मुलायम के बाद अखिलेश के सामने हैं पहाड़ जैसी चुनौतियां, कैसे रख पाएंगे जलवा कायम?
मुलायम सिंह के निधन के बाद अब अखिलेश के सामने पहली और सबसे बड़ी जिम्मेदारी अपने परिवार को एकजुट रखने की है. यही उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती है.
समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव दो दिन पहले दुनिया को अलविदा कह गए. मंगलवार को वो अपने पैतृक गांव सैफई में पंचतत्व में विलीन हो गए. मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश की सियासत के धुरंधर होने के साथ ही राष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान रखते थे. 1990 से लेकर अगले तीन दशकों कर उत्तर प्रदेश से लेकर देश की राजनीति में उनका जलवा कायम रहा. उनके दुनिया से रुखसत होने के बाद अब उनके पुत्र अखिलेश यादव के सामने पहाड़ जैसी कई चुनौतियां खड़ी हो गईं है. ऐसे में सवाल उठ रहे हैं कि क्या अखिलेश मुलायम का जलवा आगे भी कायम रख पाएंगे?
मुलायम सिंह यादव के निधन पर अखिलेश यादव को रोते बिलखते देखा गया. बाप का साया उठने का ग़म ही ऐसा होता है. लेकिन मुलायम सिंह सिर्फ अखिलेश यादव पिता ही नहीं बल्कि उनके राजनीतिक गुरु और संरक्षक भी थे. इन तीनों का साया एक साथ उठने के सदमे से अखिलेश यादव कुछ ज्यादा टूटे हुए दिखे. हालांकि अखिलेश ने अपने पिता को हटाकर सपा की कमान तो पूरी तरह 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले ही संभाल ली थी. लेकिन तब उन्हें अंदरूनी और बाहरी चुनौतियों से निपटने के लिए मुलायम सिंह यादव का साथ आशीर्वाद दोनों मिल रहे थे. इसी वजह से वो पारिवारिक कलह के बावजूद पार्टी पर अपना वर्चस्व कायम करने मं कामयाब हो पाए. लेकिन अब मुलायम सिंह के जाने का बाद अखिलेश का ये सहारा छिन गया है. अब उनके सामने कई चुनौतियां है, जिनसे उन्हें पार पाना है.
परिवार को एकजुट रखने की चुनौती
मुलायम सिंह के निधन के बाद अब अखिलेश के सामने पहली और सबसे बड़ी जिम्मेदारी अपने परिवार को एकजुट रखने की है. यही उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती है. समाजवादी पार्टी की सबसे बड़ी ताक़त मुलायम सिंह यादव के परिवार के कई सदस्यों का राजनीति में सक्रिय होना और पार्टी में बड़ी जिम्मेदारियों को निभाना है. मुलायम सिंह यादव परिवार के मुखिया थे. वो सभी भाइयों में सबसे बड़े थे. लिहाज़ा उनका हुक्म के सभी भाइयों और भतीजों के लिए सिर माथे पर था. मुलायम नें सभी को अपने निजी प्रयासों से राजनीति में स्थापित किया था, लिहाजा सभी उनका अहसान मानते थे और सम्मान करते थे. कई बर इनके बीच बीच तकरार और मनमुटाव होता रहता है. मुलायम सिंह ने सभी को एक धागे में बांध रखा था. अब वो नहीं है तो सभी आजाद हो गए हैं. इन्हें एकजुट रखना अखिलेश के लिए सबसे बड़ी चुनौती है.
परिवार में बिखराव की आशंका
एक समय मुलायम सिंह का परिवार देश का सबसे बड़ा राजनीतिक परिवार था.स्थानीय निकायों से लेकर उच्च सदन तक इस परिवार के 14 सदस्य थे. जब तरकल पार्टी की कमान मुलायम सिंह के हाथों में रही तब तक उनके परिवार का किसी सदस्य ने पार्टी से बगावत नहीं की. इसकी सबसे बड़ी वजह परिवार के मुखिया के तौर पर मुलायम की सर्वस्वीकार्ययता रही. मुलायम ने सभी के हितों का ख्याल भी रखा और उनका संरक्षण भी किया. लेकिन पार्टी की कमान अखिलेश के हाथों में आते ही परिवार की एकता दरकने लगी. सबसे पहले मुलायम से सबसे मज़बूत और भरोसेमंद रहे उनके भाई और अखिलेश के चाचा शिवपाल यादव ने 2017 मे ही बगावत कर दी थी. मुलायम भी लाख कोशिशों के बावजूद उन्हें अलग पार्टी बनाने से रोक नहीं पाए. 2022 के विधानसभा चुनाव में मुलायम की छोटी बहू अपर्णा देव ने पार्टी छोड़कर बीजेपी का दामन थाम लिया. मुलायम उन्हें भी रोकने में नाकाम रहे. अब मुलायम सिंह के नहीं रहने पर परिवार में बड़े बिखराव की आशंका है.
क्या परिवार में मुलायम का जगह ले पाएंगे अखिलेश
माना जा रहा है परिवार में बिखराव को रोकने के लिए अखिलेश को खुद मुलायम की जगह लेनी होगी. इसके लिए उन्हें मुलायम का तरह बड़ा दिल दिखाना होगा. परिवार मे बिखराव में की शुरुआत के लिए अखिलेश यादव को ही मुख्य रूप से जिम्मेदार माना जाता है. उन पर अपने चाचा शिवपाल यादव और अपर्णा देव की अनदेखी का आरोप है. इसी वजह से दोनों ने अपनी राहे जुदा की है. परिवार में की लोगों को इन दोनों से हमदर्दी है लेकिन मुलायम सिंह यादव के लिहाज की वजह से कोई मुंह नहीं खुलता था. अब ये लिहाज का पर्दा हट गया है तो कौन क्या कहेगा और क्या करेगा इस पर किसी का नियंत्रण नहीं होगा. पार्टी में अखिलेश से सीनियर उनके चाचा उनकी बात मानने को मजबूर नहीं होंगे. बल्कि वो चाहेंगे कि अखिलेश अपने पिता की तरह उन्हें सम्मान दें और तवज्जो से उनकी बातें सुनें, उन पर अमल करें. ऐसे में परिवार और पार्टी दोनों जगहों पर अखिलेश के लिए खुद को मुलायम की तरह बन उनका जलवा रख पाना सबसे बड़ी चुनौती है.
मैनपुरी की विरासत बचाने की चुनौती
मुलायम के निधन के बाद अब यूपी में अगले छह महीने के अंदर फिर से उपचुनाव के रास्ते खुल गए हैं. अब अखिलेश के सामने अपने पिता की इस विरासत को बचाने की सबसे बड़ी चुनौती मुंह बाए खड़ी है. उनके सामने सबसे बड़ा सवाल है कि मैनपुरी से मुलायम का सियासी वारिस किसे बनाया जाए. उपचुनाव में मैनपुरी की लोकसभा सीट जीतना अखिलेश के लिए बेहद जरूरी है. एक तो वो ऐसा करके खुद को अपने पिता के सच्चे वारिस के रूप में स्थापित कर पाएंगे. दूसरा इसलिए क्योंकि इस जीत से वो लगातार हार का सिलसिला तोड़ पाएंगे. छह महीने पहले हुए विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव आशानुरूप प्रदर्शन नहीं कर पाए. उसके बाद हुए विधान परिषद के चुनाव मे वो पार्टी को एक भी सीट नहीं जिता पाए. बाद में उनके और आजम खान के इस्तीफे से खाली हुई आजमगढ़ और रामपुर लोकसभा सीटें भी वो उपचुनाव में हार गए. अगर वो मैनपुरी सीट भी हार जाते है तो उनके राजनीतिक करियर के लिए ये सबसे बड़ा झटका होगा.
मैनपुरी में मुलायम के वारिस चुनने की चुनौती
सबसे बड़ा सवाल ये है आखिर मैनपुरी में मुलायम की विरासत संभालेगा कौन? दूसरा सवाल ये है क्या वो मैनपुरी की जनता से वही रिश्ता कायम कर पाएगा जो मुलायम का था.. मुलायम की मैनपुरी और मैनपुरी के मुलायम. यी वो रिश्ता था, जो नेताजी और उनकी सियासी कर्म भूमि मैनपुरी ने आखिरी सांस तक निभाया. मुलायम ही इटावा जिले में पैदा हुए हों, लेकिन उनकी कर्म-भूमि हमेशा मैनपुरी ही रही. मैनपुरी में मुलायम सिंह यादव की सियासत ऐसी थी कि 1989 से आज तक लोकसभा चुनाव में कोई भी मुलायम या उनके चुने हुए प्रत्याशी को शिकस्त नहीं दे पाया. 1996 में मैनपुरी से ही पहली बार लोकसभा का चुनाव जीतकर मुलायम सिंह यादव केंद्र सरकार में रक्षा मंत्री भी बने थे. 2019 में आखिरी बार खुद नेताजी ने मैनपुरी सीट से लोकसभा का चुनाव लड़ा और जीता. वर्तमान में वह मैनपुरी सीट से सांसद थे.
मुलायम की विरासत खुद संभालेंगे अखिलेश
मैनपुरी में मुलायम के राजनीतिक वारिस का चुनाव अखिलेश के सामने फौरी तौर पर सबसे बड़ी चुनौती है. भारतीय संस्कृति में बाप की विरासत बेटा ही संभालते है. तो क्या माना जाए कि अखिलेश खुद मैनपुरी से लोकसभा का उपचुनाव लड़कर अपने पिता की राजनीतिक विरासत संभालेंगे? ये फैसला करना अखिलेश के लिए बहुत तलवार की धार पर चलने जैसा है. ऐसे में ये सवाल पैदा होता है कि अगर वो मुलायम सिंह की जगह केंद्र क सियासत करेगें तो फिर यूपी में वो किसे कमान सौंपने? ये फैसला करना अखिलेश के लिए बड़ा चुनौती है. वैसे मैनपुरी मे मुलायम के वारिस के तौर पर अखिलेश के पास रामगोपाल यादव सबसे उपयुक्त नाम है. रामगोपाल मुलायम की छोड़ी सीट पर पहले भी एक बार संभल से चुनाव लड़कर जीत चुके हैं. उनके अलावा धर्मेंद्र यादव, डिंपल यादव और तेजप्रताप यादव को भी चुनाव लड़व सकते हैं. 2104 में मुलायम सिंह ने तेजप्रताप को यहां से उपचुनाव लड़ाया था.
मुलायम की विरासत एम-वाई समीकरण को साधने की चुनौती
अखिलेश यादव के सामने मुलायम की तरह लंबी सियासी पारी खेलने के लिए पार्टी के जिताऊ एम-वाई यानि मुस्लिम-यादव समीकरण को साथ लेकर चलने की जिम्मेदारी भी है. इसी सियासी समीकरण और वोट बैंक के सहारे मुलायम सिंह ने खुद को सूबे से लेकर केंद्र तक की सियासत में स्थापित किया. इसी समीकरण के सहारे मुलायम सिंह ने अपनी पार्टी के झंडे और निशान तले 1993 के पहले चुनाव से लेकर 2012 में पूर्ण बहुमत हासिल करके जलवा कायम रखा था. अब बसपा से लेकर असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम और कांग्रेस इस वोट बैंक में सेंध मार चुकी हैं. इस वजह से अब अखिलेश के सामने ये चुनौती है की वो अपने इस वोट बैंक को बचा के रखे. नहीं तो भविष्य के चुनावों में उन्हें नुकसान झेलना पड़ सकता है. मुलायम के कायम किए गए जलवे को आगे बढ़ाना अखिलेश के लिए बड़ा चुनौती है
दरअसल साल 2007 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने नारा दिया था, जिसका जलवा कायम है, उसका नाम मुलायम है. लेकिन सच्चाई ये है कि उस चुनाव में ये जलवा कायम नहीं रह पाया था. मायावती की बसपा के हाथों बुरी तरह हार कर वो यूपी की सत्ता से बाहर हो गए थे. लेकिन 2012 में उन्होंने बसपा की सत्ता हराकर 225 सीटों के साथ प्रचंड बहुमत हासिल करके पिछली हार का बदला लिया था. 2012 में अपने बेटे अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनाकर ये बड़ा जनादेश उनके हवाले कर दिया था. लेकिन 2017 और 2022 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश कोई जलवा नहीं दिखा पाए. 2022 के विधानसभा चुनाव में बनाए अपने ही गठबंधन को वो कायम नहीं कर पाए. बाद में हुए विधान परिषद के चुनाव और लोकसभा के उपचुनाव में भी उनके नेतृत्व में पार्टी एक भी सीट नहीं जीत पाई. इसी ले सवाल उठ रहे है कि क्या मुलायम के बाद अखिलेश उनकी विरासत को उन्हीं के जलवे के मुताबिक संभालकर उसे आगे बढ़ा पाएंगे?