मतदाताओं की सूझबूझ को हल्के में नहीं ले सकते !
मतदाताओं की सूझबूझ को हल्के में नहीं ले सकते
अधिकांश लोगों की धारणा है कि 2024 के लोकसभा चुनावों का नतीजा पहले ही तय हो चुका है और इसमें भाजपा की जीत होगी। जीत के अनुपात को लेकर मतभेद हो सकते हैं, लेकिन अंतिम परिणाम पर कुछ ही लोगों को संदेह होगा।
इसके कारण भी सर्वविदित हैं : प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता जो निरंतर बनी हुई है, भाजपा का मजबूत संगठन और उसकी वित्तीय ताकत, उसके द्वारा रचा गया नैरेटिव, और सबसे बढ़कर, राष्ट्रीय स्तर पर एक विश्वसनीय विपक्ष की गैर-मौजूदगी। लेकिन इसके बावजूद हाल के सप्ताहों में भाजपा की कुछ गतिविधियों ने मुझे थोड़ा हक्का-बक्का किया है। हिंदुत्व उसका केंद्रीय कार्ड है।
हिंदुत्व की राजनीति हिंदू आस्था के समर्थन में भावनात्मक उत्साह जगाकर राजनीतिक लाभ प्राप्त करने की खुली नीति है। अयोध्या में भव्य राम मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा पर सभी आस्थावान हिंदुओं ने उत्सव मनाया था।
मंदिर का निर्माण सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के परिणामस्वरूप हुआ था, लेकिन यह अपेक्षित ही था कि भाजपा इसका श्रेय लेगी, खासकर तब जब अयोग्य विपक्ष के पास इस बिंदु पर भाजपा का मुकाबला करने की कोई रणनीति नहीं थी।
लेकिन इसके बावजूद ऐसा महसूस हो रहा है कि भाजपा का हिंदुत्व का नैरेटिव- जिसे कि प्रधानमंत्री के द्वारा विभिन्न मंदिरों में निरंतर दर्शन करने से बल मिलता है- अब अपनी पीक पर पहुंच रहा है। लोग इस बात से तो खुश हैं कि आखिरकार रामलला के लिए मंदिर बन गया, लेकिन शुरुआती उत्साह के बाद अब वे इस बात को लेकर चिंतित हैं कि सरकार बेरोजगारी, महंगाई, शिक्षा, स्वास्थ्य और बढ़ती विषमता जैसे मुद्दों पर क्या कर रही है।
आस्था का उपयोग शासन-प्रशासन के वैध मुद्दों से ध्यान हटाने के लिए एक निश्चित सीमा तक ही किया जा सकता है। क्या अब वह सीमा पार हो रही है? इसी तरह, धर्म के आधार पर मतदाताओं के ध्रुवीकरण की रणनीति भी अब थकाऊ और घिसी-पिटी लगने लगी है।
शुरुआत में जरूर इसका असर हुआ था, लेकिन हिंदू-मुस्लिम विद्वेष का निरंतर अलापा जाने वाला राग अब धीरे-धीरे अपनी अपील खो रहा है। अधिकांश भारतीय सामाजिक अस्थिरता या अंतहीन साम्प्रदायिक संघर्ष के पक्ष में नहीं हैं।
वे शांति से अपना जीवन बिताना चाहते हैं, और खासकर हिंदू या मुस्लिम त्योहारों पर हिंसा के अंदेशे से दूर जाना चाहते हैं। उन्हें यह भी अहसास है कि अल्पसंख्यकों की संख्या और उनके भौगोलिक विस्तार के मद्देनजर शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की नीति ही अंतत: देशवासियों के हित में है।
तीसरे, भ्रष्टाचार के खिलाफ भाजपा द्वारा युद्ध का जयघोष भी तेजी से अपना विश्वास खो रहा है। उसका लक्ष्य तो प्रशंसनीय है, लेकिन अब कथित तौर पर कई भ्रष्ट लोग- जिनके खिलाफ पार्टी ने व्यापक विरोध अभियान चलाया था- उसमें शामिल हो चुके हैं। ‘वॉशिंग मशीन’ सार्वजनिक रूप से ओवरटाइम कर रही है, और लोग सोचने पर विवश हो गए हैं कि क्या भाजपा सच में ही भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ रही है या वह राजनीतिक हितों से प्रेरित है?
यह धारणा भी बढ़ती जा रही है कि विपक्ष को निशाना बनाने के लिए ईडी, सीबीआई और आईटी जैसी एजेंसियों का जरूरत से ज्यादा दुरुपयोग किया जा रहा है। यह कोई संयोग नहीं हो सकता कि इन एजेंसियों के निशाने पर विपक्ष के नेता ही रहते हैं।
दो मुख्यमंत्रियों- अरविंद केजरीवाल और हेमंत सोरेन- को गिरफ्तार कर लिया गया है; कांग्रेस के फंड्स को बाधित कर दिया गया है और उस पर भारी आईटी जुर्माना लगाया गया है; और चुनाव की घोषणा होने के बाद भी अनेक विपक्षी नेताओं को ईडी द्वारा तलब किया जा रहा है।
वहीं- एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के अनुसार- मोदी कैबिनेट के 24 मंत्रियों पर डकैती, हत्या के प्रयास और हत्या सहित अन्य गम्भीर आपराधिक मामले हैं, लेकिन उन पर कोई जांच शुरू नहीं हुई है। वास्तव में, मुझे आश्चर्य है कि भाजपा को ‘प्रतिशोध’ की इस राजनीति की जरूरत क्यों है, जबकि यह मान लिया गया है कि वह पहले ही चुनाव जीत चुकी है?
चिंताएं इस बात को लेकर भी हैं कि भाजपा ने अपना पूरा चुनाव-अभियान केवल एक व्यक्ति पर केंद्रित कर दिया है। प्रधानमंत्री की लोकप्रियता निर्विवाद है, लेकिन यह पहली बार है, जब पूरी पार्टी को हाशिए पर धकेल दिया गया है।
हालांकि इन सब बातों से मोदी के लगातार तीसरे कार्यकाल पर संकट के बादल नहीं आ सकते, इसके बावजूद भाजपा को सावधान रहना चाहिए। क्योंकि मतदाताओं की बुद्धिमत्ता को कभी भी हल्के में नहीं लिया जा सकता है।
चुनाव की घोषणा होने के बाद भी विपक्षी नेताओं को ईडी द्वारा तलब किया जा रहा है। वहीं एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के अनुसार सरकार के 24 मंत्रियों पर आपराधिक मामले हैं, लेकिन उन पर कोई जांच शुरू नहीं हुई है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)