एससी-एसटी आरक्षण में कोटे का मामला और तूल पकड़ेगा !

एससी-एसटी आरक्षण में कोटे का मामला और तूल पकड़ेगा

यद्यपि केंद्रीय मंत्रिमंडल ने एससी-एसटी के लिए आरक्षण में क्रीमी लेयर की शुरुआत को लेकर अटकलों को दूर करने की कोशिश की है और घोषणा की है कि इस तरह की कोई योजना नहीं है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले के कार्यान्वयन पर सवाल बने हुए हैं, जिसमें राज्यों को अधिक पिछड़े लोगों के लिए अलग कोटा देने के उद्देश्य से उप-वर्गीकरण करने की अनुमति दी गई है।

मंगलवार को इसके विरोध में भारत-बंद किया गया। एससी के उप-वर्गीकरण की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने बहसों को जन्म दिया है। राजनीतिक बहस इसलिए गरमाई, क्योंकि फैसले ने न केवल उप-वर्गीकरण की अनुमति दी, बल्कि कई न्यायाधीशों ने एससी आरक्षण से क्रीमी लेयर को बाहर करने पर राय भी व्यक्त की है।

यहां दो मुद्दे दांव पर हैं- एक कानूनी और दूसरा राजनीतिक। फैसले के आलोचक सही कह रहे हैं कि एससी आरक्षण का आधार भेदभाव का ऐतिहासिक अनुभव है। दलितों के भीतर असमानताएं हैं, लेकिन यह बात अप्रासंगिक है।

विशेषाधिकार-प्राप्त दलित होना भी किसी को भेदभाव से नहीं बचाता। लेकिन मंडल के तहत आरक्षण के विस्तार ने ऐसी स्थितियां पैदा की हैं, जहां दलितों और ओबीसी की स्थिति लगातार उलझी हुई है। दोनों के साथ वंचना की एक ही कहानी जुड़ी हुई है। लेकिन न केवल उनके इतिहास अलग हैं, बल्कि कभी-कभी वे एक-दूसरे से टकराते भी रहे हैं। जब दोनों एक हो गए तो दलितों के अनुभव की विशिष्टता- जो पिछड़ेपन में नहीं, बल्कि भेदभाव में निहित है- खो गई। अब आरक्षण को मुख्य रूप से पिछड़ेपन के ढांचे में ही समझा जाता है।

लेकिन दूसरी ओर, भले ही आप इस बात से सहमत हों कि भेदभाव के मामले में दलित एक हैं, फिर भी क्या एससी के आरक्षण को सिर्फ कुछ जाति समुदायों को ही लाभ पहुंचाने की अनुमति दी जा सकती है? सीजेआई के फैसले में यह माना गया कि ऐसा नहीं हो सकता। यह तथ्य कि दलित एक ही वर्ग हैं, दलितों के भीतर मौजूद वितरण के सवालों को दूर नहीं कर सकता।

इस फैसले के राजनीतिक नतीजे दो दावों पर आधारित हैं। पहला, क्या यह आरक्षण को कमजोर करने की चाल है? इस डर को सिर्फ यह कहकर दूर किया जा सकता है कि उप-वर्गीकरण नियमों के तहत जो भी पद खाली रह गए हैं, उन्हें वापस एससी कोटे में ही रखा जा सकता है।

दूसरा यह कि यह दलित राजनीति को विभाजित करने की कोशिश है। लेकिन यह प्रतिनिधित्व के उस तर्क का अपरिहार्य परिणाम है, जिसे हम अपनाते आ रहे हैं। विपक्ष ने जो नारा दिया है कि ‘जितनी आबादी, उतनी हिस्सेदारी’, वह उप-विभाजन के तर्क पर ही आधारित है।

दलित राजनीतिक चेतना पहले ही दलितों के बीच असमानता और दलित राजनीति करने वाले दलों के कमजोर होने से धीमी हो रही थी। इस दावे में कुछ अजीब बात है कि एक काल्पनिक दलित एकता की राजनीतिक परियोजना को न्याय के सिद्धांत पर प्राथमिकता दी जानी चाहिए।यह उन कई दलित समूहों को सम्मान से वंचित करना भी है, जो उप-विभाजन के लिए आंदोलन कर रहे हैं।

सर्वोच्च न्यायालय ने उचित ही रेखांकित किया है कि आरक्षण योग्यता के विरुद्ध नहीं है। वास्तव में आरक्षण उन समुदायों से योग्यता की पहचान करने का उपकरण है, जिन्हें ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर रखा गया है। लेकिन इसमें संदेह नहीं कि उप-वर्गीकरण को लागू करना गंभीर प्रशासनिक चुनौती होगी।

कल्पना कीजिए कि एक नियुक्ति-रोस्टर बनाने की कोशिश की जाए, जिसमें बारी-बारी से उप-जातियों को ध्यान में रखा जाए! उस प्रशासनिक संस्कृति के बारे में सोचें, जहां हर नए पद के साथ एक उप-जाति जुड़ी होगी!

दूसरी तरफ, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा डेटा की मांग जाति जनगणना के लिए अधिक दबाव बनाएगी। लेकिन आरक्षण नीति हमें अनिवार्य पहचान के लिए अभिशप्त भी बनाती है। हम जाति से परे नहीं जा पाते। सामाजिक न्याय व्यापक पैमाने पर होना चाहिए, लेकिन यह हमारी कल्पनाशीलता की कमी है कि हम विकल्प आजमाने के लिए तैयार नहीं हैं।

दलित आरक्षण को यथावत रखते हुए अन्य समुदायों के लिए विकल्प आजमाना उचित है। दलितों या ओबीसी के वास्तविक सशक्तीकरण के लिए आय, आवास, शिक्षा, कौशल, स्वास्थ्य सेवा सहित नौकरियों के लिए जातिगत-डेटा की आवश्यकता होती है। असली त्रासदी यह है कि जो लोग सबसे जोर-शोर से सामाजिक न्याय की बात करते हैं, वो शायद ही कभी सशक्तीकरण के वास्तविक निर्धारकों की परवाह करते हैं।

सामाजिक न्याय व्यापक पैमाने पर होना चाहिए, लेकिन यह कल्पनाशीलता की कमी है कि हम विकल्प आजमाने के लिए तैयार नहीं हैं। दलित आरक्षण को यथावत रखते हुए अन्य समुदायों के लिए विकल्प आजमाना उचित है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

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