मुफ्तखोरी की खतरनाक राजनीति ?
मुफ्तखोरी की खतरनाक राजनीति, राजनीतिक भ्रष्टाचार और रेवड़ी संस्कृति को बल देने में मतदाताओं की भी बड़ी भूमिका
कोई भी दल यह बताने को तैयार नहीं कि वे मुफ्त वस्तुएं जैसे कि स्कूटी लैपटाप मोबाइल सोना मुफ्त बिजली पानी बस यात्रा समेत अन्य वस्तुएं और सुविधाएं देने के जो वादे कर रहे हैं उन्हें पूरा कैसे करेंगे? वास्तव में यह वह सवाल है जो मतदाताओं को करना चाहिए। वह यदि यह सवाल नहीं करता तो लालच और फौरी लाभ के कारण ही।
मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मिजोरम में विधानसभा चुनावों के लिए मतदान हो चुका है। अब केवल तेलंगाना में मतदान होना शेष है। इन राज्यों के चुनाव प्रचार के दौरान यह बात और उभरकर सामने आई कि मतदाता राजनीतिक दलों के प्रलोभन का शिकार बनने के लिए तैयार है। आम तौर पर मतदाता राजनीतिक दलों के घोषणा पत्रों में यह नहीं देखता कि उसमें अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य व्यवस्था, नागरिक सुविधाएं, बिजली-पानी आदि के ठोस वादे किए गए हैं या नहीं? वह अब यह देखता है कि किस दल ने उन्हें क्या-क्या मुफ्त वस्तुएं और सुविधाएं देने के वादे किए हैं।
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मुफ्तखोरी की राजनीति, इस पर रोक नहीं लगी तो दुष्परिणाम जनता को ही भुगतने पड़ेंगे
राजनीतिक दल लोकलुभावन वादों का यह कहकर बचाव करते हैं कि उन्हें जनकल्याण कहा जाए न कि मुफ्तखोरी। वे कुछ भी कहें सच यह है कि उन्होंने जनकल्याण और मुफ्तखोरी के बीच का भेद खत्म कर दिया है।
मुफ्तखोरी की राजनीति का सहारा लेकर चुनाव जीतने की कोशिश किस तरह आम होती जा रही है, इसका ताजा प्रमाण है जबलपुर में कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा की यह घोषणा कि यदि राज्य में उनकी सरकार बनी तो सौ यूनिट बिजली मुफ्त दी जाएगी, रसोई गैस सिलेंडर पांच सौ रुपये में दिया जाएगा और महिलाओं को हर महीने 1500 रुपये दिए जाएंगे। इसके अलावा उन्होंने किसानों का कर्ज माफ करने और पुरानी पेंशन योजना लागू करने का भी वादा किया। उन्होंने इसे पांच गारंटी की संज्ञा दी।
कुछ इसी तरह की पांच गारंटियां कर्नाटक में भी दी गई थीं। उन्हें पूरा करने के लिए कर्नाटक सरकार को एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ रहा है, क्योंकि राज्य की वित्तीय स्थिति उन्हें पूरा करने की अनुमति नहीं देती। कांग्रेस ने हिमाचल प्रदेश में भी कुछ ऐसे ही वादे किए थे। हिमाचल सरकार को छह माह बाद भी इन वादों को पूरा करना कठिन हो रहा है और इसका कारण राज्य की वित्तीय स्थिति है। जैसी गारंटियां कांग्रेस दे रही है, वैसी ही अन्य दल भी। अभी हाल में दिल्ली नगर निगम चुनाव में आम आदमी पार्टी ने दस गारंटियां दी थीं। ये गारंटियां और कुछ नहीं लोकलुभावन वादे ही होते हैं।
चूंकि जब कोई एक दल ऐसे वादे करता है तो अन्य दल भी वैसा करने के लिए बाध्य हो जाते हैं। इसके बाद उनमें मुफ्त की सामग्री या सुविधा देने की होड़ लग जाती है। एक समय यह होड़ तमिलनाडु तक सीमित थी, लेकिन अब सारे देश में फैल चुकी है और सभी दल उसकी चपेट में आ चुके हैं। यहां तक कि वह भाजपा भी, जो इस तरह के लोकलुभावन वादों को रेवड़ी संस्कृति बताती है।
राजनीतिक दल लोकलुभावन वादों का यह कहकर बचाव करते हैं कि उन्हें जनकल्याण कहा जाए, न कि मुफ्तखोरी। वे कुछ भी कहें, सच यह है कि उन्होंने जनकल्याण और मुफ्तखोरी के बीच का भेद खत्म कर दिया है। वे ऐसा करने में इसलिए सफल हैं, क्योंकि जो एक के लिए रेवड़ी है, वही दूसरे के लिए जनकल्याण।
चूंकि जनकल्याण की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं, इसलिए जिस दल के जो मन में आता है, वह वैसी घोषणा कर देता है। कई बार तो उनकी ओर से ऐसी घोषणाएं भी कर दी जाती हैं, जिन्हें पूरा करना संभव नहीं होता। उन्हें या तो आधे-अधूरे ढंग से पूरा किया जाता है या देर से अथवा उनके लिए धन का प्रबंध जनता के पैसों से ही किया जाता है। उदाहरणस्वरूप कर्नाटक सरकार ने दो सौ यूनिट बिजली मुफ्त देने के वादे को पूरा करने के लिए बिजली महंगी कर दी। इसी तरह पंजाब सरकार ने पेट्रोल और डीजल पर वैट बढ़ा दिया। चुनाव जीतने के लिए वित्तीय स्थिति की अनदेखी कर लोकलुभावन वादे करना अर्थव्यवस्था के साथ खुला खिलवाड़ है। इस पर रोक नहीं लगी तो इसके दुष्परिणाम जनता को ही भुगतने पड़ेंगे।
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मुफ्त सुविधाएं देने के चलन पर रोक नहीं लगी तो देश के सतत विकास की प्रक्रिया कमजोर ही पड़ेगी
राजनीतिक दलों को वित्तीय अनुशासन की आवश्यकता को समझना चाहिए। मुफ्त सुविधाएं देने के बजाय लोगों की क्षमता का विकास करना चाहिए। राष्ट्र के सतत विकास के लिए और भारत को अग्रणी देशों की श्रेणी में लाने के लिए इसकी गहन आवश्यकता है।
मुफ्तखोरी की राजनीति को लेकर तमाम चिंता जताए जाने के बाद भी राजनीतिक दल कोई सबक सीखते नहीं दिख रहे हैैं। आगामी विधानसभा चुनाव वाले राज्यों में पक्ष-विपक्ष के राजनीतिक दल लोकलुभावन घोषणाएं करने में जुट गए हैैं। यह तब है, जब हाल में पांच राज्यों के चुनावों में इसी तरह की घोषणाओं को लेकर विभिन्न स्तरों पर चिंता प्रकट की जा चुकी है और श्रीलंका के हश्र से भी सबक सीखने की बात बार-बार कही जा रही है। यह सही है कि कोरोना कालखंड में केंद्र सरकार ने भी देश के 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन दिया, लेकिन इसकी आवश्यकता को महामारी एवं गरीबी के संदर्भ में समझा जाना चाहिए। इसी तरह गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों के लिए मोदी सरकार की ओर से आवास, शौचालय, स्वच्छ जल आदि जो सुविधाएं मुफ्त उपलब्ध कराई जा रहीं, उसकी जरूरत को भी सही संदर्भ में समझा जाना चाहिए। इन दिनों विभिन्न दलों में चुनाव जीतने के लिए मुफ्त सुविधाएं और वस्तुएं देने की होड़ हानिकारक साबित हो रही है। यह समझा जाना चाहिए कि यह खतरनाक होड़ गरीबी का उन्मूलन करने के बजाय उसे बढ़ावा देने का काम कर रही है।
देश में मुफ्तखोरी की राजनीति की शुरुआत तमिलनाडु में 2011 से हुई। तब राज्य में सरकार बनाने के बाद जयललिता ने लोगों को मुफ्त सुविधाएं और वस्तुएं बांटीं। इन लोकलुभावन मुफ्त उपहारों की बदौलत अन्नाद्रमुक तमिलनाडु की राजनीति की दशकों पुरानी स्थापित परंपरा को तोड़कर 2016 के विधनसभा चुनावों में पुन: सत्ता में लौटी। लगभग उसी समय यानी 2015 में दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने भी मुफ्त सुविधाएं देने की झड़ी लगा दी और उसे विधानसभा चुनावों में ऐतिहासिक बहुमत मिला। आम आदमी पार्टी ने 200 यूनिट मुफ्त बिजली, पानी, डीटीसी बसों में महिलाओं को मुफ्त यात्रा आदि प्रलोभन जनता को दिए। 2020 में हुए विधानसभा चुनावों में भी केजरीवाल सरकार ने इन्हीं लोकलुभावन वादों के बल पर पुन: सत्ता में वापसी की। इसे देखते हुए पंजाब, आंध्र, तेलंगाना और बंगाल आदि राज्य सरकारों ने इस दिशा में कदम बढ़ाए। हाल में संपन्न पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी राजनीतिक दलों ने मुफ्त सुविधाओं के वादों को चुनावी घोषणापत्र में न सिर्फ जगह दी, बल्कि उन्हें प्रमुखता से प्रचारित भी किया।
पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार ने घोषणा कर दी है कि वह जुलाई से सभी परिवारों को 300 यूनिट बिजली मुफ्त देगी। तथ्य यह है कि पंजाब सरकार पर तीन लाख करोड़ रुपये का कर्ज पहले से ही है। सवाल उठता है कि इतनी कमजोर आर्थिक स्थिति के बावजूद पंजाब सरकार इन मुफ्त सुविधाओं के लिए आवश्यक संसाधन कहां से लाएगी? यही सवाल अन्य राज्य सरकारों से भी है।
15वें वित्तीय आयोग के सुझावों के आधार पर केंद्र की ओर से राज्यों को अधिकतम संसाधन उपलब्ध कराए जा रहे हैं। इसके बावजूद राज्यों की आर्थिक हालत नाजुक है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि राज्य सरकारें इन मुफ्त उपहारों पर अपने अधिकतम संसाधन व्यय कर देती हैं, जबकि ये संसाधन उन्हें सड़क, एयरपोर्ट, बंदरगाह, स्वास्थ्य, शिक्षा, संचार आदि महत्वपूर्ण सुविधाओं पर खर्च करने चाहिए। एक तथ्य यह भी है कि राज्य सरकारें लगातार चुनाव जीतने के लालच में कर वसूलने में भी सुस्त हैैं। यह राज्यों के कर्ज-जाल में फंसने का सबसे बड़ा कारण है। पंजाब में आम आदमी पार्टी सरकार एक तरफ तो मुफ्त वादों को निभाने की घोषणा कर रही है, वहीं दूसरी ओर केंद्र से 50,000 करोड़ रुपये की राशि तत्काल इसलिए मांग रही है, क्योंकि राज्य की वित्तीय स्थिति नाजुक है।
राजनीतिक दलों का गठन देश के सर्वांगीण विकास को सुनिश्चित करने के लिए होता है। उनके रास्ते अलग हो सकते हैं, पर सभी दलों को राष्ट्र निर्माण में अपनी भूमिका निभानी चाहिए। इसमें कोई संशय नहीं कि यदि राजनीतिक दल पारदर्शी प्रशासन उपलब्ध कराते हैं तो उन्हें मुफ्त सुविधाओं का लालच देने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। राजनीतिक दलों को अपनी भूमिका इस तरह निभानी चाहिए, जिससे उनका राजनीतिक प्रभाव बना रहे और देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती भी मिले। लोगों को और यहां तक कि सक्षम लोगों को भी मुफ्त सुविधाएं देने के बढ़ते चलन ने राष्ट्र की मजबूती की सतत प्रक्रिया को कमजोर किया है। सड़क, बंदरगाह, एयरपोर्ट आदि ढांचागत विकास के मामले में हम अमेरिका और चीन से काफी पीछे हैं। मोदी सरकार ने इसको गति देने का काम किया है, पर हमें इसके लिए और संसाधनों की आवश्यकता है। राज्य सरकारें इसमें सहयोग कर सकती हैैं, लेकिन उनमें अधिकांश मुफ्तखोरी की राजनीति में उलझी हैैं। इस संबंध में हमें दक्षिणी अमेरिकी देश वेनेजुएला के उदाहरण से सीख लेनी चाहिए। पिछली सदी के आखिरी दशक में तेल के बढ़ते मूल्यों से इस खनिज संपन्न देश में संपन्नता आई। उस पैसे को उत्पादक चीजों पर खर्च करने के बजाय वहां की सरकार ने जनता को मुफ्त में खाने से लेकर आवागमन आदि की सुविधाएं दीं। कुछ ही वर्षों में तेल के दामों में गिरावट के कारण वहां की अर्थव्यवस्था धड़ाम से नीचे गिरी। आज भी उसकी अर्थव्यवस्था पूरी तरह पटरी पर नहीं आई है। वहां अराजकता सरीखी स्थिति है। श्रीलंका की वर्तमान दुर्दशा से भी हम सीख सकते हैं। साफ है राजनीतिक दलों को वित्तीय अनुशासन की आवश्यकता को समझना चाहिए। मुफ्त सुविधाएं देने के बजाय लोगों की क्षमता का विकास करना चाहिए। राष्ट्र के सतत विकास के लिए और भारत को अग्रणी देशों की श्रेणी में लाने के लिए इसकी गहन आवश्यकता है।
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….. मुफ्तखोरी की राजनीति का मर्ज बहुत पुराना है। इसकी शुरुआत 1967 में तमिलनाडु के विधानसभा चुनाव में हुई थी। उस समय द्रमुक ने एक रुपये में डेढ़ किलो चावल देने का वादा किया था। यह वादा ऐसे समय में किया गया था, जब देश खाद्यान्न की कमी से जूझ रहा था। दो साल पहले शुरू हुए हिंदी विरोधी अभियान और उसके बाद एक रुपये में चावल के इस वादे के दम पर द्रमुक ने तमिलनाडु से कांग्रेस का सफाया कर दिया था। तब से आज तक यह सिलसिला चलता जा रहा है। तमिलनाडु से शुरू हुआ यह मर्ज धीरे-धीरे सभी राज्यों में फैल चुका है। आज मतदाताओं को लुभाने के लिए तरह-तरह के वादे करना सभी राजनीतिक दलों के लिए प्रतिस्पर्धा बन गई है।
मुफ्त उपहारों का गणित
यह एक बिजनेस माडल है। कंपनियां अपने उत्पादों की बिक्री बढ़ाने के लिए यह तरीका अपनाती हैं। इसके अंतर्गत कंपनियां किसी एक उत्पाद को कम दाम या मुफ्त में ग्राहकों को देती हैं और उसी से जुड़ा दूसरा उत्पाद अधिक दाम पर बेच देती हैं। इससे दोनों उत्पादों की बिक्री धीरे-धीरे बढ़ती है। जैसे रेजर की बिक्री बढ़ाने के लिए पहले कंपनियां उसे मुफ्त या कम दाम पर ग्राहकों के लिए उपलब्ध कराती हैं, लेकिन उसमें लगने वाले ब्लेड को अधिक दाम पर बेचती हैं।
नेताओं ने बदल दिया रूप
राजनीति में नेताओं ने मुफ्त अनाज, मुफ्त बिजली-पानी, मुफ्त लैपटाप जैसे चुनावी वादे उनके चुनावी घोषणा पत्रों में शामिल रहते हैं। इन मुफ्त की चीजों के बदले जनता को कई जरूरी व मूलभूत सुविधाओं से वंचित होना पड़ता है। इनकी कीमत बढ़े हुए टैक्स के रूप में भी चुकानी पड़ती है।
कानून की जरूरत
मुफ्त उपहारों के बांटे जाने के खिलाफ वकील एस सुब्रमण्यम बालाजी ने 2013 में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। जस्टिस पी सतशिवम और जस्टिस रंजन गोगोई की पीठ ने इस याचिका पर सुनवाई की। सुप्रीम कोर्ट ने बढ़ती उपहार की राजनीति पर अंकुश लगाने के लिए कानून की आवश्यकता जताई। कोर्ट ने माना कि उपहार बांटने से मतदाता और चुनावी प्रक्रिया पर असर होता है। इससे दोनों प्रभावित होते हैं। कोर्ट ने चुनाव आयोग को आदेश दिया कि वह राजनीतिक पार्टियों से चर्चा कर चुनावी घोषणा पत्रों के लिए प्रभावी दिशानिर्देश तय करे।
अव्वल उपहार दाता जिन्होंने दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की चुनावी राजनीति को बदलकर रख दिया..
तमिलनाडु : साढ़े पांच दशक पहले तमिलनाडु से मुफ्त उपहारों वाली राजनीति शुरू हुई थी और इन वर्षो में यह राज्य ही इस मुफ्तखोरी की राजनीति के मामले में अव्वल रहा है। यहां मतदाताओं को रंगीन टेलीविजन, लैपटाप और घरेलू उपकरण बांटे गए हैं। पिछले एक-डेढ़ दशक में इन स्कीमों पर 11,561 करोड़ रुपये खर्च हुए हैं। राज्य में 25 हजार स्कूल और 11 हजार प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र बनाने के लिए इतनी रकम काफी है।
दिल्ली : 2015 में दिल्ली विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी (आप) पहली बार चुनाव लड़ी। उसने अपने चुनावी घोषणा पत्र में मुफ्त बिजली-पानी, मुफ्त वाईफाई का वादा किया और 70 में से 67 सीटें जीतकर सत्ता में आई। 2020 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने इनके साथ-साथ महिलाओं के लिए मेट्रो और बसों में मुफ्त यात्रा का भी वादा किया।
उत्तर प्रदेश: 2012 में यूपी विधानसभा चुनावों में जीत सुनिश्चित करने के लिए समाजवादी पार्टी ने मुफ्त लैपटाप, टैबलेट देने जैसी स्कीमों की घोषणा की। पार्टी जीती, अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बने। इन स्कीमों के लिए 19,058 करोड़ रुपये से अधिक की रकम सुनिश्चित की गई। 2012 से 2015 तक 15 लाख से ज्यादा लैपटाप बांटे गए। 2012 में गरीबी रेखा से नीचे की महिलाओं को छह सौ करोड़ रुपये की साड़ियां बांटी गईं।
पंजाब : 2012 के विधानसभा चुनावों के बाद शिरोमणि अकाली दल और भाजपा की गठबंधन वाली सरकार सत्ता में आई। आटा-दाल स्कीम शुरू हुई। 2013-2014 में इसके लिए 16,213 करोड़ रुपये का खाका तैयार किया गया। इसके तहत करीब डेढ़ करोड़ लोगों को दो रुपये प्रति किग्रा की दर से गेहूं बेचा गया। हाल ही में कैप्टन अमरिंदर को हटाकर मुख्यमंत्री बने कांग्रेस के चरणजीत सिंह चन्नी ने पद संभालते ही बिजली-पानी के बिल माफ करने का एलान कर दिया। जिनके कनेक्शन काट दिए हैं, उन्हें भी जोड़ने का एलान किया।
अन्य राज्य भी पीछे नहीं : कर्नाटक, ओडिशा, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ समेत अन्य कई राज्यों में भी सरकारें इस तरह की मुफ्त वाली स्कीमें चलाती रही हैं।
एनटीआर के अभियान ने दी गति
1982 में अभिनेता एनटीआर ने तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) की स्थापना की और आंध्र प्रदेश में विधानसभा चुनाव लड़ा। उन्होंने मतदाताओं से मुफ्त मिड डे मील, दो रुपये किलो चावल और बिजली पर सब्सिडी जैसे चुनावी वादे किए। दो रुपये किलो चावल की स्कीम बहुत लोकप्रिय हुई। राज्य के लोगों को उनकी स्कीम इतनी भाई कि उन्होंने उन्हें जिता दिया। धीरे-धीरे उपहारों का दायरा बढ़ता चला गया।