क्या एक वोटर के वोट का मूल्य दूसरे से कम होता है?
गाजियाबाद के सांसद अतुल गर्ग करीब 29 लाख लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं। वहीं उनके पड़ोसी बागपत के सांसद राजकुमार सांगवान इससे करीब 12 लाख कम यानी 17 लाख लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं। लक्षद्वीप के सांसद सिर्फ 48000 लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जबकि तेलंगाना के मलकाजगिरी के सांसद के पास 30 लाख से ज्यादा का मतदाता-वर्ग है। विषमताओं का आलम यह है कि दिल्ली के दो विधानसभा क्षेत्रों- कैंटोनमेंट और विकासपुरी में क्रमशः 78,800 और 4,62,000 मतदाता हैं।
जाहिर है कि इन तमाम जनप्रतिनिधियों में से प्रत्येक पर काम का बोझ अलग-अलग होगा। इसका यह भी मतलब है कि लक्षद्वीप में एक मतदाता का वोट गाजियाबाद के किसी मतदाता की तुलना में 60 गुना अधिक मूल्य रखता है।
विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी द्वारा हाल ही में प्रकाशित ‘व्हेयर डु वी ड्रॉ द लाइन?’ नामक रिपोर्ट में परिसीमन प्रक्रियाओं के कारण होने वाली ऐसी विसंगतियों पर प्रकाश डाला गया है। रिपोर्ट कहती है कि एक व्यक्ति के वोट का मूल्य देश के किसी भी अन्य वोटर के वोट के मूल्य के बराबर होना चाहिए।
यही कारण है कि परिसीमन पर आज जो जोरदार बहस चल रही है, वह भारतीय लोकतंत्र के लिए आवश्यक है। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन को डर है कि अगर इसके लिए जनसंख्या को मानदंड बनाया गया तो तमिलनाडु को उत्तर भारत के अधिक आबादी वाले राज्यों की तुलना में लोकसभा में सीटों का घाटा होगा। नतीजतन, परिसीमन जनसंख्या नियंत्रण की सफलता पर जनमत-संग्रह जैसा बन गया है
परिसीमन का मतलब ही प्रभावी प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना है। प्रतिनिधित्व निर्धारित करने के लिए जिम्मेदार फैक्टर्स में से एक जनसंख्या है। लेकिन जैसा कि एससी-एसटी और महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों से पता चलता है, प्रतिनिधित्व पहचान के बारे में भी है। जनसंख्या अहम है, लेकिन यह निर्वाचन क्षेत्रों का सीमांकन करने वाला एकमात्र फैक्टर नहीं है।
यही कारण है कि 2026 में संसदीय सीटों के परिसीमन को लेकर दक्षिणी राज्यों की चिंता जायज है। यदि परिसीमन राजनीतिक लाभ और हानि के आधार पर किया जाएगा, तो यह न केवल सीमाओं को प्रभावित करेगा, बल्कि संघीय निष्पक्षता के सिद्धांत का भी उल्लंघन करेगा।
विभिन्न राज्यों को सीटें आवंटित करना भारत में एक राज्य होने के अर्थ की एक अच्छी तरह से स्वीकृत समझ पर आधारित होना चाहिए। तमिलनाडु का यह सवाल जायज है कि कृत्रिम समानता को बहुत अलग-अलग राज्यों पर नहीं थोपा जा सकता।
स्वतंत्रता के समय, देश के राज्य किसी संबद्धता के आधार पर स्वतंत्र समूह नहीं थे। 1956 में जाकर भाषाई आधार पर राज्यों का पुनर्गठन किया जा सका था। तब भी, एक अघोषित समझ यह थी कि भारतीय संघ प्रत्येक राज्य को अपने विषयों में संप्रभु और समान मानेगा। लेकिन छोटे राज्यों को केंद्रीय निधियों के बड़े आवंटन के माध्यम से तरजीह दी गई थी। बड़े राज्यों को उनके छोटे समकक्षों का ट्रस्टी बना दिया गया।
आजादी के बाद 75 से अधिक वर्षों में यह समझौता संघीय निष्पक्षता के कार्यशील समझौते को बनाए रखते हुए भारत की एकता को कायम रखने में सफल रहा है। शायद यही कारण है कि योगेंद्र यादव ने हाल ही में संसद में सीटों के वर्तमान वितरण को ही हमेशा के लिए स्थिर रखने का तर्क दिया है।
यह शांति बनाए रखने के साधन के रूप में आकर्षक जरूर लग सकता है, लेकिन थोड़ा गहराई में देखने पर इसमें आपको उलझन होगी। क्योंकि कोई भी सांसद 30 लाख लोगों का प्रभावी ढंग से प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है। जबकि ब्रिटेन में यह संख्या मात्र एक लाख ही है।
इतना ही महत्वपूर्ण विषय यह है कि संसद में राज्यों का प्रतिनिधित्व कैसे किया जाए। क्या संघवाद के सिद्धांत को तमिलनाडु जैसे अमीर राज्यों को अधिक सीटों से पुरस्कृत करना चाहिए? या क्या राज्यों का प्रतिनिधित्व प्रमुख मानव विकास संकेतकों की उपलब्धि से जुड़ा होना चाहिए, जो सरकारों को उनके प्रदर्शन को बेहतर बनाने के लिए प्रोत्साहित करे?
एक और बुनियादी महत्व का सवाल यह है कि सरकार की तेजी से बढ़ती प्रेसिडेंशियल शैली में एक सांसद की भूमिका वास्तव में क्या है? यदि सांसद न तो कानून की सक्रिय रूप से जांच कर रहे हैं (जिनमें उनका वोट पार्टी-व्हिप द्वारा निर्धारित होता है) और न ही नीति-निर्माण में योगदान दे रहे हैं तो क्या हम सांसद की भूमिका और परिणामस्वरूप सांसदों की संख्या पर भी पुनर्विचार नहीं कर सकते हैं?
केंद्र और राज्य एक सर्वदलीय बैठक में बैठें और व्यावहारिक संघीय समझौते पर बातचीत करें। निर्वाचन क्षेत्रों का इस तरह परिसीमन हो कि प्रभावी प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो और राज्यों को सीटों के आवंटन में संघीय निष्पक्षता भी झलके। (ये लेखक के अपने विचार हैं।)