संसाधनों की चिंता किसको?

मारे देश को स्वतंत्र हुए 75 वर्ष हो गए किन्तु कई क्षेत्रों में हमारे कामकाज के ढंग नहीं बदले, कई जगह सत्ताबल के सहारे स्वार्थपरक गलियां निकाल ली गईं। भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े छेद, बड़ी-बड़ी विकास की नावों में कर डाले। बजरी खनन, सीमेंट फैक्ट्रियों का नीचे की श्रेणी में नियमन, खानों और जंगलों की परिभाषा का खेल! सड़कें बनाने के नाम पर गांवों को उजाड़ कर पेड़ों और पक्षियों की निर्मम हत्या, मादक पदार्थों-हथियारों की तस्करी को खुला बढ़ावा देने जैसे कार्यों से धर्मग्रंथों की सौगंध खाने वाले हमारे अधिकारी और जनप्रतिनिधि मिलकर क्षुद्र स्वार्थों के चलते जनता के विश्वास की हत्या करते हैं। जनता के धन से पेट पालने वाले, जनता की ‘सेवा’ करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ते। अपना स्वार्थ पहले, राष्ट्रीय संप्रभुता फाइलों में।

पिछले दिनों माननीय उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ से अनौपचारिक संवाद का सुअवसर प्राप्त हुआ। उनकी बातचीत का केन्द्रीय मुद्दा था- राष्ट्रीय सम्प्रभुता। राजनीति और स्वार्थ इस पर अतिक्रमण कर बैठे। उनका कहना था कि विश्व में कई देश हैं- चीन और जापान जैसे जो अपने प्राकृतिक संसाधनों को देश से बाहर नहीं जाने देते। हमारे यहां पाराद्वीप चले जाओ, कोई रोक नहीं। बिना अनुमति के कच्चा माल निर्यात ही नहीं होना चाहिए। ओडिशा-झारखण्ड जहां प्राकृतिक संसाधन प्रचुर मात्रा में हैं, वहां लोग सबसे गरीब हैं। विदेशी बड़े उद्यमी आते हैं, लंबी अवधि के समझौते कर जाते हैं। उनकी एक शर्त यह भी होती है कि सभी विवाद उनके देश के न्यायालयों में ही तय होंगे। क्यों? हमारी राष्ट्रीय सम्प्रभुता कहां गई? हम यदि कुछ करते भी हैं तो हमारे लोकतंत्र की अवधारणा पर सवाल उठाने लगते हैं।

इसी मुद्दे पर हमारे माननीय भी कह चुके हैं कि कच्चा माल तो हमारा ही है। हम उसी से बने माल को हमारे यहां मंगा रहे हैं। कब तक? आज भी हजारों टन लोह अयस्क बाहर जा रहा है। यहां कितने कारखाने खुल सकते हैं। कितना रोजगार पैदा किया जा सकता है! हमारा भिलाई जैसा संयंत्र डावांडोल हो रहा है। शायद सात-आठ हजार मजदूर बचे हों। गुजरात (मोरबी)में टाइल्स बनाने का कच्चा माल राजस्थान से जाता है। कारखाना नहीं लगा सकते! राजस्थान-मध्यप्रदेश- छत्तीसगढ़ प्राकृतिक संसाधनों के भंडार हैं। कितने कारखाने खुले? सब बजरी बेचकर मस्त हैं। पुलिस को अंगूठे के नीचे रखकर चलते हैं। संसाधनों की चिंता किसको?

अब तक कितनी पंचवर्षीय योजनाएं बन चुकीं, हमारे कच्चे माल का बाहर जाना बंद नहीं हुआ। राजस्थान में सन 2015 से पहले कर्नाटक की मेटल माइनिंग कंपनी ने बाड़मेर में सोने की खोज के लिए आवेदन किया था। कुछ कमियों के आधार पर आवेदन रद्द कर दिया गया। कंपनी कोर्ट में गई, कोर्ट ने पुनर्विचार के आदेश दिए। राज्य सरकार ने फिर रद्द कर दिया।

सूझ-बूझ नदारद

इसी बीच पता चला कि यह कंपनी आस्ट्रेलिया की इंडो गोल्ड कंपनी की सहयोगी है। अब यह कंपनी द्विपक्षीय करार का हवाला देकर अंतरराष्ट्रीय कोर्ट में जाने की धमकी दे रही है।

आज जितनी दिशाओं में तकनीकी विकास छलांगे मार रहा है उसमें लोग छोटे-छोटे देशों से संसाधन के ठेके उठाकर, अपने यहां माल तैयार करने में लगे हैं। कई देश अब महत्वपूर्ण संसाधनों को बाहर ले जाने पर पाबंदी लगा चुके हैं, कुछ अभी लगा रहे हैं। यूरेनियम, कॉपर, जिंक, निकल, कोबाल्ट आदि के लिए अनेक देशों ने निर्यात पर रोक लगा दी है। हाल ही अमरीका ने आर्सेनिक, इंडोेनेशिया ने निकल पर तथा भारत ने भी कुछ माह पूर्व दस से अधिक धातुओं पर पाबंदी लगा दी है। केन्द्र सरकार ने संसद में बताया कि वर्ष 2014 से 2021 के बीच 2783 विदेशी कंपनियों ने भारत में परिचालन बंद कर दिया है। इनमें केयर्न एनर्जी, होल्सिम, दाइची, सैंक्यो, कैरफोर, हेन्केल, हार्ले डेविडसन आदि शामिल हैं। राजस्थान में भी कई कंपनियां हजारों-करोड़ रुपए निवेश कर वापस चली गईं।

यही हाल हमारे पशुधन का है। देश में कहीं भी इतना बड़ा पशुपालन-प्रजनन केन्द्र नहीं है। पूरे देश को पशुधन की सप्लाई एकमात्र राजस्थान से होती है। कृषि के बाद दूसरा आय का स्रोत है। यूरोप के तो हॉलेंड-स्वीडन जैसे कई देश केवल गोपालन पर ही अतिसमृद्ध है। हमारे अफसरों की समझ देख चुके हैं जिन्होंने तिलवाड़ा पशु मेले के आयोजन पर ही निषेधाज्ञा जारी कर दी थी जो राज्य का सबसे बड़ा और साल का पहला मेला होता है। ऐेसे अंग्रेजीदां लोग कैसे समझेंगे स्थानीय भूगोल को? इनको तो सड़कें-बिजली- कारखाने चाहिए। भले ही समृद्धि विदा हो जाए। ये तो गाना गुनगुना कर चल देंगेे। भोगना तो यहां रहने वालों को पड़ेगा, जो इनके रिश्तेदार नहीं लगते। श्रीगंगानगर आज सेम और कैंसर दोनों समस्याओं से जूझ रहा है। कौन अफसर स्वीकार करेगा कि इसमें प्रशासन की सूझ-बूझ नदारद थी। जहां से श्वेत-हरित क्रांति लाए वहां के परिणामों का अध्ययन कहां किया? मूल में तो सारे मुद्दों के केन्द्र में राष्ट्रीय सम्प्रभुता के चिंतन का पूर्ण अभाव है। जब सम्पूर्ण कार्यपालिका और न्यायपालिका का शिक्षण के साथ-साथ प्रशिक्षण भी अंग्रेजीदां होगा, वे भारतीय चिंतन को कहां से ग्रहण करेंगे। आज इसी ग्रहणकाल से भारत गुजर रहा है।

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