भारत में …..लोगों में बढ़ रही है जान देने की प्रवृत्ति ?

भारत में चुपचाप पैर पसार रही है एक बीमारी; लोगों में बढ़ रही है जान देने की प्रवृत्ति

भारत में एक ऐसी बीमारी चुपचाप पैर पसार रही है, जिसके बारे में खुलकर बात करना अभी भी बहुत से लोगों के लिए मुश्किल है. ये बीमारी है- मानसिक बीमारी. और इसका सबसे गंभीर रूप है- आत्महत्या.

आजकल हम अक्सर सुनते हैं कि किसी ने खुदकुशी कर ली. ऐसी आत्महत्या की खबरें आम हो गई हैं. ये सिर्फ एक आंकड़ा नहीं है, बल्कि एक इंसान की जिंदगी का खत्म होना है, एक परिवार का बिखरना है.

दुनियाभर में हर साल 7 लाख 26 हजार लोग खुदकुशी कर लेते हैं. इसके अलावा, लाखों लोग खुदकुशी की कोशिश करते हैं. 2021 में दुनिया भर में 15 से 29 साल के युवाओं में खुदकुशी तीसरे नंबर की मौत का कारण थी. 

आत्महत्या को लेकर एक गलतफहमी ये है कि यह सिर्फ अमीर देशों में होती है, लेकिन सच यह है कि आत्महत्या हर देश में हो रही है. 2021 में दुनिया भर में जो आत्महत्या हुई, उसमें से लगभग 73% आत्महत्याएं कम और मध्य-आय वाले देशों में हुईं.

भारत में क्या है स्थिति
भारत में भी आत्महत्या एक गंभीर नेशनल पब्लिक हेल्थ मुद्दा है, जिस पर अब भी उतनी चर्चा नहीं होती. दुर्भाग्य से, हमारे देश में मानसिक बीमारी को लेकर भी गलतफहमी है. लोग मानसिक बीमारी को कमजोरी समझते हैं. इस वजह से, कई लोग मानसिक समस्या होने पर भी डॉक्टर के पास जाने से कतराते हैं.

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में आत्महत्या पीड़ितों में 72.5% पुरुष हैं. इसका मतलब है कि मर्दों में मानसिक स्वास्थ्य की गंभीर समस्या है. साल 2021 में महिलाओं की तुलना में 73,900 से अधिक पुरुषों ने आत्महत्या की. यह तब है जब शोध बताता है कि महिलाओं में चिंता और अवसाद का स्तर अधिक होता है.

भारत में चुपचाप पैर पसार रही है एक बीमारी; लोगों में बढ़ रही है जान देने की प्रवृत्ति

18 से 59 साल के उम्र के मर्दों में आत्महत्या के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं. खासकर दिहाड़ी मजदूरों में तो 2014 से 2021 के बीच आत्महत्या के मामले 170.7% बढ़ गए हैं. वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन के अनुसार, 2016 में भारत में हर 100,000 लोगों में से 16.5 लोग खुदकुशी कर लेते थे, जबकि दुनियाभर में ये औसत 10.5 था. सबसे ज्यादा जोखिम में 15 से 29 साल के युवा, बुजुर्ग हैं.

एक और चौंकाने वाली बात है महिलाओं में डिप्रेशन और चिंता जैसी मानसिक बीमारियां ज्यादा होती हैं. तो फिर सवाल उठता है कि आखिर मर्दों में आत्महत्या की दर क्यों ज्यादा है.

मर्दों की चुप्पी है बढ़ती समस्या?
हमारे समाज में मर्दों से हमेशा मजबूत रहने की उम्मीद की जाती है. उन्हें भावनात्मक होने से रोका जाता है. इस वजह से, मर्द अपनी मानसिक समस्याओं को छिपा लेते हैं और मदद लेने से कतराते हैं. उन्हें लगता है कि भावनात्मक होना कमजोरी है. इस वजह से वह अपनी समस्याओं को अंदर ही अंदर दबाते रहते हैं. इन दबे हुए भावनाओं का असर उनकी सेहत पर पड़ता है. 

महिलाएं अपनी भावनाओं को जाहिर करती हैं, जिससे उन्हें राहत मिलती है. लेकिन, कई मर्द गलत तरीके से अपनी समस्याओं से निपटने की कोशिश करते हैं. जैसे कि शराब पीना, सिगरेट पीना या ड्रग्स लेना. ये आदतें न सिर्फ उनकी सेहत को खराब करती हैं, बल्कि उनकी मानसिक समस्याओं को भी बढ़ा देती हैं.

दुर्भाग्य से मर्दों को मानसिक स्वास्थ्य के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं होती है. उन्हें नहीं पता होता कि मानसिक समस्याओं का इलाज संभव है. 

क्यों बढ़ रही है आत्महत्याएं?
इसका कोई एक कारण नहीं है. कई कारण मिलकर इस समस्या को जन्म देते हैं. मानसिक स्वास्थ्य की समस्याओं को अक्सर हल्के में लिया जाता है. बहुत से लोग मानसिक बीमारियों को कमजोरी समझते हैं और इसकी बात करने से शर्म महसूस करते हैं. ऐसे में मानसिक तनाव, डिप्रेशन और चिंता जैसी समस्याएं इतनी सामान्य हो गई हैं कि लोग इन्हें खुद से संभालने की कोशिश करते हैं. यह समस्याएं धीरे-धीरे लोगों को आत्महत्या की ओर धकेल देती हैं. 

इसके अलावा बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी के कारण लोग मानसिक रूप से टूटते जा रहे हैं. कई लोग अपने परिवार की जिम्मेदारी, कर्ज और भविष्य की चिंता से जूझते हुए आत्महत्या जैसे कदम उठाते हैं. वहीं आजकल लोग एक-दूसरे से जुड़ाव कम महसूस करते हैं. अकेलापन और उपेक्षा भी आत्महत्या के कारण बन सकते हैं. लंबी बीमारी या दर्द भी आत्महत्या के खतरे को बढ़ा सकते हैं.

सोशल मीडिया पर लोगों की जिंदगी की तुलना दूसरों से करना और वहां पेश की जाने वाली ‘आदर्श जिंदगी’ को देखकर कई लोग मानसिक रूप से दबाव महसूस करते हैं. यह उन्हें अपनी असफलताओं और कमजोरियों को अस्वीकार करने के लिए प्रेरित करता है.

भारत में मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति: कितनी गंभीर है समस्या?
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, भारत में हर 100,000 लोगों में से 21.1 लोग आत्महत्या कर लेते हैं. नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरो-साइंसेज के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में 80% से ज्यादा लोगों को मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं नहीं मिल पाती हैं.

नेशनल मेंटल हेल्थ सर्वे (NMHS) 2015-16 के अनुसार, भारत में 10.6% वयस्क मानसिक बीमारियों से पीड़ित हैं और सबसे खराब बात ये है कि इन बीमारियों का इलाज कराने वालों की संख्या बहुत कम है. अलग-अलग बीमारियों के लिए इलाज का अंतर 70% से 92% के बीच है. इन आंकड़ों से साफ है कि भारत में मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति कितनी गंभीर है.

भारत में चुपचाप पैर पसार रही है एक बीमारी; लोगों में बढ़ रही है जान देने की प्रवृत्ति

भारत में मानसिक स्वास्थ्य की समस्या सुधारने का प्रयास
भारत में मानसिक बीमारियों का बोझ काफी ज्यादा है और मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों की कमी है. इस समस्या से निपटने के लिए सरकार ने 1982 से राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम (NMHP) चला रही है. 2003 में इस कार्यक्रम को फिर से रणनीतिक रूप से तैयार किया गया था. इस कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य मानसिक विकारों के इलाज को सरल और सुलभ बनाना है.

भारत में मानसिक स्वास्थ्य देखभाल से जुड़े मुद्दों पर ध्यान देने के लिए 2017 में मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम (Mental Health Care Act 2017) लागू किया गया. इसके अलावा, 2020 में सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने चिंता, तनाव, अवसाद, आत्महत्या के विचारों और अन्य मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का सामना कर रहे लोगों की मदद के लिए 24/7 टोल-फ्री हेल्पलाइन सेवा ‘किरण’ शुरू की. साथ ही, हर उम्र के लोगों की मदद के लिए 2021 में भारत सरकार ने मानस ऐप लॉन्च किया. 

पहले भारतीय दंड संहिता (IPC) के कुछ हिस्से, जैसे धारा 224 के तहत आत्महत्या की कोशिश करने को अपराध मानते थे. लेकिन अब आत्महत्या की कोशिश को दंडनीय अपराध केवल कुछ विशेष परिस्थितियों में ही माना जाता है. अगर कोई व्यक्ति आत्महत्या करने की कोशिश करता है तो उसे एक साल तक की सजा हो सकती है.

आत्महत्या रोकने के लिए WHO का प्रयास
WHO और UN जैसी बड़ी संस्थाएं इस मुद्दे को बेहद गंभीरता से ले रही हैं. खास बात ये है कि UN के सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स में मानसिक स्वास्थ्य के लिए एक टारगेट रखा गया है- ये है सुसाइड रेट को कम करना. 

2014 में WHO ने एक रिपोर्ट जारी की थी जिसका नाम था ‘Preventing suicide: a global imperative’. इस रिपोर्ट का मकसद था लोगों को जागरूक करना कि सुसाइड कितनी बड़ी सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या है. साथ ही WHO ने सभी देशों से अपील की कि वे सुसाइड रोकने के लिए ठोस रणनीति बनाएं.

WHO ने साफ कर दिया है कि सुसाइड रोकने के लिए हर देश को एक व्यापक रणनीति बनानी होगी. इसमें सिर्फ स्वास्थ्य विभाग ही नहीं, बल्कि समाज के हर तबके को शामिल करना होगा. WHO का मानना है कि अगर सही तरीके से कोशिश की जाए, तो सुसाइड को रोका जा सकता है.

आत्महत्या समस्या का कोई समाधान नहीं है. अगर आप या आपके कोई जानने वाला इस समस्या से जूझ रहा है, तो कृपया मदद लें. याद रखें, आप अकेले नहीं हैं. 

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