इलेक्टोरल बॉन्ड के मसले में आयोग की साख दांव पर है !

इलेक्टोरल बॉन्ड के मसले में आयोग की साख दांव पर है

चुनाव आयुक्त के त्यागपत्र के बाद चुनावी बॉन्ड के खुलासे के बारे में सुप्रीम कोर्ट की सख्ती से चुनावों में सस्पेंस और रोमांच का तड़का बढ़ गया है। 1989 के चुनावों के पहले राष्ट्रपति ने दो अन्य आयुक्तों की नियुक्ति करके चुनाव आयोग को तीन सदस्यीय बना दिया था।

इस समय आयोग में सिर्फ एक सदस्य होने की वजह से इतिहास को दूसरे तरीके से दोहराया जा रहा है। आयोग को तीन सदस्यीय बनाने के बारे में हुए विवादों पर कोर्ट की डिवीजन बेंच ने 1991 और संविधान पीठ ने 1995 में फैसला दिया था।

जजों के अनुसार स्वतंत्र-निष्पक्ष चुनाव के लिए बहुसदस्यीय आयोग की व्यवस्था बेहतर है। आयुक्तों की नियुक्ति के कॉलेजियम में जज को शामिल करने की याचिका पर कोर्ट में सुनवाई होगी। अविश्वास प्रस्ताव लंबित रहने पर विधानसभा स्पीकर या डिप्टी स्पीकर की भूमिका सीमित हो जाती है। त्यागपत्र के कारणों के जवाब के बगैर दो नए आयुक्तों की नियुक्ति से आयोग की साख का संकट गहरा सकता है।

चुनावी बॉन्ड का खुलासा नहीं करने पर जजों ने पूछा था कि आदेश के बाद 26 दिनों तक स्टेट बैंक ने क्या किया? कोर्ट के 15 फरवरी के पुराने फैसले के अनुसार आयोग को 13 मार्च तक चुनावी चंदे का विवरण वेबसाइट पर जारी करना था।

हालांकि कल एसबीआई ने चुनाव आयोग को बॉन्ड की जानकारी सौंप दी है। पर कोर्ट के फैसले के बाद आयोग ने पूरी जानकारी हासिल करने के लिए बैंक पर दबाव क्यों नहीं बनाया? इस बारे में लिखे आयोग के पत्र और बैंक के जवाबों को भी अदालत में दायर करने की जरूरत है।

कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के अनुसार ईडी, सीबीआई और आईटी छापों के माध्यम से सरकार जबरन चंदा वसूलती है। जबकि राहुल गांधी के अनुसार चुनावी बॉन्ड भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा घोटाला है।

मार्च 2018 से जनवरी 2024 तक मिले 16,518.11 करोड़ रुपए के बॉन्ड में 56 फीसदी भाजपा को और बकाया 44% हिस्सा कांग्रेस और दूसरी पार्टियों को मिला है। इसलिए कुछ लोगों की यह दिलचस्प थ्योरी है कि चुनावी बॉन्ड की बारूदी सुरंग में भाजपा से ज्यादा विपक्ष को नुकसान होगा।

इस साल 64 देशों में चुनाव हो रहे हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति ने लोकतंत्र को बड़े खतरों की चेतावनी दी है। चंडीगढ़ के मेयर चुनाव में धांधली और बंगाल समेत कई राज्यों में नेताओं-अपराधियों के आगे पुलिस-प्रशासन के नतमस्तक होने से लोकतंत्र शर्मसार हो रहा है।

राजनीति में अपराधियों के बोलबाले पर चिंता जताते हुए 2020 में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस नरीमन ने अहम फैसला दिया था। उसके अनुसार 2004 में 24, 2009 में 30, 2014 में 34 और 2019 में 43% सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे थे।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार प्रत्याशियों के खिलाफ चल रहे मामलों का ब्योरा प्रकाशित करना जरूरी है। लेकिन सरकारी प्रचार के आगे अपराधियों की जन्म-कुंडली नदारद रहने पर आयोग की चुप्पी चिंताजनक है।

पैसे, शराब, रेवड़ी, हिंसा और प्रोपगेंडा से वोट हासिल करना कानून का उल्लंघन है। गाजियाबाद के चुनाव अधिकारी ने 280 मदों में खर्च की सूची जारी की है। उसमें हेलीकॉप्टर पर 2.3 लाख, ड्रोन पर 16 हजार, खाने की थाली पर 100 और समोसे पर 10 रु. का खर्च निर्धारित हुआ है।

लोकसभा चुनावों में प्रत्याशियों के खर्च की अधिकतम लिमिट 95 लाख तय है। लेकिन उससे ज्यादा पैसा तो टिकट हासिल करने में खर्च हो जाता है। चुनावी खर्च को आयोग प्रभावी तरीके से नियंत्रित करे तो उद्योगपतियों व अपराधियों से नेताओं का गठजोड़ फेल हो सकता है।

आधुनिक तरीकों से समर्थकों और पार्टी के खर्चों का पूरा हिसाब रखने की जरूरत है। अक्टूबर 2013 में जारी सोशल मीडिया गाइडलाइंस के अनुसार डिजिटल मीडिया के प्रचार और खर्चों के लिए प्रत्याशी और पार्टियों के साथ टेक कम्पनियों की जवाबदेही भी सुनिश्चित होनी चाहिए। आम चुनावों में एआई का इस्तेमाल अवैध है, जिस पर आयोग को प्रतिबंध लगाने की जरूरत है।

16,518 करोड़ के बॉन्ड में 56% भाजपा को और बकाया 44% हिस्सा कांग्रेस और अन्य को मिला है। इसलिए कुछ लोगों की यह दिलचस्प थ्योरी है कि चुनावी बॉन्ड की बारूदी सुरंग में भाजपा से ज्यादा विपक्ष को नुकसान होगा।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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