मराठा आरक्षण का मुद्दा अचानक क्यों जोर पकड़ने लगा है?

मराठा आरक्षण का मुद्दा अचानक क्यों जोर पकड़ने लगा है?

हालांकि, मराठों ने 2016 से सामूहिक प्रदर्शन किए हैं, लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए कि 1953 से 2008 के बीच तीन नेशनल बैकवर्ड क्लास कमीशंस और तीन महाराष्ट्र स्टेट बैकवर्ड क्लासेस कमीशंस ने मराठा समुदाय को OBC सूची में शामिल करने की मांग को खारिज कर दिया था।

पिछले दो दशकों में ऐसा क्या बदला, जिसने मराठों को बड़ी रैलियां करने के लिए मजबूर किया और यहां तक ​​कि आरक्षण के सवाल पर चुने हुए मराठा प्रतिनिधियों के घरों को भी जला दिया गया?

जानकार इसके पीछे ये मुख्य कारण बताते हैं: कृषि संकट तथा ग्रामीण और शहरी स्थानीय संगठनों में OBC का दावा। हालांकि, मैं सुझाव देता हूं कि प्रभुत्व का संकट मराठा आरक्षण के वर्तमान आंदोलन को समझाता है। जिन्हें हम शहरी और ग्रामीण संकट कहते हैं उनके बीच आपसी सम्बन्ध पर ध्यान देना जरूरी है।

शहरी संकट

शहरी संकट से मेरा इशारा शहरी क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर बड़े उद्योगों और अन्य संस्थाओं में 1990 के दशक के बाद से अच्छी तरह से भुगतान किए जाने वाली नौकरियों के तेजी से गायब होने से है।

ये कम या बिना शिक्षा या स्थानीय भाषा की डिग्री वाले व्यक्तियों को रोजगार प्रदान करते थे। इन नौकरियों में अच्छा वेतन मिलता था, स्वास्थ्य सेवा लाभ दिए जाते थे और सोशल सिक्योरिटी प्रोविजन्स तक पहुंच दी जाती थी।

इसके अलावा, मजदूर ट्रेड यूनियनों के तहत इकठ्ठा हो सकते थे, और इंडस्ट्रियल और राजनीतिक कार्यों में भाग ले सकते थे।

ऐसी ही इंडस्ट्री में मराठों ने अपनी सामाजिक रूप से बेहतर और प्रभावी जाति की स्थिति का इस्तेमाल करके नौकरियों का एक बड़ा हिस्सा हासिल करने में सफलता पाई थी।

1990 के दशक से, ये सभी कंपनियां या तो बंद हो गयीं, या इन्होंने अपने कर्मचारियों की संख्या में काफी कटौती कर दी है।

सभी सरकारी ग्रेड में, मराठों ने 29% से ज्यादा ओपन-कैटेगरी की नौकरियां हासिल की हैं। मंत्रालय (स्टेट सेक्रेटेरिएट), 37% से ज्यादा ओपन-कैटेगरी की नौकरियां हासिल की हैं।

इनकी IAS में 15.52%, IPS में 27.85% और IFS में 17.97% हिस्सेदारी है। हालांकि, आर्थिक उदारीकरण (economic liberalization ) के बाद से सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों में कमी आई है।

पूरे देश में कुल सुरक्षित नौकरियों में से केवल 3.5% सरकार में और 2% प्राइवेट फॉर्मल सेक्टर में हैं। इसके अलावा, ठेके पर मिलने वाली सरकार की नौकरियां 2004-05 में 0.7 लाख से बढ़कर 2017-18 में 15.9 लाख हो गई हैं। इसका मतलब है कि सरकार की नौकरियों की कम संख्या के लिए मराठों के बीच भारी होड़ है।

इसके अलावा, सरकारी और सरकार की मदद से चलने वाले स्कूलों और कॉलेजों में नौकरियां काफी कम हो गई हैं। कई मामलों में, स्कूली शिक्षकों और कॉलेज के लेक्चररों को ठेके पर रखा जाता है।

सामाजिक समूहों के व्यक्तियों की तरह, मराठा युवाओं ने ‘हाउसकीपिंग’ के नाम पर सुरक्षा गार्ड, कूरियर बॉय जैसे कम वेतन वाली छोटी नौकरियां करना शुरू कर दिया है।

बेहतर शिक्षा पाने वाले भी ठेके पर मिली नौकरियों में उलझे हुए हैं। निजी क्षेत्र में ठेके पर मिली नौकरियां 2004-05 में 3.6 लाख से बढ़कर 2017-18 में 7.1 लाख हो गई हैं।

ग्रामीण संकट

ग्रामीण संकट से मेरा मतलब बंद कारखानों से मजदूरों की वापसी और बेहतर भुगतान वाले रोजगार के लिए ग्रामीण क्षेत्रों के युवाओं का एक जगह को छोड़कर दूसरी जगह जाने की परेशानी से है।

ऐतिहासिक रूप से, अच्छी तरह से भुगतान किए जाने वाली शहरी आय ने लोगों को अपने गांवों में अपने परिवार के बाकी सदस्यों, जो खेतों की देखभाल करते थे, उनके लिए जरुरी आर्थिक मदद करने योग्य बनाया।

मराठों के मामले में, इसने गांवों में अपनी पहले से ही सामाजिक रूप से बेहतर और प्रभावी स्थिति को और मजबूत किया। जब कारखाने चल रहे थे, तब मजदूरों के गांवों में रिटायर होने और उनके लड़कों द्वारा शहर में नौकरी संभालने का एक पैटर्न देखा गया था।

अच्छी तरह से भुगतान की जाने वाली नौकरियों के गायब होने से यह प्रक्रिया रुक गई है।

ग्रामीण क्षेत्रों के युवा अब खुद को इनफॉर्मल सेक्टर जॉब्स के लिए तैयार समझते हैं। इसके अलावा, वे अपने गांवों में अपने परिवार के सदस्यों का साथ नहीं दे सकतें हैं।

वे शहरी क्षेत्रों में अपने रोजगार के कारण ग्रामीण परिवेश में सम्मान और गर्व का आनंद भी नहीं लेते हैं, जैसा कि उनके माता-पिता ने अनुभव किया था। इसलिए, ग्रामीण मराठा युवाओं के लिए एकमात्र रास्ता सरकारी क्षेत्र में सुरक्षित नौकरियां हैं, जो काफी कम हो गई हैं।

शिक्षा

सभी सामाजिक समूहों की तरह, मराठों के बीच हायर एजुकेशन की इच्छा में बढ़त हुई है। हालांकि, सरकारी इंस्टीटूशन्स में सीटें कम हो गई हैं।

2019 तक, कुल कॉलेजों में से 64.3% निजी और बिना सहायता प्राप्त हैं, 13.5% निजी और सहायता प्राप्त हैं और केवल 22.2% सरकार द्वारा संभाली और संचालित की जाती हैं। जैसा कि यशपाल समिति ने कहा, निजी संस्थान बहुत ज्यादा फीस लेते हैं और सभी कोर्सेज के लिए गैर कानूनी कैपिटेशन फीस रखते हैं।

सामाजिक समूहों के अधिकांश व्यक्तियों की तरह, आर्थिक रूप से कमजोर मराठों को सरकारी संस्थाओं पर निर्भर रहना पड़ता है। यहां, मराठा कम संख्या में ओपन सीट्स के लिए प्रतियोगिता करते हैं।

प्रभुत्व का संकट

शहरी और ग्रामीण संकटों के मेल ने मराठों के लिए प्रभुत्व के संकट को जन्म दिया है। दलितों के एक छोटे से हिस्से की शैक्षिक और आर्थिक गतिशीलता के साथ-साथ उनके सामाजक, सांस्कृतिक और राजनीतिक जोर के कारण कास्ट हायरार्की नॉर्म्स में गड़बड़ी से यह और बढ़ गया है।

कई मामलों में, ओबीसी के आर्थिक और राजनीतिक दावे ने विरोध कर रहे मराठों में चिंता पैदा कर दी है। यह सभी मसले मराठाओं के वर्तमान आंदोलन से उठे सवालों के जवाब देते हैं।

जब तक राज्य फॉर्मल सेक्टर जॉब्स में हिस्सेदारी नहीं बढ़ता और सरकारी शिक्षा संस्थानों का विस्तार नहीं करता ( या गरीबों के लिए बड़े पैमाने पर स्कालरशिप प्रोग्राम शुरू नहीं करता ), मराठों का संकट बना रहेगा।

कृषि मुद्दों और ओबीसी प्रतियोगिता से परे, वर्तमान विद्रोह को समझने के लिए प्रभुत्व के संकट को देखने की जरूरत है।

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