चुनावी हवाओं के तीखे झोंके सीने से टकराते हैं खन्जर की तरह !
चुनावी हवाओं के तीखे झोंके सीने से टकराते हैं खन्जर की तरह
गाँव गुमनामी में डूबा हुआ है। मंदिर खामोशी में डूबा है और दीयों पर कालिख जम गई है। रौशनी इतनी मद्धम है कि हाथ को हाथ नहीं सूझता। फिर भी चुनाव आ रहे हैं। दडेगम। बेख़ौफ़। किसी गाँव में घुस आए शेर या बाघ की तरह। डराते, धमकाते हुए भी। … और खुद डरते, चमकते हुए भी।
कुछ ही दिन शेष हैं। डोंडी पीटी जाएगी। मुनादी की जाएगी। होशियार! ख़बरदार! चुनाव आ चुके हैं। नेताजी आने वाले हैं। आपके शहर, क़स्बे और गाँव, गली, हर जगह। आपको ज़्यादा से ज़्यादा तादाद में वोट देना है। अपने अधिकार का ‘भरपूर’ इस्तेमाल करना है। चाहो तो तख़्तो ताज बदल दो, चाहो तो सारे हालात बदल दो! आपका वोट। आपकी मर्ज़ी। चाहे जो कर सकते हो! अधिकारों और हक़ की बात इस जमाने में जितनी ताक़त से की जाती है, उतने भरोसे के साथ न तो किसी को आज तक कोई हक़ मिला है और न ही अधिकार। चाहे व्यवस्था हो, नेताजी हों या कोई सरकार! जोश सिर्फ़ बातों में रहता है, हक़ीक़त का धरातल आख़िर खुरदुरा ही रहता है।
जोशो- जुनून की इन बातों के बीच, नेताओं के उल्टे- सीधे बयानों के मध्य, कभी- कभी सोचने में आता है, मन में सवाल उठता है कि आम तौर पर, खासकर चुनावी माहौल में जो बोले और सुने जाते हैं, उन शब्दों का तापमान आख़िर कितना होना चाहिए? सवाल जितना टेढ़ा है, जवाब उतना ही आसान… कि आख़िर शब्दों के मुँह में थर्मामीटर कौन ठूंसे? मीटर केवल ये हो सकता है कि शब्दों का ताप इतना हो कि बोलने और सुनने वालों का मुँह न जले, कान न फटे। लेकिन ये शब्द आजकल बड़े ज़ालिम होते जा रहे हैं। कई बार अर्थों की नग्नता ढँकने को उनके गले शब्दों की बाँह डाली जाती है, लेकिन ये शब्द वहाँ भी कुछ कर गुजरते हैं। किसी मर्यादा पर नहीं रुकते!
ख़ैर, शब्दों की मर्यादा से आगे चलते हैं, जहां चुनावी शोर है। बड़ी आपाधापी है। ग़ज़ब की बेचैनी है। कोई किसी से कुछ कह नहीं पा रहा है। कोई किसी की सुन नहीं रहा है। पेंच लड़ रहे हैं। कोई इधर से उधर भाग रहा है। किसी को पूरी भागमभाग के बावजूद कहीं शरण नहीं मिल पा रही है। मीटिंग दर मीटिंग। बहस दर बहस। चली आ रही है चुनावी चकल्लस। फ़िलहाल चुनावी शोर सिर्फ़ राजनीतिक दलों के मीटिंग हॉल में है। बाहर टिकटार्थियों के मन में मोर नाच रहे हैं। वे पार्टियों तक अपना प्रोफाइल पहुँचा चुके। सिफ़ारिशें जितनी हो सकती थीं, सब कुछ भिजवा चुके, लेकिन कुछ निकला नहीं। मंथन चल रहा है। हर तरफ़।
किस पार्टी में पर्ची किन नामों की निकलेगी, अभी कहा नहीं जा सकता। पर्ची निकलते ही वे आएँगे। हम पर टूट पड़ेंगे। हमारी क़मीज़ को चीरते- फाड़ते हुए निकल जाएँगे और हम दूर जा गिरेंगे, या किसी कोने में जा बैठेंगे। किसी सूखी तुलसी से चिपककर या किसी फड़फड़ाते पत्तों वाले पीपल की आड़ में। चुनावी हवा के नुकीले झोंके हमारे सीने में उतरते जाएँगे। किसी खन्जर की तरह। नेता कहेंगे – आओ हमें वोट दो! हम तुम्हारी सारी समस्याएँ दूर कर देंगे। हम आम लोगों को तो वोट देने, नेताओं को बार- बार जिताने और उनकी सरकारें बनाने का ऐसा बुख़ार चढ़ा हुआ है जिसे आज तक चाँद भी ठण्डा नहीं कर सका।
नेता क्या हमारी समस्या दूर करेंगे भला? हमारे हिस्से में तो वही जमाना है जहां मोहताजी के सिवाय कुछ नहीं। हमारे साल जैसे मकड़ी का जाला। दिन इस तरह बिखरे- बिखरे हैं जैसे किसी रंगरेज़ की दुकान पर लटके हुए गीले कपड़े। वे आते हैं। बरगलाने हैं। जीतते हैं। … और हमारी आँखें बूढ़े बरगद की तरह ठण्डी ही रह जाती हैं। अफ़सोस में फिर मुँह से निकलता है- हमें किसी से क्या वास्ता? हम भले, दो कदमों जितनी हमारी ज़मीन भली और आँख भर का आसमां भला।