चुनावी मौसम- तीन राज्यों में मुफ्त की रेवड़ियों की बाढ़ !
राजनीति:चुनावी मौसम- तीन राज्यों में मुफ्त की रेवड़ियों की बाढ़
मैदानों में बारिश के अते- पते नहीं हैं और सावन बीता जा रहा है। उधर हिमाचल में जो बादल गीले पैरों पर चलते-चलते सामने वाली पहाड़ी के कंधों पर बिखरी हुई धूप चुना करते थे, वही बादल अब पहाड़ों पर फट पड़े हैं। इन पहाड़ी इलाक़ों में नदियाँ अपना रास्ता बदल रही हैं।
उन रास्तों पर लोगों ने जो घर बांधे थे, वे ज़मींदोज़ हो रहे हैं। लोगों के रहने का ठिकाना नहीं रहा। उनका माल- असबाब सब बिखरकर नदी के साथ हो लिया और हम मैदानी इलाक़ों वाले, दूर बैठकर केवल उस तबाही के दृश्य भर देखने पर विवश हैं। मैदानी इलाक़ों में आएँ तो वही बादल भूरे पड़ चुके हैं। लग रहा है जैसे उनके मुँह पर कोई हल्दी पोत गया है।
मौसम से याद आया, इधर कुछ राज्यों में भर सावन में एक अलग ही मौसम आ पड़ा है। चुनावी मौसम। नूंह हो या कोई और इलाक़ा, सुनसान-सी एक हवा बह रही है। हर तरफ़। सांय- सांय। ये हवा सारे शहर को बयां करती फिरती हैं। सबको तलाश है। सबको कसक है। दर्द की जड़ को खोजने की। दर्द तो दिखता है। यदा-कदा। यहां-वहाँ। लेकिन इसकी जड़ दिखाई नहीं देती।
इस चुनावी मौसम में वो माहौल हवा हो जाता है जो कभी हमें गुदगुदाता था। सुबह की नाज़ुक धूप जैसे दरिया के पानी पर गिरती थी! हल्की सुस्त सी हवा, शाख़- शाख़ पौधों को जगाती थी। जब दौड़ते थे दरिया, समुंदरों की तरफ़, काले आसमान में जब सितारे चटखते थे, हर किसी की आँखों में रोशनी जाग जाती थी।
ये सब बातें अब केवल ख़्यालों में रह गईं हैं। चुनाव होते ही ऐसे हैं। हर तरफ़ एक अजीब सी तपन। एक चीख। एक पुकार। तम और ग़म भरे बादलों की तरह। जैसे बारिश वाले बादल मैदानी इलाक़ों में सुस्त और सुप्त पड़े हैं, वैसे ही राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी लोग यानी आम मतदाता सुस्त ही हैं।
कोई उनकी रुचि या प्रसन्नता नहीं देख रहा। केवल नेता लोग तीव्रता की हद तक सक्रिय हो चुके हैं। कुछ राजनीतिक दलों ने तीन महीने पहले ही कुछ टिकट जारी कर दिए हैं। नेताओं की सक्रियता का ये भी बड़ा कारण है।
कोई मौजूदा प्रत्याशी का विरोध कर रहा है। कोई दूसरे का टिकट कटवाकर अपने लिए संघर्ष में जुट गया है। पता है कुछ बदलने वाला नहीं है। फिर भी लगे हैं संघर्ष में। यह सोचकर कि आख़िर प्रयास तो किए ही जा सकते हैं। इससे भला कोई किसी को कैसे रोक सकता है?
टिकटों के विरोधों को देखकर लगता है कांग्रेस की शैली अब भाजपा में भी आ चुकी है। दरअसल जो भी राजनीतिक दल बड़ा हो जाता है, कांग्रेस के गुण उसमें आ ही जाते हैं। एक जमाना था जब कांग्रेस में बग़ावती सुर यहाँ-वहाँ पसरे रहते थे, लेकिन भाजपा में ऐसा नहीं होता था। अब माहौल बदल चुका है।
किसानों के खेतों में जैसे सोयाबीन की फसल पक रही है वैसे ही वोटों की फसल पकाने की तैयारियाँ चल रही हैं। जैसे मधुमक्खियाँ अपने पंखों की छाँह में शहद पकाती हैं, क्या राजनीतिक पार्टियाँ, क्या नेता, हर कोई अपने हिस्से की फसल पकाने में जुटे हुए हैं। हर शहर, हर क़स्बा, हर गाँव चुप है। केवल नेता बोल रहे हैं।
जहां तक आम आदमी का सवाल है- वह अपने रोज़ाना के संघर्ष में लगा हुआ है। एक अजीब सी चुप्पी साधे सब कुछ देख तो रहा है, लेकिन रोज़ के कामों से फुर्सत नहीं है। सारे चौकों के बर्तन धुले हैं या नहीं? चूल्हे की आख़िरी राख भी बुझ चुकी है या नहीं? वो अपने ही वजूद की आँच के आगे, औचक हड़बड़ी में, खुद को ही सानता, खुद को ही गूंथता, खुश है कि रोटी बेली जा रही है।
ख़ुश है कि दो वक्त का इंतज़ाम हो चुका है। किसी नेता, किसी पार्टी को उसकी फ़िक्र पूरे पाँच साल से नहीं थी। लेकिन चुनाव के वक्त इस सूखे से सावन में भी अचानक सुविधाओं की बाढ़ आ चुकी है। गैस सिलेण्डर नाम मात्र के दाम पर। हर महीने मुफ़्त की रेवड़ी। कहीं पैसे के रूप में। कहीं मोबाइल फ़ोन या इसी तरह की अन्य सुविधा के रूप में।
अगर कोई सुकून है तो सिर्फ़ इतना कि चंद्रमा पर हमारा अभियान सफल हो चुका है। विक्रम और प्रज्ञान दो भाई मिलकर नई-नई सूचना दे रहे हैं। … इस बीच हम अब सूरज का अध्ययन करने के लिए भी यान भेज रहे हैं। वही सूरज जिसके उगने से हमारा बहुत कुछ उदित होता है और जिसके डूबने से हमारा बहुत कुछ डूब जाता है। हो सकता है सूरज के अध्ययन से बहुत कुछ नया निकले।