समझदार लोग कभी भी जल्दबाजी में टिप्पणी नहीं करते है, जैसा कि अनेक लोगों के द्वारा की जाती हैं

‘अधमा धनमिच्छन्ति धनमानौ च मध्यमा। उत्तमा मानमिच्छन्ति मानो हि महतां धनम्।। -चाणक्य नीति (8/1)’ मैं सुभाषितम् के इस श्लोक को कभी भुला नहीं सकता, क्योंकि इकलौता यही श्लोक था जो मेरे पिता ने मुझे सिखाया था, और वह भी 1960 के दशक में सीताबर्डी, नागपुर के मेनरोड पर शर्मा स्टोर नामक जनरल स्टोर के बाहर खड़े होकर।

मुझे वह दृश्य अच्छी तरह याद है, क्योंकि स्टोर से बाहर निकलते समय मुझे सड़क पर एक रुपए का सिक्का पड़ा दिखाई दिया था। जब मैंने पिता को उसके बारे में बताया तो उन्होंने उसे मुझसे ले लिया और यह कहते हुए दुकान मालिक को दे दिया कि यह किसी बच्चे का होगा, जिसे उसने गलती से गिरा दिया होगा।

इस पर मैंने नाखुशी जताई, क्योंकि मुझे लग रहा था कि इससे मैं ढेर सारी रावलगोन टॉफी खरीद लूंगा। मेरी निराशा देखकर पिता मुझे फिर से उस छोटी-सी दुकान में ले गए। उन्होंने मुझे अपनी पसंद की एक टॉफी दिलाई और यह श्लोक सुनाया।

श्लोक का भावार्थ इस प्रकार से था- निम्नतम श्रेणी के व्यक्ति केवल धन की कामना करते हैं, मध्यम श्रेणी के व्यक्ति धन और सम्मान दोनों की कामना करते हैं, परंतु उत्तम श्रेणी के व्यक्ति केवल सम्मान प्राप्ति की इच्छा करते हैं, क्योंकि समाज में सम्मान प्राप्त होना ही महान व्यक्तियों के लिए धन के समान है।

जब वे मुझे यह श्लोक समझा रहे थे, तब एक छोटी लड़की अपना खोया हुआ सिक्का ढूंढते हुए आई। उसे उसका सिक्का लौटा दिया गया। इस सप्ताह जब मैंने मुजफ्फरपुर के नीतीशेश्वर कॉलेज के सहायक प्राध्यापक ललन कुमार के बारे में सुना तो मुझे अपने जीवन का वह सबक याद हो आया।

वे गत मंगलवार को बीआर आम्बेडकर बिहार यूनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार को 23 लाख 82 हजार 228 रुपयों का चेक लौटाने के कारण चर्चाओं में आए थे। वैसा उन्होंने इसलिए किया था क्योंकि उनके मुताबिक उनकी अंतरात्मा ने उन्हें बिना पढ़ाए वेतन लेने की इजाजत नहीं दी थी। बीते दो साल नौ महीनों से- यानी कोविड लॉकडाउन से भी पहले से- उनकी हिंदी की कक्षा में कोई छात्र नहीं आ रहे थे।

जब मैंने यह खबर सुनी तो मैंने ललन कुमार के बारे में बहुत अच्छी राय बना ली। लेकिन जल्द ही मेरी धारणा डगमगा गई, जब मैंने एक अन्य खबर में उनके प्रिंसिपल और रजिस्ट्रार की बातों में अंतर्विरोध पाया। रजिस्ट्रार ने जहां चेक लौटाने के लिए ललन कुमार की सराहना की, वहीं प्रिंसिपल ने कहा कि ललन मनपसंद जगह पर तबादले के लिए यह नौटंकी कर रहे हैं।

यह खबर पढ़कर मैं सतर्क हुआ और ललन के बारे में और सूचनाएं पाने तक मैंने धीरज रखने का निर्णय लिया। मेरा पहला शक यह था कि एक प्राध्यापक के पास इतनी बड़ी राशि बिना खर्च किए कैसे सलामत रही? और जैसी कि उम्मीद थी, मेरे सहकर्मी रोमेश बाबू ने मुझे ललन का वह माफीनामा भेज दिया, जो सोशल मीडिया पर बहुत सर्कुलेट हो रहा है। मुझे बताया गया कि ललन के खाते में इतना रुपया था ही नहीं। तब मुझे यूनानी दार्शनिक पायरो का यह कथन याद आया- समझदार लोग कभी यह नहीं कहते कि ऐसा है, वे हमेशा यह कहते हैं कि ऐसा मालूम होता है।

जब आपको कोई चकित कर देने वाली सूचना मिले तो कभी तुरत-फुरत में उस पर टिप्पणी न करें। कुछ देर धैर्य रखें। आपकी बुद्धिमत्ता को उस सूचना का परीक्षण करने दें। बहुत सम्भव है कि नतीजे दूसरे आएं, जैसा कि ललन कुमार के मामले में हुआ। फंडा यह है कि समझदार लोग कभी भी जल्दबाजी में टिप्पणी नहीं करते हैं, जैसा कि अनेक लोगों के द्वारा की जाती हैं।

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