यह साफ है कि राष्ट्रीय सत्ता के लिए लड़ाई धर्म और राष्ट्रवाद के नाम ही पर लड़ी जाएगी

75वें स्वतंत्रता दिवस के साथ जोशीले राष्ट्रवाद पर दावे की होड़ भी जुड़ गई। कांग्रेस ने ‘हर घर तिरंगा’ पर मुद्दा उछाला कि तिरंगा खादी का हो या पॉलिएस्टर का। लेकिन भाजपा के अभियान का जवाब केवल केसीआर ने तेलंगाना में और ‘आप’ ने दिल्ली और कुछ दूसरी जगहों पर दिया। ‘आप’ का जवाब ज्यादा ठोस है क्योंकि कांग्रेस के अलावा वही अखिल भारतीय स्तर पर चुनौती देती दिख रही है। उसका प्रभाव फैल रहा है।

वह सड़कों पर उतरकर लड़ने के मामले में कांग्रेस से ज्यादा सक्षम भी दिख रही है। उसने ताड़ लिया कि राष्ट्रवाद पर दावे का अगला अध्याय तिरंगे को लेकर लिखा जाने वाला है। इसमें संख्या और आकार महत्वपूर्ण साबित होंगे। इसलिए उसने राजधानी को राष्ट्रध्वज के रंग में रंगने के लिए 500 स्थानों पर तिरंगा फहरा दिया। इन सबका आकार इतना बड़ा था कि वे दूर से भी ध्यान खींचते रहे। संदेश साफ था- हमारा झंडा तुम्हारे झंडे से बड़ा है!

तिरंगे को लेकर यह तकरार स्कूली लड़कों की दो ‘गैंग’ के बीच की लड़ाई जैसी नहीं है। तिरंगा विचारों के बीच नई टक्कर के लिए एक रूपक के समान है। मोदी की भाजपा ने 2013 के बाद अपनी राजनीति जिस मूल अवधारणा पर आधारित की, वह थी- धर्म और राष्ट्रवाद। इनका मेल अधिकतर लोकतांत्रिक देशों के लिए मारक साबित होता है, बशर्ते प्रतिद्वंद्वी दल इस पर ज्यादा प्रभावी दावा न कर लें।

हाल के वर्षों में कांग्रेस और ‘आप’ दोनों ने हिंदू धार्मिक भावनाओं पर भाजपा के एकाधिकार को चुनौती दी है। राहुल गांधी मंदिर-मंदिर घूमे, धार्मिक अनुष्ठान किए, उनके लोगों ने उनके जनेऊ और गोत्र के हवाले दिए। लेकिन यह सब प्रायः क्षमायाचना भाव से किया प्रतीत हुआ। मानो वे यह कह रहे हों कि देखो, मैं भी हिंदू हूं। इससे मोदी के लिए हिंदुओं का आकर्षण कम नहीं होता।

इससे सिर्फ इतना होता है कि मोदी की पार्टी को यह दावा करने का मौका मिल जाता है कि हमने तो कांग्रेस को भी देवी-देवताओं की याद दिला दी और उसे यह मानने को मजबूर किया कि राजनीति में हिंदू धर्म भी एक मुद्दा है। अरविंद केजरीवाल इस मामले में ज्यादा सफल रहे, भले ही इसके लिए उन्हें एक टीवी स्टूडियो जाते हुए मोबाइल से हनुमान चालीसा सुनकर उसे याद करना पड़ा, और एंकर पर हावी होने के लिए उसे यह चुनौती देनी पड़ी कि क्या उसे यह याद है।

और फिर उन्होंने खुद हनुमान चालीसा सुनाकर हिंदुओं को खुश करने की कोशिश की। इसके अलावा उन्होंने बुजुर्ग नागरिकों को तीर्थ स्थानों की मुफ्त यात्रा कराने की चतुर चाल भी चली। उनकी सरकार ने अपने एक विज्ञापन में उन्हें ‘श्रवण कुमार’ के रूप में पेश करके सब कुछ साफ कर दिया। वे हिंदू धर्म के इस्तेमाल का मुकाबला हिंदू धर्म के इस्तेमाल से कर रहे हैं।

बहुत चालाकी दिखाते हुए अब ‘आप’ गुजरात में इन्फ्रास्ट्रक्चर के निर्माण की खातिर मंदिरों को तोड़े जाने पर सवाल उठा रही है, भले ही वे मंदिर जबरन कब्जे वाली जमीन पर क्यों न बनाए गए थे। 2019 में मोदी ने अपना दूसरा राष्ट्रीय जनादेश हासिल किया, तब से तीन साल तक केजरीवाल ने उन पर सीधे हमले से परहेज किया। मोदी पर हमले प्रायः ‘आप’ के ‘ट्विटर वीरों’ की ओर से हो रहे थे। लेकिन पिछले कुछ सप्ताह से मोदी को लेकर केजरीवाल ने अपना ‘मौन व्रत’ तोड़ दिया है।

राजनीति में यह बिहार में आए नाटकीय मोड़ जितना ही महत्वपूर्ण है। बिहार ने सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले ‘मंडलवादियों’ को नई ऊर्जा प्रदान की है, और उन पुराने दिनों की वापसी की उनकी उम्मीद जगा दी है जब धर्म के नाम पर एकजुट हुए वोट को जाति के नाम पर तोड़ा जा सकता था।

फिलहाल इस बात का कोई प्रमाण नहीं दिख रहा कि बिहार राष्ट्रीय राजनीति पर वैसा ही असर डालेगा जैसा 1989-91 में (मंडल-कमंडल वाले मोड़ पर) या इससे पहले 1974-77 में जेपी आंदोलन के दौर में उसने डाला था। राष्ट्रीय सत्ता के लिए लड़ाई अभी भी धर्म (हिंदू वोट) और राष्ट्रवाद के नाम पर लड़ी जाएगी।

धर्म के मामले में आप बचाव की मुद्रा
में ही लड़ाई लड़ सकते हैं। राष्ट्रवाद अलग चीज है। इसको लेकर ‘आप’ और भाजपा के बीच रस्साकशी शुरू हो गई है, और इसे तिरंगे से झंडी दिखाई गई है। और क्या चाहिए?

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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