दलबदल घाटे का सौदा … 100 दलबदलुओं में से 15 से भी कम जीत सके चुनाव, गवाह है पिछले 10 चुनावों का रिकॉर्ड

उत्तर प्रदेश में कड़कड़ाती ठंड के साथ इन दिनों दलबदल का मौसम भी है। टिकट बंटने की बारी आते ही पिछले एक हफ्ते में दो बड़े मंत्रियों समेत 15 से ज्यादा विधायक बीजेपी छोड़ सपा में और सपा के कई विधायक और नेता बीजेपी का दामन थाम चुके हैं। सभी दलबदलू फिर से विधायक बनने का सपना संजोए बैठे हैं, लेकिन पिछले 10 चुनावों के आंकड़े तो कुछ और ही बता रहे हैं। इसके मुताबिक 100 दलबदलुओं में से 15 से कम ही चुनाव जीत सके हैं।

हां, इस आंकड़ेबाजी का एक जरूरी पहलू और भी है। अगर दल बदलने वाला मौसम वैज्ञानिक है। यानी अगर उसे यह पता है कि चुनावी लहर किस ओर चल रही है तो उसकी जीत की संभावना बढ़ जाती है। अब इस बात को भी आंकड़ों की भाषा में समझते हैं। अगर दलबदलू ने अपना ठिकाना उस पार्टी को बनाया जो चुनाव बाद सरकार बना लेती है तो उसकी जीत की उम्मीद 84% हो जाती है। पिछले तीन चुनाव तो कम से कम यही बता रहे हैं।

ऐसे में आइए जानते हैं कि यूपी में अब तक पाला बदलने वाले नेता कितने फायदे में रहे। या पाला बदलना नेताओं के लिए कितना घातक सिद्ध हुआ है?

लहर पहचानने वाले मौसम विज्ञानी फायदे में रहे

चुनाव से पहले जीत की लहर को समझने वाले नेता हमेशा से फायदे में रहे हैं। दलबदल करने वाले ऐसे नेताओं का विनिंग फैक्टर भी काफी ज्यादा होता है। 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले स्वामी प्रसाद मौर्य का पाला बदलकर बसपा से बीजेपी में आना फायदे का सौदा साबित हुआ। उन्होंने चुनाव में जीत दर्ज की और कैबिनेट मंत्री बने।

वहीं दारा सिंह चौहान भी 2015 में बीजेपी से जुड़े। इसके बाद बीजेपी ने उन्हें OBC मोर्चा का अध्यक्ष बनाया। साथ ही 2017 में चुनाव जीतने के बाद कैबिनेट मंत्री बनाया गया। आंकड़े भी इसी ओर इशारा करते हैं। 2017 में बीजेपी ने चुनाव जीता। इसका फायदा पाला बदलकर बीजेपी में आए नेताओं को भी हुआ। ऐसे 80% नेताओं ने चुनाव में जीत दर्ज की।

पहली बार चुनाव लड़ने वाले नेताओं के जीतने की दर अधिक

नेताओं को पाला बदलने के लिए एक और फैक्टर मजबूर करता है। वो है पहली बार चुनाव लड़ने वाले नेताओं के जीतने की दर का अधिक होना। इसमें 1996 के बाद से लगातार वृद्धि देखने को मिल रही है। ऐसे में यह फैक्टर पार्टियों को दो बार से ज्यादा चुनाव लड़ चुके नेताओं को फिर से मौका देने से रोकता है। यही कारण है कि चुनाव से पहले दलबदल करने वाले नेताओं की संख्या बढ़ जाती है। क्योंकि ऐसे नेताओं को अपने टिकट कटने का खतरा महसूस होने लगता है।

2002 में पहली बार चुनाव लड़ने वाले 268 नेताओं ने जीत दर्ज की थी। जबकि दूसरी बार चुनाव लड़ रहे सिर्फ 82 लोगों ने जीत दर्ज की। वहीं तीसरी बार लड़ने वाले मात्र 32 लोग चुनाव जीत सके। वहीं 2017 में पहली बार चुनाव लड़ने वाले 314 लोग विधायक बने। तथा दूसरी बार चुनाव लड़ने वाले 68 और तीसरी बार चुनाव लड़ने वाले मात्र 15 लोग ही विधायक बन पाए।

मौजूदा विधायकों के सामने टिकट पाने की चुनौती

आज के समय में पार्टियों के पास ज्यादा ऑप्शन मौजूद हैं। ऐसे में मौजूदा विधायकों और मंत्रियों के सामने टिकट पाने की चुनौती होती है। इसका प्रमुख कारण पिछले चार चुनावों को देखने से समझ में आता है। इस दौरान सभी पार्टियों ने सिर्फ 40% मौजूदा विधायकों को ही दोबारा पार्टी से टिकट दिया।

ऐसे में मौजूदा विधायकों के टिकट कटने का खतरा ज्यादा होता है। इसलिए कई मौजूदा विधायक चुनाव के दौरान टिकट पाने के लिए पार्टी बदलने तक को तैयार हो जाते हैं। साथ ही सत्ता में रहने वाली पार्टियां सत्ता विरोधी लहर को कम करने के लिए भी मौजूदा विधायकों और मंत्रियों को कम संख्या में टिकट देते हैं।

   

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