तौर पर जब्त करने के बजाय जांच अधिकारी गैरकानूनी तरीके से व्हाट्सएप चैट ट्रैक करते रहे; आर्यन के पास से नशीले पदार्थ तो बरामद हुए नहीं, लेकिन उसके नशा सेवन को प्रमाणित करने के लिए मेडिकल परीक्षण भी नहीं कराया गया; एसआईटी बनने पर पता चला कि पंचनामे के समय दो गवाह मौजूद ही नहीं थे; मामला निपटाने के लिए 18 करोड़ की डील का आरोप लगाने वाले बॉडीगार्ड प्रभाकर सेल की हार्ट अटैक से मौत हो गई; अदालत से रिमांड हासिल करने और मीडिया में सुर्खियां बटोरने के लिए एनसीबी की टीम ने दावा किया था कि आर्यन और अन्य अभियुक्तों का अंतरराष्ट्रीय तस्करों से जुड़ाव है, लेकिन 6 हजार पेज की चार्जशीट में एनसीबी सबूत पेश करने में विफल रही।

एनसीबी का काम ड्रग्स की बड़ी खेपों को रोकने के साथ बड़े खिलाड़ियों को पकड़ना है। छिटपुट मामलों पर विवाद के घेरे में रहने की वजह से एनसीबी अपने मूल उद्देश्य से भटकती दिखती है। सुप्रीम कोर्ट ने वेश्यालय चलाने वाले और दलालों को अपराधी माना है। लेकिन सेक्स वर्कर और उनके बच्चों को पीड़ित मानते हुए रिलीफ देने के लिए गाइडलाइंस जारी की है।

उसी तरीके से ड्रग्स के बड़े कारोबारी और मार्केटिंग नेटवर्क के साथ छिटपुट खुराक लेने वाले युवा, उनके साथी और परिजनों को जोड़ना, जांच एजेंसी की सब धान बाईस पसेरी की मानसिकता है। व्हाट्सएप चैट, वॉइस नोट, आरोपी के बयान, कॉल की सीडीआर, मोबाइल की फॉरेंसिक जांच, मेडिकल परीक्षण आदि प्रमाणों को सेलिब्रिटीज को फंसाने के बजाय ड्रग्स के बड़े कारोबारियों के मामले में इस्तेमाल किया जाए तो समाज और देश दोनों का भला होगा।

आठ महीने बाद अब एनसीबी चीफ ने दुरुस्त फरमाया है कि ड्रग्स की बरामदगी के बगैर सिर्फ संदेह या चैट के आधार पर गिरफ्तारी ठीक नहीं। लेकिन कानून के इस बेसिक सिद्धांत का पालन आर्यन और अन्य मामलों की शुरुआती स्टेज में ही क्यों नहीं किया जाता?

ड्रग्स सेवन, बेचना और पार्टी अटेंड करने वालों के बीच के फर्क को नजरअंदाज करके मनमानी गिरफ्तारी, पेशेवर गवाहों की जुगत से केस बनाना, मीडिया में जांच लीक करके लोगों की इज्जत से खेलना, परिजनों और दोस्तों का उत्पीड़न और पैसे वसूलने जैसे आरोपों से जांच एजेंसी पर लोगों का भरोसा डगमगाता है।

आर्यन मामले में लापरवाही, उत्पीड़न, साजिश और वसूली के प्रमाण आने के बावजूद संबंधित अधिकारी को चेन्नई ट्रांसफर कर मामले की खानापूर्ति कर दी गई। भ्रष्ट लक्ष्य और सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए कानून की आड़ में आपराधिक पटकथा लिखने वाले अधिकारियों पर कठोरतम कार्रवाई होनी चाहिए। सरकारी तंत्र निर्दोषों की रक्षा के लिए होता है। रक्षक ही भक्षक बन जाए तो सुप्रीम कोर्ट को नए सिरे से पहल करनी चाहिए।

कानून के सिद्धांत का पालन जरूरी
एनसीबी चीफ ने कहा है कि सिर्फ संदेह या चैट के आधार पर गिरफ्तारी ठीक नहीं। इस सिद्धांत का पालन आर्यन मामले में क्यों नहीं किया गया? ड्रग्स सेवन, बेचना और पार्टी अटेंड करने वालों के बीच के फर्क को नजरअंदाज कर गिरफ्तारी, पेशेवर गवाहों की जुगत से केस बनाना, जांच लीक करना, उत्पीड़न और पैसे वसूलने जैसे आरोपों से जांच एजेंसी पर लोगों का भरोसा डगमगाता है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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