उत्तर प्रदेश में चुनाव के पंडित- बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना!

पंडितों में गौतम बुद्ध नगर के सांसद महेश शर्मा को केंद्र में मंत्री ना बनाए जाने से नाराज़गी है तो मेरठ में ब्राह्मण नेता लक्ष्मीकांत वाजपेयी की उपेक्षा से वे नाराज़ हैं. असली सवाल यह है, कि कोई भी राजनैतिक दल उत्तर प्रदेश में दबंग ब्राह्मण नेतृत्व को आगे नहीं आने दे रहा.

यह पहली बार हुआ है, कि उत्तर प्रदेश  में ब्राह्मण (Brahmin) हाशिए पर हैं. वह अपनी इस उपेक्षा से ना दुखी है, ना बेचैन है और ना ही वोकल है. यूं ऊपरी तौर पर किसी भी राजनैतिक दल ने उसे नाराज़ नहीं किया है. बीजेपी (BJP) ने उसे 68 टिकट बांटे तो एसपी (SP), बीएसपी (BSP) और कांग्रेस (INC) भी उनको टिकट देने में उदार रहीं. किंतु वह यह टीस कैसे भूले कि प्रदेश में उनसे आधी आबादी वाले राजपूतों (ठाकुरों) को बीजेपी ने 71 टिकट दिए हैं. ब्राह्मणों की यह नाराज़गी किसे भारी पड़ेगी और किसे लाभ पहुंचाएगी, यह तो 10 मार्च के बाद ही पता चलेगा लेकिन सभी दलों के नेताओं के माथे पर शिकन तो है.

उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों की आबादी 13 से 15 प्रतिशत के बीच बताई जाती है. कई विधानसभा सीटों पर तो उनकी संख्या किसी भी दबंग कही जाने वाली जाति से अधिक है. और वह कभी भी किसी के लिए झुंड बना कर वोट नहीं करता. यहां तक कि तब भी नहीं जब कांग्रेस को घोषित तौर पर पंडितों की पार्टी कहा जाता था.

लेकिन यह सच है, कि 2017 में उसने बीजेपी के लिए वोट किया था. शायद यह मोदी के व्यक्तित्त्व का कमाल था, कि यूपी में ब्राह्मण बीजेपी के साथ गया. तब योगी आदित्यनाथ का कोई चेहरा नहीं था. पर 2022 में वह न तो बीजेपी के साथ सहज है न एसपी के साथ. बीएसपी और कांग्रेस के उम्मीदवारों के प्रति भी उसका रवैया क़तई उत्साहजनक नहीं दिखा. यही वजह है, कि 2022 के चुनावों के लिए अभी तक हो चुके चारों चरण का मतदान 2017 से कम रहा. इस कमी की वजह ब्राह्मणों की वोट देने के प्रति उदासीनता रही. यह जो दो से तीन प्रतिशत की वोटिंग में कमी आई है, यह ब्राह्मणों की उदासीनता का ही द्योतक है.

गोलबंदी में उस्ताद ब्राह्मणों का मौन!

आमतौर पर ब्राह्मण स्वयं वोट भले न डालें लेकिन वह लोगों को किसी भी पार्टी के पक्ष में गोलबंद (Mobilize) ज़रूर कर देता रहा है. वह अपने साथ कुछ जातीय समूहों को स्वतः जोड़ लेता है. मसलन वैश्य और कायस्थ. इसके अतिरिक्त वह खाते-पीते मध्य वर्ग को भी प्रभावित करता है. मगर यह पहली मर्तबे हुआ है कि वह अपनी तरफ़ से किसी के भी पक्ष या विपक्ष में लामबंद नहीं दिखा. ऐसा क्यों हुआ?


इस पर कर्वी (चित्रकूट) के व्यापारी और राजनीतिक अमित शुक्ल ने बताया, कि ब्राह्मण इस समय सबसे दुविधाजनक स्थिति में है. जिस बीजेपी के लिए वह 2014, 2017 और 2019 में सन्नद्ध था, उसने उत्तर प्रदेश में उसको हाशिये पर डाल दिया है. अब उसकी दिक़्क़त यह है कि वह राजपूतों से प्रताड़ित है और यादवों को लेकर सशंकित है.


हालांकि इन दोनों में से किसी के साथ उसकी जातीय खुन्नस नहीं है. लेकिन पिछली सरकारों के कामकाज से वह अज़ीज़ है. इसलिए जहां भी एसपी ने ग़ैर यादव पिछड़ों को टिकट दिए हैं, वहां वह एसपी के साथ है. अन्यथा बीजेपी के साथ. लेकिन उसकी इच्छा यह भी है, कि बीजेपी जीते पर योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री न बनें.

सबसे ख़राब दौर में ब्राह्मण

उत्तर प्रदेश में आईएएस (IAS) अधिकारी रहे हरि कांत त्रिपाठी बताते हैं कि ब्राह्मणों के लिए लगातार ख़राब दौर चल रहा है. इतनी अधिक आबादी होते हुए भी पिछले 33 वर्ष से प्रदेश में कोई ब्राह्मण मुख्यमंत्री नहीं बन सका. इस बीच एसपी, बीएसपी जैसी पारिवारिक पार्टी के अलावा बीजेपी के भी अब तक पांच बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं. दो बार कल्याण सिंह, एक बार राम प्रकाश गुप्त, एक बार राजनाथ सिंह और 2017 में योगी आदित्य नाथ मुख्यमंत्री बने. हालांकि शुरू में उसे योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने से कोई परेशानी नहीं हुई थी. लेकिन मुख्यमंत्री बनने के बाद से वे राजपूत बनते चले गए. नौकरशाही और पुलिस में ब्राह्मणों को लगातार गौण (Secondary) श्रेणी में रखने से ब्राह्मण आहत हुए. इसके अतिरिक्त जिन बाहुबलियों पर पुलिसिया कार्रवाई हुई, वे सभी ब्राह्मण अथवा अन्य दीगर जातियों के थे या फिर मुसलमान. ब्राह्मणों को यह भी खला कि समान अपराध में राजपूत को तो ज़मानत मिली या उस पर कार्रवाई नहीं हुई.

बीजेपी तो पसंद पर योगी के प्रति उदासीनता

राज्य प्रशासनिक सेवा के एक ब्राह्मण अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, कि भले ब्राह्मण पूर्व के एसपी राज में यादव अफ़सरों या थानेदारों के जातिवाद से तंग रहा हो लेकिन यादवों ने ब्राह्मणों के प्रति कोई द्वेष-भाव नहीं रखा था. इसलिए ब्राह्मणों ने अधिकांश जगह एसपी को चुना. देवरिया में ब्राह्मणों का झुकाव बीजेपी की तरफ़ दिखा. वरिष्ठ पत्रकार प्रभाकर मणि तिवारी कहते हैं, ब्राह्मण बीजेपी को तो पसंद करता है किंतु योगी आदित्य नाथ को बतौर मुख्यमंत्री नहीं. शायद यही कारण है कि ब्राह्मण इस बार शांत है और चुनाव जिस तरह नहीं उठा, इसकी वजह ये ब्राह्मण हैं. ग़ाज़ीपुर के ब्रज भूषण दुबे कहते हैं कि ब्राह्मणों का झुकाव इस बार एसपी की तरफ़ दिखा. उनके अनुसार यह शायद इसलिए भी हुआ, क्योंकि उसे प्रदेश में बीजेपी के अंदर कोई ताकतवर ब्राह्मण नेता नहीं दिख रहा.

लेकिन ठौर कहां!

मज़े की बात कि ग़ाज़ियाबाद और गौतम बुद्ध नगर से लेकर गोरखपुर, देवरिया और चंदौली तक ब्राह्मण चुप हैं. न वह अपनी खिन्नता प्रकट कर रहा है न कोई उत्साह जता रहा है. गौतम बुद्ध नगर ग्रेटर नोएडा और ज़ेवर में तैनात कई अधिकारी दबे मन से इस स्थिति को स्वीकार करते हैं. हालांकि वे बताते हैं कि विकल्प हीनता की स्थिति में वे बीजेपी को वोट तो कर आए मगर अपने विधायक और सरकार के रवैए से खुश नहीं हैं. उन्हें गौतम बुद्ध नगर के सांसद महेश शर्मा को केंद्र में मंत्री न बनाए जाने से नाराज़गी है तो मेरठ में ब्राह्मण नेता लक्ष्मीकांत वाजपेयी की उपेक्षा से वे नाराज़ हैं. असली सवाल यह है, कि कोई भी राजनैतिक दल उत्तर प्रदेश में दबंग ब्राह्मण नेतृत्व को आगे नहीं आने दे रहा. हर पार्टी को लगता है, कि यदि ब्राह्मण नेता ताकतवर हुआ तो वह सबको निपटा देगा.

नौकरियों में फिसड्डी

कुछ ब्राह्मण बुद्धिजीवियों का मानना है कि ब्राह्मण युवा पढ़-लिख नहीं रहे हैं. भविष्य में सरकारी नौकरियों के बचे-खुचे मौक़े भी उनसे छिन जाने हैं. ग़ाज़ियाबाद में रह रहीं एक शिक्षा अधिकारी का कहना है, कि लोअर मिडिल क्लास का ब्राह्मण युवा जातीय दंभ में डूबा हुआ है. वह आज भी मंदिरों में पूजा करना, दान लेना या किसी सेठ का रसोईया बन जाना अपना लक्ष्य बनाए हुए है. यही कारण है कि कमजोर वर्गों के लिए जो नौकरियां आरक्षित हैं, उनमें भी गरीब ब्राह्मण चयनित नहीं हो पाता, क्योंकि उसकी शिक्षा अव्वल नहीं है.


वरिष्ठ पत्रकार पंकज चतुर्वेदी के अनुसार ब्राह्मण नौकरियों में इसलिए पिछड़ा है क्योंकि तदर्थ नौकरियां कर उसकी उम्र निकल जाती है. उन्होंने बताया कि उत्तर प्रदेश सरकार ने 21 हज़ार लेखपाल भर्ती करने की वैकेंसी निकाली. पहले टेस्ट में जो अभ्यर्थी पास हुए, उन्हें बताया गया कि यह नौकरी पांच साल तक कॉन्ट्रैक्ट पर रहेगी और हर साल उसके अधिकारी को संस्तुति करनी होगी. साठ प्रतिशत अंक इसी संस्तुति पर होंगे. अब मिलेंगे उसे 15 हज़ार रुपए महीने. अपने अधिकारी को खुश रखने के लिए उसे इसका बड़ा हिस्सा भेंट करना होगा और फिर भी न हो पाया तो वह तो ओवर एज हो जाएगा.


ऐसी स्थिति में ब्राह्मण के पास अब बचा क्या? कृषि भूमि उसके पास है नहीं और व्यापार के गुण भी उसे नहीं आते. बच्चे उसके धर्म के मायाजाल में डूबे हैं. राजनीति में उसका कोई भविष्य नहीं तो ऐसे में वह वोकल हो कर क्या करेगा? सिवाय इसके कि “बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना!”

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)

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