राजनीति में 20 माह एक लम्बा समय होता है, पर लगता नहीं कोई मोदी को चुनौती दे पाएगा

क्या 2024 के आम चुनावों का फैसला पहले ही हो चुका है? अगर इस प्रश्न का निहितार्थ यह है कि देश के चुनावी लोकतंत्र में एक पार्टी का आधिपत्य स्थापित हो चुका है तो हमें इसका जवाब हां में देना होगा। हाल में हुई राजनीतिक घटनाएं भी यही बताती हैं कि ‘मोदी-फाइड’ भाजपा विजयरथ पर सवार है, जबकि विपक्ष छिन्न-भिन्न हो चुका है।

महाराष्ट्र में जिस तरह से सत्ता पलटी, वह इस बात का एक नाटकीय उदाहरण है कि भाजपा 2024 के लिए किस तरह से कमर कस चुकी है। यूपी के बाद महाराष्ट्र ही लोकसभा में सबसे ज्यादा सांसद भेजने वाला राज्य है और उसे हथियाकर भाजपा ने विपक्ष के उस महत्वपूर्ण किले में सेंध लगा दी है, जिसके बलबूते वह 2024 में भाजपा को चुनौती देने का अरमान संजो सकता था।

शिवसेना का जिस तरह से विघटन हुआ, उसके मूल में पार्टी के भीतर सत्ता का संघर्ष ही नहीं था। वह एक तख्तापलट था, जिसके शिल्पकार दिल्ली में बैठे भाजपा के कर्णधार थे। जिस नि:संकोच तरीके से राज्यसत्ता का इस्तेमाल करते हुए- जिसमें केंद्रीय एजेंसियों से लेकर गुजरात और असम की पुलिस-मशीनरी और मुम्बई का राजभवन तक सब सम्मिलित थे- यह तख्तापलट किया गया, उसने देश के हर विपक्ष-शासित राज्य को चेतावनी दे डाली है।

यह भी संयोग है कि जब महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की सरकार बोरिया-बिस्तर बांध रही थी, तब भाजपा हैदराबाद में राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक आयोजित कर रही थी। तेलंगाना में अगले साल चुनाव होने जा रहे हैं और यह साफ है कि अब वह भाजपा के रडार पर है। बैठक में जिस तरह से के. चंद्रशेखर राव और उनके परिवार पर खुलकर हमला बोला गया, उससे यह भी संकेत मिला है कि भाजपा तेलंगाना में अपना सुपरिचित ‘पार्टी बनाम परिवार’ वाला नैरेटिव चलाने वाली है।

हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए अगर भाजपा तेलंगाना सहित दूसरे राज्यों में भी किसी एकनाथ शिंदे को खोज निकाले, जो अपनी पार्टी की नीतियों से नाराज हो और जिसके बहाने भाजपा ‘जमीनी नेता बनाम वंशवाद’ का कार्ड खेलते हुए अपनी राजनीति को आगे बढ़ाने की कोशिश करे। यह भी साफ है कि अब भाजपा दक्षिण के राज्यों पर नजर जमाए हुए है। 2019 के आम चुनावों में भाजपा ने 303 सीटें जीती थीं, लेकिन इनमें से केवल 29 दक्षिण से थीं। इनमें भी 25 तो अकेले कर्नाटक से थीं।

अब पार्टी की कोशिश है कि दक्षिण में अपने अस्तित्व को बढ़ाया जाए। इस तरह के प्रयासों के नतीजे रातोंरात नहीं आते, लेकिन भाजपा उत्तर भारत की हिंदी पट्‌टी पर अपना आधिपत्य इतनी सम्पूर्णता से स्थापित कर चुकी है कि अब वह आराम से दक्षिण के बारे में सोचने का समय निकाल सकती है। भाजपा अपना सामाजिक आधार भी बढ़ाना चाहती है।

एनडीए की राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू ओडिशा की आदिवासी हैं। उनका चयन सोची-समझी रणनीति के तहत किया गया है। 2019 में भाजपा ने अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित सीटों पर 40 प्रतिशत का वोट-शेयर हासिल किया था। वास्तव में उसका प्रदर्शन शहरी क्षेत्रों के बजाय ग्रामीण इलाकों में कहीं बेहतर रहा था। वैसा उसने ओबीसी-एससी-एसटी वोटों को अपने पक्ष में लामबंद करके किया था, जो कि उसके परम्परागत ब्राह्मण-बनिया वोटबैंक से भी ज्यादा प्रभावी साबित हुआ था।

यहां यह भी दिलचस्प है कि भाजपा ने हाल ही में यूपी के रामपुर और आजमगढ़ में हुए लोकसभा उपचुनाव भी जीत लिए, जहां बड़ी मुस्लिम आबादी है। यह कहना तो अतिशयोक्ति होगी कि भाजपा को बड़ी तादाद में मुस्लिमों के वोट मिले होंगे, लेकिन जीत ने यह साबित कर दिया कि भाजपा इस सबसे महत्वपूर्ण प्रदेश में पूर्ण वर्चस्व स्थापित कर चुकी है। वास्तव में भाजपा जिस तरह से 2024 की तैयारी कर रही है, उसकी तुलना में विपक्ष की तैयारियां दयनीय मालूम होती हैं।

राष्ट्रपति चुनाव के माध्यम से विपक्ष अपनी एकजुटता प्रदर्शित कर सकता था, लेकिन वहां भी उसके अंतर्विरोध ही उभरकर सामने आए। राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार पर सर्वसम्मति बनाने के लिए ममता बनर्जी के द्वारा बुलाई गई मीटिंग से आम आदमी पार्टी दूरी बनाए रही। आखिरकार चौथे विकल्प के रूप में यशवंत सिन्हा का नाम आगे बढ़ाया गया। दूसरी तरफ भाजपा ने द्रौपदी मुर्मू का नाम सामने रखकर विपक्ष की कमजोरियों को और उजागर कर दिया। न केवल बीजद और झामुमो, बल्कि शिवसेना भी द्रौपदी का समर्थन कर रही है।

माना कि भाजपा के पास अकूत संसाधन हैं, लेकिन विपक्ष को पलटवार तो करना ही चाहिए। वैसा नहीं किया जाएगा तो ‘वन नेशन, वन लीडर, वन फोटो’ वाला ट्रेंड ही पुख्ता होता चला जाएगा।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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