जब संसद में विपक्षी सांसदों की आवाज दबाने की कोशिशें की जाती हों, तब वे क्या करें?
हाल के समय में विशेषाधिकार प्रस्ताव खबरों में रहे हैं। केंद्रीय संचार, रेलवे, बिजली और सूचना-प्रौद्योगिकी मंत्री ने हाल ही में तब विशेषाधिकार प्रस्ताव का उल्लंघन कर दिया, जब उन्होंने कुछ गोपनीय ब्योरों को उजागर कर दिया।
उन्होंने बताया कि पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन बिल पर संसद की स्टैंडिंग कमेटी की बैठक में क्या हुआ था। एक अन्य मामले में वायनाड के कांग्रेस सांसद के विरुद्ध लोकसभा में झारखंड के भाजपा सांसद द्वारा विशेषाधिकार प्रस्ताव लाया गया। यह प्रस्ताव उन 12 सांसदों के विरुद्ध भी चाहा गया था, जिन्होंने बजट सत्र के पहले चरण के दौरान कथित रूप से अनुचित व्यवहार किया था।
एक राज्यसभा सांसद को निलम्बित कर दिया गया और उनके विरुद्ध भी विशेषाधिकार प्रस्ताव लाया गया, क्योंकि उन्होंने कथित रूप से अपने स्मार्टफोन पर सदन के भीतर चल रही कार्रवाइयों को रिकॉर्ड कर लिया था। राज्यसभा बुलेटिन के मुताबिक सदन के सभापति ने आम आदमी पार्टी के एक सांसद के विरुद्ध भी विशेषाधिकार प्रस्ताव लाना चाहा था। कारण बड़ा अजीब था। वे बारम्बार एक जैसे नोटिस सबमिट कर रहे थे! जबकि यह आम बात है।
आखिर ये विशेषाधिकार प्रस्ताव होते क्या हैं? संविधान संसद के दोनों सदनों और उनके सदस्यों को कुछ विशिष्ट अधिकार देता है, ताकि वे अपना कार्य सुगमता से कर सकें। जब इन अधिकारों-सुविधाओं का उल्लंघन किया जाता है तो इसे विशेषाधिकार का हनन कहा जाता है।
ऐसे में संसद को विशेषाधिकार प्रस्ताव पारित करवाकर उल्लंघनकर्ता को दंडित करने का अधिकार है। विशेषाधिकार के हनन का प्रश्न कैसे उठाया जाता है? राज्यसभा में यह प्रश्न या तो किसी सांसद के द्वारा उठाया जा सकता है, या दुर्लभतम मामलों में पीठासीन अधिकारी खुद ऐसा कर सकता है।
यह सदन में विचारणीय हो सकता है या इसे विशेषाधिकारों के परीक्षण के लिए गठित समिति को भेजा जा सकता है। गौरतलब है कि राज्यसभा की वेबसाइट पर विशेषाधिकार-समितियों की 70 उपलब्ध रिपोर्ट्स में से 66 ऐसी हैं, जिनमें विशेषाधिकार-हनन का प्रश्न किसी सांसद के द्वारा उठाया गया था। चार ही मामले ऐसे हैं, जिनमें सभापति ने स्वविवेक से इसे संदर्भित किया। इसकी तुलना पिछले महीने हुई घटनाओं से करें, जिनमें सभापति ने विशेषाधिकार सम्बंधी तीन प्रश्न स्वयं ही प्रस्तुत किए थे।
यहां बड़ा प्रश्न यह है कि जब संसद में विपक्षी सांसदों की आवाज दबा दी जाए, जब उनके माइक्रोफोन म्यूट कर दिए जाएं, संसद टीवी को सेंसर कर दिया जाए और स्पीच से वाक्य और कभी-कभी तो पूरे पैराग्राफ ही हटा दिए जाएं, तब वे क्या करें? जब जनप्रतिनिधियों को ही जनता के मामलों को उठाने की इजाजत नहीं दी जाएगी तो क्या उन्हें प्रतिरोध व्यक्त करने के लिए नए तरीकों की खोज नहीं करनी चाहिए?
इस बारे में भाजपा के दो कद्दावर नेताओं सुषमा स्वराज और अरुण जेटली ने कुछ विचार व्यक्त किए थे। सुषमा स्वराज ने कहा था कि संसद को काम नहीं करने देना भी लोकतंत्र का एक स्वरूप है। वहीं अरुण जेटली ने कहा था कि कुछ अवसर ऐसे होते हैं, जब संसद में गतिरोध से देश का भला होता है। हमारी रणनीति हमें सरकार को बिना किसी जिम्मेदारी के संसद का इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं देती।
फरवरी में बजट सत्र के पहले चरण में विपक्ष ने मांग की थी कि एलआईसी-एसबीआई फंड्स के अदाणी कम्पनियों द्वारा दुरुपयोग के मामले की जांच कराई जाए। यह एक वैध संसदीय नीति थी। फिर प्रतिरोध करने वाले सांसदों के विरुद्ध विशेषाधिकार प्रस्ताव लाने की क्या तुक है?
विशेषाधिकार समितियों की आरम्भिक रिपोर्टों के मुताबिक इस तरह के गतिरोध संसदीय-विशेषाधिकारों के तहत नहीं आते हैं। समिति ने पाया है कि सदन में गतिरोध उत्पन्न करने वाले सदस्यों की मंशा किसी अन्य सदस्य को बोलने से रोकने की नहीं थी, न ही वे सभापति की वैधता को चुनौती दे रहे थे।
वे केवल एक मसले पर अपने असंतोष को जाहिर कर रहे थे, क्योंकि उसे केंद्र सरकार द्वारा गम्भीरता से नहीं लिया जा रहा था। भाजपा के सदस्यों को न तो कभी सीबीआई-ईडी द्वारा निशाना बनाया जाता है, न ही भाजपा सांसदों की विशेषाधकिार समिति के द्वारा कभी जांच की जाती है। अगर ऐसा नहीं होता तो केंद्रीय आईटी मंत्री को गोपनीय सूचनाएं उजागर करने के लिए क्यों विशेषाधिकार नोटिस नहीं दिया गया?
आज संसदीय विशेषाधिकार ही नहीं, भारतीय राजनीति के हर आयाम में दो तरह के नियम लागू कर दिए गए हैं। विपक्षी दलों के लिए भिन्न नियम हैं और सत्तारूढ़ पार्टी के सदस्यों के लिए कुछ और।
डेरेक ओ ब्रायन लेखक सांसद और राज्यसभा में टीएमसी के नेता हैं ….