नौकरियां देने की जिम्मेदारी अकेले निजी क्षेत्र की नहीं !

नौकरियां देने की जिम्मेदारी अकेले निजी क्षेत्र की नहीं

आने वाले कई वर्षों तक सरकार को हर साल कम से कम 77 लाख नौकरियां देनी हैं। दूसरे नंबर पर निजी क्षेत्र का रवैया था। सर्वेक्षण में साफ कहा गया था कि निजी क्षेत्र अपने मुनाफे में आए जबर्दस्त उछाल (30%) के बावजूद नए रोजगारों का सृजन नहीं कर पा रहा है।

न ही वह अर्थव्यवस्था में नए निवेश की जिम्मेदारी निभाने को तैयार है। उसकी इस दोहरी अक्षमता के कारण कई साल से सरकार ही नया निवेश करती रही है, और सरकार को ही बेरोजगारी की समस्या का समाधान न कर पाने की तोहमत का सामना करना पड़ रहा है।

कुछ रोग ऐसे भी हैं, जिनका आर्थिक सर्वेक्षण में जिक्र नहीं था। अर्थव्यवस्था पर निगाह रखने वाला हर व्यक्ति जानता है कि भारत का असंगठित क्षेत्र 2016 की नोटबंदी के बाद से हर वर्ष 5% की रफ्तार से गिर रहा है। इस क्षेत्र का महत्व निजी और सरकारी उद्यमों के तहत चलने वाले संगठित क्षेत्र (उद्योग, कृषि और सेवा) से भी ज्यादा समझा जाता है।

आखिर इसमें देश की श्रम शक्ति का 94% हिस्सा सक्रिय रहता है। बेरोजगारी बढ़ने में इसकी प्रमुख भूमिका है। साथ ही लम्बे अरसे से हमारा बाजार मांग के ‘एनीमिया’ का शिकार है। ‘हाई एंड’ चीजें बिक रही हैं। छोटे-मझोले स्तर के बिना बिके उत्पादों से वेयरहाउस भरे पड़े हैं।

आर्थिक सर्वेक्षण ने यह भी नहीं माना था कि स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र को पर्याप्त निवेश का पौष्टिक आहार आजादी के बाद से शायद ही कभी मिला हो। इन सभी रोगों को मिला लें तो एक आंकड़ा सामने आता है। भारत प्रति व्यक्ति आमदनी के मामले में दुनिया में 142वें नंबर पर है। यह हमारी अर्थव्यवस्था की अरसे से अनसुलझी समस्याओं का परिणाम है।

जाहिर है कि एक बजट में ऐसे सभी रोगों का इलाज सम्भव नहीं हो सकता। लेकिन यह तो हो ही सकता था कि समस्याओं को स्वीकार करके कुछ दूरगामी इलाज प्रस्तावित किया जाता। बजट में सरकार बेरोजगारी से निपटने के लिए जद्दोजहद करती दिखती है। सरकार पहली बार निजी क्षेत्र को उसकी जिम्मेदारियां याद दिलाते हुए भी दिखती है।

लेकिन क्या इसे ठोस रूप से करने का पर्याय माना जा सकता है? सरकार ने नौकरियां देने की जिम्मेदारी निजी क्षेत्र को दे दी है। क्या पहली तनख्वाह की सब्सिडी, इंटर्नशिप की सब्सिडी और मुद्रा योजना में कर्ज की सीमा 10 से बढ़ाकर 20 लाख कर देने को ऊंट के मुंह में जीरा नहीं माना जाएगा?

जब निजी क्षेत्र की फैक्ट्रियां 70-75 फीसदी क्षमता पर चलेंगी, तो वह नए कारखाने क्यों लगाएगा? नया निवेश क्यों करेगा? सब्सिडी का लाभ लेने के लिए नई नौकरियां कैसे देगा? जब मुद्रा योजना में स्वरोजगार के लिए ऋण उठाने का सामान्य औसत 50 हजार रुपए ही है, तो उसका शीर्ष ऋण यानी 20 लाख रुपए गिने-चुने व्यक्तियों के अलावा और कौन उठाएगा?

अर्थव्यवस्था के सारे अंग एक-दूसरे से जुड़े होते हैं। जिन देशों में शिक्षा (केवल सवा लाख करोड़ की बढ़ोतरी) और स्वास्थ्य (सिर्फ 89,000 करोड़ की वृद्धि) पर खर्च नहीं किया जाता, उनके पास विकास के इंजिन को खींचने वाला स्वस्थ और शिक्षित नागरिक नहीं होता।

हमारे 75% ग्रेजुएट ‘नौकरी देने लायक’ ही नहीं होते। वे ऊंची प्रौद्योगिकी वाली मैन्युफैक्चरिंग में लगाए जाने के काबिल नहीं होते। भारत की ज्यादातर आबादी निचले स्तर वाले कौशलों में ही खप सकती है।

वित्त मंत्री चाहतीं तो बजट में नई परम्परा डाल सकती थीं। निजी अस्पतालों-विश्वविद्यालयों पर भरोसा करने के बजाय स्वास्थ्य-शिक्षा के लिए आबंटन जमकर बढ़ाने का कदम उठाया जा सकता था। असंगठित क्षेत्र की समस्याओं को स्वीकार करके उसके आंकड़े जमा करके जीडीपी की वास्तविक तस्वीर सामने लाई जा सकती थी।

कृषि के डिजिटलीकरण को बढ़ावा देने या कॉर्पोरेटीकरण करने के बजाय किसानों की आमदनी बढ़ाने के तरीके तलाशने के लिए उच्चाधिकार सम्पन्न कमीशन बनाया जा सकता था। मनरेगा को 86,000 करोड़ दिया गया है, लेकिन नीति आयोग के सुझाव पर अमल करते हुए ‘एक अर्बन मनरेगा’ की शुरुआत की जा सकती थी। बेरोजगारी एक टाइम बम है, जिसकी लगातार टिक-टिक किसी भी नेता की लोकप्रियता का क्षय कर सकती है। लोकसभा चुनाव के नतीजों से ज्यादा बड़ा इसका सबूत और क्या हो सकता है?

जब निजी क्षेत्र की फैक्ट्रियां ही 70-75 फीसदी क्षमता पर चलेंगी, तो वह नए कारखाने भला क्यों लगाएगा? वह कोई नया निवेश क्यों करेगा? सब्सिडी का लाभ लेने के लिए निजी क्षेत्र आखिर नई नौकरियां कैसे देगा?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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