जब तक सच को नहीं पहचानेंगे, सत्ता की लाशें ऐसे ही ढोते रहेंगे

कहते हैं राजनीति झूठ का खेल है। जब तक आप सच को नहीं पहचानेंगे, झूठों के हाथ में खेलते रहेंगे। जहां तक राजनीतिक पार्टियों का सवाल है, वे अर्थियों की तरह हैं। जैसे अर्थी ढोते-ढोते एक कंधा थक जाता है तो हम कंधा बदल लेते हैं। लेकिन इससे अर्थी का भार कम नहीं हो जाता। वह उतना ही रहता है। कंधा बदलने से बस, थके हुए कांधे को आराम मिल जाता है और बिना थका कंधा आसानी से उस अर्थी के भार को सहन कर लेता है।

यही राजनीति में भी होता है। हम सत्ता बदलकर समझते हैं कि भार हल्का हो गया लेकिन ऐसा होता नहीं। राजनीति के झूठ या सच को पहचाने बिना कपटी नेताओं से निजात नामुमकिन है। खैर, बात झारखण्ड की है। वहां मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को चुनाव आयोग ने अयोग्य ठहरा दिया है। निर्णय राज्यपाल को लेना है। हफ्ता बीत चुका। वे पर्ची दबाए बैठे हैं। शायद किसी मौके की तलाश में हों। …कि कब सोरेन गुट कमजोर पड़े और कब पत्ते खुलें।

इसी डर की वजह से महागठबंधन यानी झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के 30, कांग्रेस के 16 और राजद का एक विधायक यहां-वहां घूम रहे हैं। घूम क्या रहे हैं, उन्हें घुमाया जा रहा है। अब सुना है उन्हें रायपुर लाया जा रहा है। हो सकता है पहंुच भी चुके हों। चूंकि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस का राज है इसलिए माना जा रहा है कि यहां उन्हें कोई खतरा नहीं होगा। सवाल यह है कि इन्हें खतरा किससे है?

दरअसल, किसी शक्तिशाली पार्टी से बचकर ये यहां-वहां भागते फिरते हैं लेकिन असल खतरा इन्हें खुद से ही होता है। मतलब विधायकों से इनकी ही पार्टियों को खतरा! पार्टियों को इतनों में से एक पर भी भरोसा नहीं होता। जाने कब, कौन, कितने में बिक जाए! जबकि यही सब, कल को राज्य मंत्री, काबीना मंत्री और जाने क्या-क्या बनने वाले होते हैं।

अंदाजा लगाया जा सकता है कि जो पैसों या पद के लिए किसी भी वक्त किसी के भी हाथों बिकने को तैयार हों, वे मंत्री बनकर या सरकार में कोई पद पाकर कितनी ईमानदारी से जनता की सेवा कर पाते होंगे! कहने को झारखण्ड में महागठबंधन के पास 47 विधायक हैं। यानी बहुमत से पांच ज्यादा। फिर भी उसे टूट का डर है। कि कहीं भाजपा का भूत आकर इनमें से कुछ का अपहरण न कर ले।

उधर भाजपा के पास सत्ता पाने का एक ही तरीका है। कांग्रेस के दो तिहाई यानी कम से कम दस विधायकों को तोड़ना। इसके बाद भी एक-दो की जुगाड़ और करनी पड़ेगी। हेमंत सोरेन को अयोग्यता की चिट्ठी अब तक न थमाने के मायने यही समझे जा रहे हैं कि भीतर ही भीतर कोई जुगाड़ भिड़ाई जा रही है। हालांकि राज्यपाल के पास यह अधिकार है कि वे अयोग्यता की चिट्ठी पर अपना निर्णय जब चाहें सुना सकते हैं।

मन हो तो न भी सुनाएं। लेकिन जब सोरेन के खिलाफ जांच में इतनी शीघ्रता दिखाई गई तो अब चुनाव आयोग का निर्णय आ जाने के बाद जाम क्यों लगा दिया गया है? हो सकता है राज्यपाल कानूनविदों से मंथन कर रहे हों, जो कि वे कर ही रहे होंगे। लेकिन ऐसा क्या मंथन? ऐसी कौन-सी सलाह, जो हफ्तेभर बाद भी पूरी नहीं हो पा रही है? खैर, यह सत्ता का खेल है। यानी झूठ का खेल।

जब तक जनता इसे नहीं पहचानेगी, यह इसी तरह चलता रहेगा। शक्तिशाली पार्टियां दूसरी पार्टियों के विधायकों को खरीदती रहेंगी। विधायक बिकते रहेंगे। झूठ का तिलस्म जागता रहेगा। फरेब की सत्ताएं बलवती होती रहेंगी और जो विधायक अब तक बिक नहीं पाए हैं, वे कीमतों की चकाचौंध से डरकर यहां-वहां भागते रहेंगे। कभी रांची, कभी रायपुर…।

यह सत्ता का खेल है। यानी झूठ का खेल। जब तक जनता इसे नहीं पहचानेगी, यह इसी तरह चलता रहेगा। शक्तिशाली पार्टियां दूसरी पार्टियों के विधायकों को खरीदती रहेंगी। विधायक बिकते रहेंगे।

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