क्या बीजेपी हिंदुत्व से करेगी जातिगत जनगणना का मुकाबला!

क्या बीजेपी हिंदुत्व से करेगी जातिगत जनगणना का मुकाबला! चुनाव आते ही मोदी क्यों करने लगते हैं कब्रिस्तान-मुसलमान की बात?
ऐसे तमाम प्रश्न हैं, जिनसे ये साबित होता है कि सरकार मुसलमानों के प्रति उदार है, लेकिन भाजपा का चुनावी एजेंडा मुस्लिम विरोध का है. पार्टी को इसका फायदा भी मिलता है, चुनाव में हिंदू वोटर इस बात पर फोकस करता है कि मुस्लिम वोट कहां जाने वाला है, इसी आधार पर वह निर्णय लेता है और एन वक्त पर भाजपा की तरफ आ जाता है.

चुनाव नजदीक आते ही हिंदू-मुस्लिम जिन्न बोतल से बाहर आ जाता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंगलवार को छत्तीसगढ़ के जगदलपुर में हुई जनसभा में कहा, कि जाति की संख्या के लिहाज से देखें तो फिर देश की 82 प्रतिशत आबादी का हक संसाधनों पर पहले हुआ. इसके एक दिन पहले बिहार की जातीय जनगणना के नतीजे आये और उसके अनुसार वहां 81.99 प्रतिशत हिंदू हैं. छत्तीसगढ़ में भी जातीय जनगणना की बात चलने लगी है और कांग्रेस तो क्षेत्रीय दलों के दबाव में पूरे देश में जाति आधारित जनगणना की बात कर रही है. इसीलिए प्रधानमंत्री ने यह दांव फेंका है. प्रधानमंत्री ने कांग्रेस पर आरोप लगाया, कि वह हिंदुओं को बांट कर उनके बीच द्वेष फैलाना चाहती है. मगर गरीबी दूर करने के लिए उसके पास कोई उपाय नहीं है. प्रधानमंत्री ने कहा, वे गरीब के बारे में सोचते हैं. जाति या धर्म उनके लिए मायने नहीं रखते.

याद करिए 2017 के चुनाव

याद करिए, 2017 में जब उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने थे, तब प्रधानमंत्री ने 20 फ़रवरी 2017 को फतेहपुर की एक जनसभा में कहा था, कि अगर किसी गांव में कब्रिस्तान के लिए जमीन दी जाती है तो श्मशान के लिए क्यों नहीं? उन्होंने यह भी आरोप लगाया था कि अखिलेश सरकार मुस्लिम त्योहारों पर 24 घंटे बिजली देती है लेकिन हिंदू त्योहारों पर कटौती करती है. प्रधानमंत्री के इन्हीं बयानों का नतीजा था कि विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी बुरी तरह हार गई और भाजपा को बंपर जीत मिली. जाहिर है, चुनाव जीतने का यह एक हथकंडा भर है. प्रधानमंत्री कतई मुस्लिम विरोधी नहीं हैं. न ही किसी प्रदेश की भाजपा सरकार अपने आचरण से कोई हिंदू-मुस्लिम में भेद करती है. फिर भी भाजपा पर मुस्लिम विरोधी राजनीतिक दल होने का ठप्पा लग जाता है.

मुसलमानों के प्रति उदार है सरकार

आज तक भाजपा की सरकार जाकिर नाईक को नहीं पकड़ सकी, न उसका प्रत्यावर्तन करवा सकी. अगर उसके विचार आतंकी नहीं हैं, तो वह इधर से उधर क्यों घूम रहा है? और यदि सरकार को संदेह है तो मलयेशिया से उसको बुलवा क्यों नहीं सकी? तमाम ऐसे प्रश्न हैं, जिनसे साबित होता है कि सरकार अपने व्यवहार में मुसलमानों के प्रति उदार है, लेकिन भाजपा का चुनावी एजेंडा मुस्लिम विरोध का है. इसका फायदा भी मिलता है, कि हिंदू मतदाता अब ध्यान रखता है, कि मुस्लिम वोटरों का रुझान किधर है. जहां वह एकतरफ़ा जाएगा तो हिंदू वोटर फौरन भाजपा की तरफ भागता है. कांग्रेस ने अपनी गलतियों से भाजपा को हिंदू-परस्त पार्टी बना दिया है. इसीलिए भाजपा को लाभ स्वतः मिल जाता है. यह एक साफ संदेश है कि कांग्रेस जितना मुस्लिम की तरफ झुकेगी, उतना ही हिंदू भाजपा की तरफ आता है.

विरोधी दलों के पास बस एक ही काट

मुस्लिम बुद्धिजीवी और भाजपा विरोधी दलों के पास इसकी काट का एक ही सूत्र है, हिंदू समुदाय को जातियों में बांट देना. क्षेत्रीय दलों का आधार यही विभाजित हिंदू वोट और मुस्लिम सपोर्ट है. कांग्रेस का तो 1989 तक फंडा ही रहा है, ब्राह्मण, हरिजन (दलित) और मुसलमान. भाजपा ने अपना वोट बैंक संपूर्ण हिंदू समाज में देखा. इसके लिए उसके पास एक अनुशासित और कर्मठ सेना शुरू से रही है. वह है राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS), जो सदैव जमीन पर जाकर हिंदुओं की जातियों को हिंदुत्त्व के नाम पर मिशनरीज की तरह जोड़ता रहा. भाजपा की यह धुरी संघ है, जो इसको कामयाबी दिलाती है. अन्यथा हिंदू समाज की कोई मूर्त कल्पना नहीं है. असंख्य जातियों में बनते इस समाज के आराध्य भी असंख्य हैं, लेकिन मुसलमानों की बौखलाहट ने इस समाज को एक किया हुआ है.

इसीलिए घबरा रही भाजपा

इसीलिए भाजपा को सबसे अधिक घबराहट हिंदुओं के जातीय विभेद से होती है. जाति का भेद यदि खुल गया, तो क्षेत्रीय दलों को मजबूती मिलेगी. अधिकांश क्षेत्रीय दल चूंकि विपक्षी गठबंधन इंडिया एलायंस के साथ हैं इसलिए परोक्ष रूप से कांग्रेस को लाभ मिलने की संभावना बनती है, मगर जैसे ही प्रधानमंत्री इस जातिभेद को हिंदुत्व की संख्या के साथ जोड़ देते हैं तो उनका यह जादू चुनाव में काम कर जाता है. इसलिए चुनावी मोड में आते ही प्रधानमंत्री हिंदू, मुसलमान, कब्रिस्तान, श्मशान के मुद्दों को ले कर आ जाते हैं. उनको स्वयं भी इन मुद्दों की हकीकत पता होगी. किंतु वे इन्हें उठाने से चूकते भी नहीं. क्योंकि चुनावी नारेबाजी और बोलों में हमारे देश में कभी कोई अंकुश नहीं रहा. 1960 और 1970 के दशक में तो नारे और भी अधिक उकसाने वाले होते थे.

पहले चुनाव में लगते थे आपत्तिजनक नारे

पहले आम चुनाव में यानी 1952 में तो नारे बहुत ही आपत्तिजनक हुआ करते थे. तब मुख्य राजनीतिक दल कांग्रेस, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, सोशलिस्ट पार्टी और हिंदू महासभा ही थे. उस समय 53 राजनीतिक दल चुनाव में उतरे थे. इनमें से 14 राष्ट्रीय और 39 क्षेत्रीय दल थे. उस समय कांग्रेस को 364 सीटों पर जीत मिली थी. उसे कुल वोटों का 45 फीसदी वोट मिला था. नम्बर दो पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) रही थी, उसे 16 सीटें मिलीं. सोशलिस्ट पार्टी को 12, किसान मजदूर प्रजा पार्टी को 9, पीपुल्स डेमोक्रेटिक फ्रंट (पीडीएफ) को 7 और अन्य को 44 सीटें हासिल हुई थी. वहीं 37 निर्दलीय उम्मीदवार भी जीते थे. इनके अलावा गणतंत्र परिषद को 6, हिंदू महासभा को 4, शिरोमणि अकाली दल को 4, अखिल भारतीय राम राज्य परिषद को 3, भारतीय जनसंघ को 3 सीटों पर जीत मिली थी.

उस समय जनसंघ (आज की भाजपा) के विरुद्ध नारा लगता था, इस दीपक में तेल नहीं सरकार बनाना खेल नहीं! मालूम हो कि दीपक जनसंघ का चुनाव चिन्ह था. कांग्रेस का चुनाव चिन्ह दो बैलों की जोड़ी था. लोग नारा लगाते, बैल बंधे बरगदवा मा, नेहरू घुसे नरदवा मा! अब तो फिर भी चुनाव आयोग का अंकुश पहले से कठोर है. लेकिन ऐसी कोई आचार संहिता नहीं बनी है, जो चुनाव आयोग कोई स्पष्ट गाइड लाइन तय कर सके. सत्य तो यह है, कि कांग्रेस ने सत्ता में रहते हुए जिस तरह की गलतियां की हैं और अपने समर्थक दलों को उकसाया है, उसे रोकना भी आसान नहीं. बस ऐन-केन-प्रकारेण चुनाव जीत लिए जाएं फिर सरकार में आ कर देखा जाएगा. वही फंडा आज भाजपा अपना रही है.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *