MLA का चुनाव लड़ने मुर्दा कैसे आया? … 20 साल से खुद को जिंदा साबित करने के लिए लड़ रहे, सलमान ने फिल्म भी बना दी…पर सरकार नहीं मानी
बात तो बस इतनी सी है कि एक जिंदा आदमी खुद को जिंदा बता रहा है, लेकिन 20 साल से सरकार, पुलिस-प्रशासन कोई मानने के लिए ही तैयार नहीं है। सीएम-डीएम-मानवाधिकार आयोग समेत सरकार की कोई चौखट नहीं होगी, जिसे वाराणसी के संतोष मूरत सिंह ने खटखटाया न हो।
अब उनको किसी ने ज्ञान दिया कि चुनाव लड़ जाओ। जीत गए तो लोग ऐसे ही मान लेंगे और यही पुलिस-प्रशासन सलाम ठोंकेगा वो अलग। ऐसे में संतोष ने कानपुर के महाराजपुर विधानसभा से नामांकन दाखिल कर दिया। अफसोस, यहां भी किसी ने शिकायत कर दी कि ये तो जिंदा आदमी ही नहीं है। …और वहां मौजूद अफसर ने उसका नामांकन पत्र खारिज कर दिया।
फिल्म स्टार नाना पाटेकर के मिलने से शुरू हुई कहानी

ये कहानी शुरू होती है 1998 से, जब फिल्म स्टार नाना पाटेकर उसके गांव में शूटिंग करने के लिए आए थे। संतोष ने उनको अपने हाथों से बनाकर खाना खिलाया। नाना खुश हो गए और उन्होंने संतोष को मुंबई चलने का ऑफर दिया। उस समय ताे वह नहीं जा सका, लेकिन दो साल बाद मुंबई गया तो नाना ने उसे अपना रसोइया रख लिया। 3 साल वह मुंबई की रंगीन दुनिया में खोया रहा।
2003 में जब वापस लौटा तो अपने घर के सारे रंग बिखर चुके थे। गांव में उनके हिस्से की करीब 12.5 एकड़ जमीन, बाग बगीचा आदि पट्टीदारों ने कब्जा कर लिया था। वह भागकर पुलिस-प्रशासन, अमीन-रजिस्ट्री आफिस सब जगह गए…हर जगह एक ही जवाब मिला कि आप जिंदा हैं तो ई मरा संतोष कहां से आ गया। दरअसल पट्टीदारों ने संतोष का ही डेथ सर्टिफिकेट बनवाकर उसकी पूरी संपत्ति अपने नाम करा ली थी। यहीं से जिंदा होने के सबूत की जो तलाश शुरू हुई, अब तक चल ही रही है।
इनके संघर्ष पर फिल्म कैसे बनी
संतोष ने बताया कि मुंबई में काम के दौरान कई फिल्म वालों से संपर्क हो गया था। उन्हें बिग बॉस शो में बुलाया गया था और उनका ऑडिशन भी हुआ। इतना ही नहीं, उनकी कहानी को फोन के जरिए भी पूछ-पूछ कर उनके जीवन से जुड़ा एक-एक तथ्य जुटाया गया। हालांकि, उनके पास फिल्म से संबंधित कोई एग्रीमेंट नहीं हुआ है।
उनकी कहानी पर कागज फ़िल्म बना दी गई। इसके निर्माता सलमान खान हैं और इसमें हीरो पंकज त्रिपाठी हैं। जानकारी होने के बाद उन्होंने जब अपनी कहानी के चोरी होने का दावा ठोंका तो फिल्म निर्माता का पलड़ा भारी पड़ा।
चुनाव लड़ने की कोशिश से शुरू हुई नई कहानी

संतोष ने कहा कि कानपुर कचहरी पहुंचकर भाजपा के दिग्गज नेता कैबिनेट मंत्री सतीश महाना के खिलाफ महाराजपुर विधानसभा से पर्चा दाखिल किया। गांव के लोगों ने ही शिकायत कर दी कि मैं जिंदा ही नहीं हूं। मेरा नामांकन भी रद्द हो गया। अब कौन कहे कि जो जिंदा सामने खड़ा है, उससे तो पूछ लो। वह गुरुवार को फिर से डीएम और कमिश्नर से मिलकर अपना पक्ष रखेंगे। उनका कहना है कि नामांकन गलत तरीके से खारिज किया गया है। फिर भी उनकी सुनवाई नहीं हुई तो कानपुर में गुरुवार से धरना-प्रदर्शन भी करेंगे।
जिंदा साबित करना जरूरी क्यों?
दरअसल, जीने के लिए खुद को जिंदा साबित करना जरूरी नहीं है, लेकिन जो जमीन लोगों ने कब्जा कर ली है, वह बिना ये साबित किए वापस नहीं पाई जा सकती। पूरी लड़ाई इसीलिए है। उनके पास बाकी पहचान पत्र भी हैं, लेकिन रजिस्ट्रार आफिस में जो जमीन उनके मृत्यु प्रमाण पत्र के आधार पर दूसरे को दे दी गई, वह तभी वापस मिलेगी जब अफसर ये मान लें कि उनसे गलती हुई।…अब दूसरा अफसर पहले की गलती को अपने सिर क्यों ले? इसीलिए ये संघर्ष 20 साल से ऐसे ही बना हुआ है।