हम इकोनॉमी जितनी ही चिंता पर्यावरण की क्यों नहीं करते?
हम इकोनॉमी जितनी ही चिंता पर्यावरण की क्यों नहीं करते?
अक्टूबर-नवंबर में तापक्रम अब बदला हुआ-सा दिखता है। सर्दियों की शुरुआत है, लेकिन मुंबई व अन्य शहरों के लोग अभी भी जुलाई-अगस्त की गर्मी में जी रहे हैं। दिल्ली या देश के किसी भी कोने में जो औसतन तापक्रम इन महीनों में होना चाहिए, वह उससे ऊपर ही है। इस तरह की उमस और तापक्रम को वेट बल्ब तापक्रम कहा जाता है।
इसका मतलब है ऐसी गर्मी जिसमें उमस हो और जो आप को असहज बना देती हो। वैज्ञानिक भाषा में कहा जाता है कि इसकी सीमा प्रायः 26 से 30 के बीच में रहती है। और कभी-कभी ही यह 31 डिग्री सेंटीग्रेड तक पहुंचती है। ये भी माना जाता है कि जब ये 32 से ऊपर पहुंच जाए तो जीवन के लिए खतरनाक बन जाती है। आईपीसीसी की रपट ने तो बताया ही है कि अब हालात ऐसे होंगे कि हम गर्मियों को सर्दियों में भी देखेंगे और वो गर्मी उमस से भी भरी होगी। यह सब बातें हम सुनते-देखते हैं और महसूस भी करते हैं लेकिन कभी गंभीर नहीं होते।
दिल्ली की हवा को ही देख लीजिए। दमघोंटू इस हवा के दुष्परिणाम क्या होंगे, इसकी चिंता कुछ पर्यावरणविदों में जरूर पनप रही है, लेकिन आम आदमी इस चिंता से बहुत दूर है। रोजाना की हमारी गतिविधियां हमें अन्य चिंताओं से मुक्त रखती हैं, क्योंकि हमारी तात्कालिक रुचि नौकरी-पेशा से जुड़ी होती है।
हमारे लिए आने वाले समय की चिंता का कम से कम प्रकृति और पर्यावरण की दृष्टिकोण से कोई महत्त्व नहीं है। विज्ञानी रपटें तो यही कहती हैं कि आने वाले समय में हम और बीमारियों की चपेट में आ जाएंगे, जैसे कोविड ने हमें व्यथित किया था। यह भी माना जा रहा है कि एशिया में आने वाले समय में अगर स्थितियां ये ही रहीं तो करीब सन् 2050 तक 20℅ क्षेत्र पूरी तरह सूखे में चले जाएंगे। वो इसलिए भी होगा कि हम बदलते पर्यावरण के प्रति गंभीर नहीं हैं।
माना जाता है कि जीडीपी, जो कि विकास का हमारा मूल मंत्र है, वो 2100 के अंत तक करीब 92 प्रतिशत नीचे सिर्फ इसलिए चली जाएगी क्योंकि प्रकृति-पर्यावरण हमारा साथ नहीं देंगे। ये आंकड़े इशारा करते हैं कि जिस विकास के लिए हम आज जूझ रहे हैं और जिसके लिए हमने पर्यावरण की अनदेखी की है, वही कल दुष्परिणामों के साथ हमारे बीच होगा।
कितनी अजीब बात है कि जब इस तरह की विपरीत परिस्थितियां होती हैं तो हम उनका आकलन पैसों में ही करते हैं। जब कोविड आया था तो दो ही चर्चाएं सबसे प्रमुख थीं। एक कि कितने लोगों का देहांत इससे हुआ और दूसरा हमारी जीडीपी कितनी पाताल में पहुंचीं। लेकिन कारणों में तो हमने कभी झांकने की कोशिश नहीं की।
सवाल है कि आज अगर दुनिया से पानी घट रहा है या फिर हवा-मिट्टी खराब हो चुकी हो, तो ये सब कहीं ठीक उस तर्ज में आंकड़ों के रूप में क्यों नहीं दर्ज होता, जिस तर्ज में हम गिरती-बढ़ती आर्थिकी को जीडीपी के रूप में मापते हैं?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)