साल गुजरते गए, हम अपने ही मिथकों में धंसते चले गए; जरूरत है इन बेड़ियों को तोड़कर अगली पीढ़ी को ईमानदार और मजबूत बनाने की

आजादी का महीना चल रहा है। अगस्त। वैसे तो यह पूरा साल ही आजादी का अमृत महोत्सव रहा। आजादी से याद आया। 14 और 15 अगस्त 1947 की दरमियानी रात जब आजादी के जश्न की तैयारी चल रही थी, मौलाना अबुल कलाम आजाद कह रहे थे कि मेरे मुल्क को काटा जा रहा है।

सीमांत गांधी खान अब्दुल गफ्फार खां चीख रहे थे कि मुल्क के टुकड़े मेरी चौड़ी छाती पर कुल्हाड़ा चलाने जैसा है। और महात्मा गांधी आजादी की रोशनी में नहा रही दिल्ली से 1100 किलोमीटर दूर कोलकाता के पास लाशों के बीच सुबक रहे थे। तब गांधीजी से बीबीसी के एक संवाददाता ने कहा था कि ‘क्या आप दुनिया के नाम कोई संदेश देना चाहेंगे?’ जवाब में गांधीजी ने कहा था- ‘भूल जाओ कि गांधी अंग्रेजी जानता है!’

गांधीजी के इस जवाब में निहित भावना को हम आजादी के बाद समझ ही नहीं पाए। उनका मतलब अंग्रेज मानसिकता को तिलांजलि देने से था लेकिन हमने या हमारे नेताओं ने ऐसा कुछ नहीं किया। हालांकि क्रांति की विडम्बना यह है कि उसका जनक मर जाता है।

अहिंसक क्रांति से हमें आजादी दिलाकर गांधीजी भी हमारे बीच नहीं रहे, लेकिन अंग्रेजी तो छोड़िए, हम अंग्रेजियत से ही उबर नहीं पाए और इसके चलते हम अपने ही मिथकों और अपनी ही लिजलिजी, रोज धंसने वाली नैतिकता की जमीन में धंसते चले गए। आखिर झूठ, पाखंड और बेईमानी के तिलिस्म से कोई नस्ल, कोई पीढ़ी या कोई राष्ट्र कद्दावर कैसे बन सकता है?

कालांतर में राष्ट्रीयता की भावना जो आजादी के पहले हममें कूट-कूट कर भरी थी, आजादी के बाद उससे हमारा रिश्ता ही टूट गया और हम वही साबित हो गए जो होना था- सुविधाभोगी और भ्रष्ट। फिर हम चाहकर भी उससे उबर नहीं पाए। खैर, धीरे-धीरे ही सही, हमने संभलने की कोशिश की और अब तक संभल ही रहे हैं। पूरी तरह संभलना अभी भी हमें आया नहीं, ऐसा लगता है।

मंगलवार को ही अमेरिका ने अलकायदा के कथित चीफ जवाहिरी को अफगानिस्तान जाकर मार गिराया। हमारे देश के दुश्मन- चाहे वो दाऊद हो या मसूद- आज भी पाकिस्तान में कहीं खुले घूम रहे हैं, लेकिन हम उनका कुछ नहीं कर पा रहे। बार-बार उन्हें मांगा जाता है और बार-बार उनके वहां होने से ही इनकार कर दिया जाता है। हम कुछ नहीं कर पाते।

दरअसल, प्रचलित रूढ़ियों और विकारों की वजह से हममें संकल्पों, दृढ़ निश्चयों और मुकाबले की क्षमता नहीं रही शायद! क्या कारण हैं इसके। कारण जो कल थे, वे ही छद्म रूप से आज भी हैं। ये हैं- उत्पीड़न, शोषण, सामाजिक-आर्थिक गैर-बराबरी और अनाचारों, यातनाओं पर टिकी हमारी सत्ताएं और उनकी सारी व्यवस्थाएं। ये सत्ताएं चाहे राजनीतिक हों, सामाजिक हों या पारिवारिक, सभी ने अपनी रूढ़ियों के चलते कोई न कोई नुकसान नैतिकता को पहुंचाया ही है, जिसे हम सब आज भी भुगतने पर विवश हैं।

जरूरत है इन वर्षों की बेड़ियों को तोड़कर आने वाली पीढ़ी को नैतिक, ईमानदार और मजबूत बनाने की। आजादी के अमृत महोत्सव से इस शुभ कार्य की शुरुआत शुभ रहेगी।

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