भारत में मैन्युफेक्चरिंग क्षेत्र से जुड़ी नौकरियों में कम वेतन मिलना चिंता का कारण है

इस बात पर लगभग सभी सहमत हैं कि व्यापक अवसरों का नया दौर भारत के सामने उपस्थित हो गया है। इसका इससे कोई सम्बंध नहीं है कि भारत दुनिया का सबसे ज्यादा आबादी वाला देश बन गया है या उसे जी-20 की अध्यक्षता मिल गई है। इसमें आर्थिक, भू-राजनीतिक सहित अनेक फैक्टर्स जुड़े हैं। सरकार का महत्वाकांक्षी एजेंडा भी इसका मुख्य कारण है।

आज दुनिया की मैन्युफेक्चरिंग कम्पनियां चीन का विकल्प तलाशने लगी हैं। ‘चाइना प्लस वन’ रणनीति का लाभ भारत और वियतनाम को पहले ही मिलने लगा है। ग्लोबल मैन्युफेक्चरिंग कम्पनियां दूसरे देशों में विकल्पों की तलाश कर रही हैं। यही कारण है कि एप्पल के तीन ताईवानी सप्लायर्स को भारत सरकार के उन इंसेंटिव से लाभ मिला है, जिनके तहत देश में स्मार्टफोन की मैन्युफेक्चरिंग को बूस्ट दिया जाना है।

आज जब अमेरिका, चीन और यूरोप के अधिकतर देश धीमी विकास दर से जूझ रहे हैं, तब वे भारत की ओर आशाभरी नजरों से देख रहे हैं। उन्हें उम्मीद है कि भारत एक ऐसी ताकत के रूप में उभरेगा, जो दुनिया की इकोनॉमी को आगे बढ़ा सकता है।

भारत पहले ही दुनिया के उन तीन देशों में शामिल हो चुका है, जो एन्युअल आउटपुट ग्रोथ में 400 अरब डॉलर से ज्यादा की राशि जनरेट कर सकते हैं और अनुमान लगाए जा रहे हैं कि मौजूदा दशक में भारत दुनिया की 20 प्रतिशत आर्थिक वृद्धि को ड्राइव करेगा। भारत के प्रति दुनिया की उम्मीदों का एक बड़ा कारण बुनियादी ढांचे के क्षेत्र में उसके द्वारा की गई तरक्की है।

नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से राष्ट्रीय राजमार्गों के नेटवर्क में 50 प्रतिशत से अधिक की बढ़ोतरी हो चुकी है और घरेलू हवाई ट्रैफिक दोगुना हो गया है। डिजिटल पर जोर देने के कारण राजस्व का लीकेज न्यूनतम हो गया है और सुप्रशासन सुचारु कायम हुआ है। आरम्भिक परेशानियों के बाद जीएसटी भी स्थिर हो गया है और सरकार के कर राजस्व-संग्रह में उसके कारण तेजी से बढ़ोतरी हुई है।

कहते हैं कि चीनी भाषा में अपॉर्चूनिटी शब्द का एक अन्य मतलब खतरा भी होता है। यह भारत के लिए भी सही है। रास्ते में चुनौतियां और मुश्किलें कम नहीं हैं। हमें याद रखना चाहिए कि सरकार का मेक इन इंडिया कार्यक्रम वांछित परिणाम देने में सफल नहीं रहा है। लक्ष्य रखा गया था जीडीपी का 25 प्रतिशत हिस्सा मैन्युफेक्चरिंग से प्राप्त करना, लेकिन 2021 तक 14 प्रतिशत के आंकड़े तक ही पहुंचा जा सका है।

वैसे भी अकेली मैन्युफेक्चरिंग की हिस्सेदारी बढ़ाने से बात नहीं बनेगी। आईआईएम अहमदाबाद और जॉब सर्च कम्पनी मॉन्स्टर इंडिया की 2017 की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत में मैन्युफेक्चरिंग क्षेत्र- जैसे ऑटोमोबाइल, फार्मा, केमिकल्स, मेटल्स, सीमेंट, रबर, इलेक्ट्रिकल मशीनरी आदि से जुड़ी नौकरियों में बहुत कम वेतन मिलता है। चीन में कृषि क्षेत्र से निर्माण क्षेत्र की ओर जैसा ट्रांजिशन हुआ था, वैसा भारत में होना अभी तक शेष है। गांवों में रहने वाले करोड़ों भारतीयों को मैन्युफेक्चरिंग से अभी तक ऊंची आय वाली नौकरियां नहीं मिल सकी हैं।

आज देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती युवाओं को रोजगार मुहैया कराना है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के आंकड़े बताते हैं कि भारत की 90 करोड़ की कार्यक्षम आबादी का एक बड़ा हिस्सा तो नौकरियों की तलाश भी नहीं कर रहा है। महिलाओं की स्थिति और बुरी है। पात्र महिलाओं में से केवल 9 प्रतिशत ही काम कर रही हैं या काम की तलाश कर रही हैं।

भारत की लेबर सहभागिता दर में गिरावट चिंता का सबब है। अगर भारत को अपनी जनसांख्यिकीय स्थिति का लाभ उठाना है तो उसे लेबर सहभागिता की स्थिति को सुधारने के साथ ही 2030 तक कृषि क्षेत्र के अलावा 9 करोड़ नई नौकरियों का भी सृजन करना होगा।

यानी हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती बुनियादी ढांचे या फैक्टरियों की नहीं, बल्कि हमारी युवा आबादी को काम पर लगाने की है। 30 साल से कम आयु वाली 50 प्रतिशत आबादी का तब तक कोई लाभ नहीं मिलेगा, जब तक कि युवा आबादी को पर्याप्त शिक्षा और काम के लिए स्किल्स नहीं मिलेंगी।

भारत की 90 करोड़ कार्यक्षम आबादी का बड़ा हिस्सा नौकरियों की तलाश भी नहीं कर रहा है। महिलाओं की स्थिति और बुरी है। पात्र स्त्रियों में से केवल 9 प्रतिशत ही काम कर रही हैं या काम की तलाश कर रही हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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