दुनिया की आधी उपजाऊ मिट्‌टी खत्म, खाद्य असुरक्षा के मुहाने पर खड़े हैं हम

कबीर ने मिट्टी को लेकर जो बात कही थी वो आज पूरी तरह खरी उतर रही है। कबीर ने कहा था- ‘माटी कहे कुम्हार से तू क्या रौंदे मोहे, एक दिन ऐसा आएगा मैं रौदूंगी तोय।’ आज मिट्टी को लेकर विश्व भर में नए सिरे से चर्चाएं हो रही हैं। और इसी से संदर्भित 1 से 5 अगस्त तक फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन (एफएओ) ने वैज्ञानिक संगठनों से पांच दिवसीय बातचीत की पहल की है। यह प्रयास इसलिए हो रहे हैं क्योंकि मिट्टी का लगातार क्षरण हो रहा है, साथ में इसकी गुणवत्ता पर भी सवाल खड़े हुए हैं।

जब से उद्योग क्रांति शुरू हुई, हमने आधी से ज्यादा उपजाऊ मिट्टी खो दी। अब आप भरी बरसात में ही देखें कोई भी नदी-नाला ऐसा नहीं है, जो पीला ना हो। मतलब अमूल्य मिट्टी को हम सीधे समुद्र में बहा रहे हैं। यह वही मिट्टी है, जिससे हरित क्रांति आई। यह हमारे पेट-पानी से जुड़ी हुई है। मिट्टी के बदलते हालात के लिए भी हम ही दोषी हैं।

हम यह जान लें कि हमारे भोजन में 95% भागीदारी मिट्टी की ही है। हमें भोजन किसी भी रूप दिखता हो, चाहे वो गेहूं, दाल-चावल, सब्जियां हो, ये मिट्टी ही है जो विभिन्न रूपों में हमारी थालियों को सजाती है। आज यही मिट्टी एक बड़ा संकट झेल रही है। वैश्विक स्तर पर देखें तो 90% मिट्टी की गुणवत्ता में कमी आ चुकी है, वहीं इससे आने वाले समय में खाद्य असुरक्षा भी मुद्दा बन रही है।

असल में हमने मिट्टी को ठीक उसी तरह लिया जैसे हमने अन्य प्राकृतिक संसाधनों को लिया, जो मुफ्त में हमारे लिए उपलब्ध थे और उनकी ही तरह इसे भी बर्बाद कर दिया। अक्सर कहा जाता था ‘माटी के मोल’ पर अब मिट्टी के मोल वो नहीं रहे। ये अब अमूल्य है। आज जब रासायनिक खाद का प्रकोप बढ़ता चला जा रहा है और उससे उत्पन्न दुष्परिणाम सामने आ रहे हैं तो मिट्टी की यादें ताजा हो रही हैं।

आज दुनिया में 4 से 20 लाख से ज्यादा लोग सिर्फ इसलिए अपना जीवन खो देते हैं क्योंकि मिट्टी जहरीली हो चुकी है। इसकी गुणवत्ता जब घटने लगी तो बदले में रसायनों का बोलबाला शुरू हुआ। ग्लोबल असेसमेंट ऑफ सॉइल पॉल्यूशन की एक रिपोर्ट के अनुसार मिट्टी पर कई तरह के दबाव बढ़ते चले जा रहे हैं, जो उद्योगों, खेती-बाड़ी, खनन और प्रदूषण से जुड़े हैं।

इन सबमें सबसे बड़ी बात तो यह है कि जिस तरह से हम मिट्टी में रसायनों का उपयोग कर रहे हैं और उससे हेवी मेटल सायनाइड, डीडीटी व अन्य कीटनाशक मिट्टी को प्रदूषित करते चले जा रहे हैं। भारत भी दुनिया में तीसरे सबसे बड़े रासायनिक खादों के उपयोगकर्ता की श्रेणी में आता है।

भारत में करीब 165 छोटे-मोटे और बड़े रासायनिक खादों के उद्योग हैं, जो इस देश में कृत्रिम मिट्टी से भरपाई करते हैं। हम भूल गए कि सिंथेटिक केमिकल हज़ारों वर्षों तक किसी न किसी रूप में पर्यावरण को क्षति पहुंचाते हैं। एक बड़ी चिंता के रूप में यह बात भी उठी है कि हमारी रासायनिक खादों के उपयोग की क्या सीमा होनी चाहिए।

ऐसे हालात के परिदृश्य में एफएओ ने गंभीर कदम उठाते हुए कई देशों से इस ओर कार्रवाई की मांग की और एक ग्लोबल सॉइल पार्टनरशिप भी तय की ताकि सामूहिक रूप से मिट्टी से संबंधित मुद्दों को हल करने के लिए बड़े कदम उठाए जाएं और वैश्विक स्तर पर इस एजेंडे को ले जाने की कोशिश की जाए।

अब जब 83.3 लाख हेक्टेयर जमीन प्रभावित हो चुकी हो तो यह सवाल स्वतः उठेगा क्योंकि ये धरती का करीब 8.7% हिस्सा है। ऐसे में सबसे बड़े संकट के रूप में खाद्य असुरक्षा के मुद्दे खड़े होंगे। वैसे भी हमारी 20 से 50 फीसदी सिंचित भूमि का हिस्सा भी खराब हो चुका है। इसलिए अब मिट्टी की बहाली ही चुनौती है।

ये तो स्पष्ट है कि अगर मिट्टी ही दूषित और जहरीली होगी तो जीवन के उत्पन्न होने से लेकर हमारे पलने-पालने व मिटने तक हम जहर ही झेलेंगे। हमारा जीवन कष्टों में चला जाएगा। मिट्टी के प्रति नए तरीके से सोच-समझ की जरूरत है। इसमें बड़ी भूमिका सरकारों की ज्यादा हो सकती है, क्योंकि दुनिया की सरकारों की नीतियां ही रासायनिक उद्योगों को सब्सिडी देकर प्रोत्साहित कर रही हैं।

आज समय है कि हम इस तरह की सब्सिडी को जैविक खेती की तरफ ले जाएं ताकि छोटा और सीमांत किसान रसायन से तो मुक्त होगा ही, साथ में खुद जैविक खेती का नेतृत्व करेगा। अगर जान बचानी है तो मिट्टी की बेहतरी पर चिंतित हों। अब नहीं सोचा तो फिर हमें मिट्टी ही मिटाने से नहीं चूकेगी।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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