जन-जन तक पहुंचाए ग्रंथ और प्रामाणिक सद्साहित्य ..!

गीता प्रेस को गांधी शांति पुरस्कार ..!

उचित तो यह होता कि गीता प्रेस की शताब्दी का आयोजन बड़े पैमाने पर किया जाता

भारतीय समाज, संस्कृत और सनातन धर्म के लिए विगत एक शताब्दी में गीता प्रेस, गोरखपुर ने अनुपम और अद्वितीय सेवा कार्य किया है। अप्रेल, 1923 में गीता प्रेस की स्थापना सेठ जयदयाल गोयन्दका ने की थी। समाज कल्याण की कामना और सनातन धर्म का सद्साहित्य कम मूल्य के साथ शुद्ध और प्रामाणिक पाठ के साथ सर्वसाधारण को सुलभ कराने के उद्देश्य से गीता प्रेस आरंभ हुई थी। इस वर्ष गीता प्रेस ने अपने सार्थक जीवन के एक सौ वर्ष पूरे कर लिए हैं। इस अवधि में गीता प्रेस ने विश्व के सबसे बड़े प्रकाशकों में स्थान बनाया है। गीता प्रेस ने सनातन धर्म के प्रमुख ग्रंथों- गीता और रामचरितमानस तथा वेद, पुराण, उपनिषद आदि की पचास करोड़ से अधिक प्रतियां प्रकाशित की हैं। ये ग्रंथ भारत के कोने-कोने में करोड़ों घर-परिवारों में श्रद्धाभाव के साथ पढ़े और सहेजे जाते हैं। गीता प्रेस कई भाषाओं में ग्रंथों का प्रकाशन करता है। प्रकाशन के इस विपुल परिमाण के साथ ही एक तथ्य यह है कि प्रकाशन-विक्रय-वितरण का कार्य व्यावसायिक भावना से सर्वथा परे है।

अगस्त, 1926 में सत्संग भवन, मुंबई ने मासिक पत्रिका ‘कल्याण’ का प्रकाशन आरंभ किया। कुछ ही अंकों के पश्चात गीता प्रेस ने मुद्रण-प्रकाशन का दायित्व संभाल लिया। भाईजी के नाम से प्रसिद्ध हनुमान प्रसाद पोद्दार ने संपादक का दायित्व ग्रहण किया। ‘कल्याण’ के भवितव्य का पथ-प्रदर्र्शन करते हुए महात्मा गांधी ने सीख दी थी- ‘कल्याण’ में दो नियमों का पालन करना- बाहरी कोई विज्ञापन नहीं देना है तथा पुस्तकों की समालोचना नहीं करनी है।’ विज्ञापन न छापने के संबंध में उन्होंने समझाया था कि ‘तुम अपनी जान में पहले-पहले देखकर विज्ञापन लोगे कि वह किसी ऐसी चीज का न हो, जो भद्दी हो और जिसमें जनता को धोखा देकर ठगने की बात हो। पर तुम्हारे पास विज्ञापन आने लगेंगे और लोग उनके लिए अधिक पैसे देने लगेंगे तो तुम चाहे विरोध करोगे, पर तुम्हारे साथी व्यवस्थापक लोग कहेंगे कि देखिए, इतना पैसा आता है, क्यों न यह विज्ञापन स्वीकार कर लिया जाए? बस, पैसे का प्रलोभन आया कि फिर जनता के लाभ-हानि की बात एक ओर रह जाएगी। अतएव आरंभ से ही यह नियम बना लो कि किसी भी दर से बाहरी विज्ञापन नहीं लेना है।’ समालोचना के संबंध में उन्होंने आगाह किया था कि, ‘जो लोग समालोचना के लिए अपनी पुस्तकें तुम्हारे पास भेजेंगे, उनमें से अधिकांश इसलिए भेजेंगे कि तुम्हारे पत्र में उनके ग्रंथ की प्रशंसा निकले। यथार्थ समालोचना कराने के लिए अपनी पुस्तक भेजें, ऐसे बहुत कम लोग होते हैं। ऐसी स्थिति में पुस्तकें चाहे जैसी हों, या तो उनकी झूठी प्रशंसा करनी होगी या उन साहित्यकारों, लेखकों से झगड़ा मोल लेना पड़ेगा।’ ‘कल्याण’ आज भी इसी नीति पर चल रहा है।

‘कल्याण’ के प्रवेशांक (अगस्त, 1926) में ‘भक्ति, ज्ञान, वैराग्य और धर्म संबंधी मासिक पत्र’ की उद्घोषणा अंकित की गई। महात्मा गांधी का लेख ‘स्वाभाविक किसे कहेंगे?’ प्रकाशित किया गया। इस लेख में गांधी जी लिखते हैं, ‘इस हिंसामय संसार में मनुष्य का धर्म अहिंसा है और जितने अंशों में वह अहिंसक है, उतने ही अंशों में वह अपनी जाति को शोभा दे सकता है। वे कहते हैं, ‘अहिंसा का पालन बड़े उच्च प्रकार की वीरता का लक्षण है। अहिंसा में कायरता के लिए कहीं भी स्थान नहीं हो सकता है।’

इससे समझा जा सकता है कि पोद्दार और कल्याण के लिए महात्मा गांधी और उनकी सीख का कितना महत्व था। भाईजी हनुमानप्रसाद पोद्दार और गीता प्रेस का एक और महत्वपूर्ण अवदान है, देवी-देवताओं के चित्रों की एकरूपता। इससे छवियों की मनमानी थमी और मानक छवि की सार्वभौम पहचान स्वीकारी गई।

उचित तो यह होता कि गीता प्रेस की शताब्दी का आयोजन बड़े पैमाने पर किया जाता और इस माध्यम से उसके ज्ञानयज्ञ की आभारपूर्वक चर्चा की जाती। गोयन्दका और पोद्दार के कालजयी अवदान का स्मरण किया जाता। तब यह समाज की कृतज्ञता का भी परिचायक होता। ज्ञातव्य है कि जब भारत सरकार ने अतिविशिष्ट अवदान करने वाली विभूतियों को भारत रत्न और पद्म अलंकरण से सम्मानित करने का संकल्प लिया, तब तत्कालीन राष्ट्र्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद की पहल पर गृह मंत्री गोविंद वल्लभ पंत पोद्दार जी के पास यह अनुरोध लेकर पहुंचे कि भाईजी ‘भारत रत्न’ अलंकरण स्वीकार कर लें। परंतु सेवाव्रती भाईजी हनुमान प्रसाद पोद्दार ने व्यक्ति पूजा को अमान्य करने के सिद्धांत के अनुपालन में विनम्रतापूर्वक प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया।

भारत सरकार ने गीता प्रेस को वर्ष 2021 के ‘गांधी शांति पुरस्कार’ से सम्मानित करने की घोषणा की है। शताब्दी वर्ष में यह गीता प्रेस की यशस्वी सेवाओं का समुचित मूल्यांकन और सार्वजनिक स्वीकार है। गीता प्रेस ने सम्मान तो स्वीकार कर लिया है, परंतु सम्मान की राशि- एक करोड़ रुपए लेने से मना कर दिया है, क्योंकि उनकी परंपरा बाहर से कोई अनुदान अथवा पुरस्कार ग्रहण करने की नहीं है। कम लागत के कारण गीता प्रेस पर जो आर्थिक बोझ आता है, उसकी प्रतिपूर्ति के लिए भी गोयन्दका ने अपने उद्यम से व्यवस्था कर दी। गीता प्रेस को ‘गांधी शांति पुरस्कार’ की घोषणा होते ही एक वर्ग ने विवाद शुरू कर दिया। गीता प्रेस की तुलना महात्मा गांधी के हत्यारे गोडसे से कर डाली। यह सर्वथा अवांछनीय और अपमानजनक प्रतिक्रिया है। ऐसी अनर्गल टिप्पणियों से परहेज करना चाहिए। कोई भी समझदार भारतीय इसे स्वीकार नहीं कर सकता।

भारत सरकार ने गीता प्रेस को वर्ष 2021 के ‘गांधी शांति पुरस्कार’ से सम्मानित करने की घोषणा की है। शताब्दी वर्ष में यह गीता प्रेस की यशस्वी सेवाओं का समुचित मूल्यांकन और सार्वजनिक स्वीकार है।

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