क्या यूक्रेन संकट से पहले राजनेताओं को नहीं पता थी भारत में मेडिकल शिक्षा की हकीकत
भारत में पिछले सात सालों में मेडिकल कॉलेजों की संख्या 54 परसेंट बढ़ गई है. सिर्फ दूर दराज के इलाकों में मेडिकल कॉलेज स्थापित करने की घोषणा से ही समस्या का समाधान नहीं हो जाता. इनमें से अधिकांश “नए” कॉलेज शिक्षकों और इन्फ्रास्ट्रक्चर की कमी के कारण बंद पड़े हैं.
पिछले गुरुवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मेडिकल की पढ़ाई (Medical Education) के लिए बड़ी संख्या में भारतीय छात्रों के विदेश जाने के लिए पिछली सरकारों को जिम्मेदार ठहराया और बताया कि उनकी सरकार मेडिकल कॉलेजों की संख्या बढ़ाने के लिए काम कर रही है जिससे छात्र देश में ही अपना नामांकन करा सकें. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, “अगर चिकित्सा शिक्षा नीतियां पहले से ठीक होतीं, तो छात्रों को विदेश नहीं जाना पड़ता.” उन्होंने यह भी कहा कि कोई भी माता पिता नहीं चाहते की उनके बच्चे इतनी कम उम्र में विदेश जाएं. प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि भारत में पहले 300-400 मेडिकल कॉलेज थे, जिनकी संख्या अब 700 हो गई है और उनमें सीटों की संख्या भी अब 80,000-90,000 से बढ़कर 1.5 लाख तक हो गई है. 17 साल से बिहार के मुख्यमंत्री रहे नीतीश कुमार ( Nitish Kumar) ने आश्चर्य से कहा, “जब तक यूक्रेन का संकट सामने नहीं आया था, हमें इस बात की जानकारी ही नहीं थी कि बिहार समेत देश के अलग-अलग राज्यों से इतनी बड़ी संख्या में छात्र हर साल मेडिकल कोर्स के लिए विदेश जा रहे थे.”
यूक्रेन में चल रहे संघर्ष के बीच, भारतीय राजनेताओं से इस स्तर की अनभिज्ञता की उम्मीद नहीं की जा सकती है. प्रधानमंत्री मोदी का यह बयान भी अजीबोगरीब लगता है कि “मेडिकल की पढ़ाई भारत में करें, छोटे विदेशी मुल्कों में नहीं.” यूक्रेन संकट ने भारत में मेडिकल शिक्षा की हकीकत को उजागर कर दिया है.
आंकड़ों के मुताबिक, हर साल करीब 25,000 छात्र मेडिकल की पढ़ाई के लिए विदेश जाते हैं. भारतीय चिकित्सा परिषद (Medical Council of India) और स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय (Ministry Of Health and Family Welfare) से मिले आंकड़ों पर नज़र डालने से पता चलता है कि समस्या की जड़ क्या है. 2021 में MBBS प्रवेश के लिए 16.1 लाख उम्मीदवार परीक्षाओं में शामिल हुए. जबकि पूरे देश में राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (National Medical Commission) से मान्यता प्राप्त सिर्फ लगभग 90,000 सीटें उपलब्ध हैं. यही असंतुलित अनुपात परेशानी की मुख्य वजह है. देश में MBBS की पढ़ाई के लिए 562 मेडिकल कॉलेज हैं, जिनमें से 286 सरकारी संस्थान हैं और 276 प्राईवेट हैं.
सीट कोटा
सरकारी संस्थान सभी श्रेणी में आरक्षण लागू करते हैं, जिससे आवेदन करने वाले छात्रों की तुलना में ओपन सीटों की संख्या लगभग न के बराबर हो जाती है. वहीं प्राईवेट संस्थानों के बेहद ऊंचे डोनेशन – जिसे कैपिटेशन फी भी कहा जाता है – शिक्षा के खर्चे को बहुत ज्यादा बढ़ा देते हैं. भारत में प्राईवेट मेडिकल शिक्षा की लागत 1 करोड़ रुपये से अधिक हो सकती है. यह सच है कि सरकारी मेडिकल कॉलेज इसका एक छोटा सा हिस्सा ही लेते हैं, लेकिन उनके पास शायद ही पर्याप्त ओपन सीटें मौजूद हैं.
कोई विकल्प न होने के कारण, उम्मीदवार अक्सर यूक्रेन, चीन और रूस जैसे देशों में मेडिकल की पढ़ाई करने की सोचते हैं, जहां पूरे पाठ्यक्रम की लागत महज 20-25 लाख रुपये के बीच है. कम फीस के साथ-साथ पढ़ाई की बेहतर व्यवस्था और विकसित तरीका भारतीय छात्रों को इन देशों की तरफ खींचता है. उदाहरण के लिए, अन्य यूरोपीय देशों की तुलना में, यूक्रेन मेडिकल के क्षेत्र में सबसे ज्यादा UG, PG विशेषज्ञता मुहैया कराता है. युद्ध के दौरान जान गंवाने वाले छात्र नवीन शेखरप्पा के पिता ने मीडिया को बताया, “Pre-University में 97 प्रतिशत स्कोर करने के बावजूद, मेरा बेटा राज्य में मेडिकल सीट हासिल नहीं कर सका. मेडिकल सीट के लिए करोड़ों रुपये देने पड़ते हैं. विदेश में यही शिक्षा छात्र कम पैसे में प्राप्त कर सकते हैं.”
परीक्षा के बाद परीक्षा
विदेशों में मेडिकल शिक्षा लेने वाले डॉक्टरों को भारत में प्रैक्टिस करने के लिए यहां चिकित्सा परीक्षाओं में बैठना होता है. जब यूक्रेन से छात्र भारत लौटते हैं, तो उन्हें राष्ट्रीय परीक्षा बोर्ड (NBE) द्वारा आयोजित विदेशी चिकित्सा स्नातक परीक्षा (FMGE) में शामिल होना होता है. इसलिए बार-बार लाइसेंस परीक्षाओं में बैठने के बदले छात्र यूरोपीय देशों में ही अपना जीवन यापन करना चाहते हैं.
यूक्रेन में भारतीय छात्रों की बड़ी संख्या से साफ है कि इस मामले में उसे बाकी देशों के मुकाबले बढ़त हासिल है. यूक्रेन में सभी विश्वविद्यालय विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) और संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (UNESCO) से मान्यता प्राप्त हैं. इसके अलावा, पाकिस्तान मेडिकल एंड डेंटल काउंसिल, यूरोपियन काउंसिल ऑफ मेडिसिन और यूनाइटेड किंगडम की जेनरल मेडिकल काउंसिल भी यूक्रेन की मेडिकल डिग्री को मान्यता देते हैं. जाहिर है जब यूक्रेन की डिग्री के इतने सारे फायदे हैं तो भारतीय छात्र उस तरफ आकर्षित क्यों नहीं होंगे?
प्राईवेट निवेश
जल्द ऐसी नीतियां तैयार करने की आवश्यकता है जो चिकित्सा अध्ययन में निजी निवेश (private investment) को आकर्षित कर सकें, जिसकी कीमत बहुत ज्यादा नहीं हो. मांग-आपूर्ति अनुपात (Demand supply ratio) को समय-समय पर ठीक करना होगा.
2020 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में सरकार द्वारा शिक्षा पर GDP का 6 परसेंट खर्च करने की बात की गई थी. दुर्भाग्य से, इस साल जनवरी में प्रस्तुत किए गए आर्थिक सर्वेक्षण (Economic survey) के अनुसार, 2021-22 में शिक्षा पर GDP का केवल 3.1 प्रतिशत खर्च हुआ था. प्रधानमंत्री के कहने के बावजूद, देश में शिक्षा पर सरकारी खर्च औसत से काफी कम है.
हाल ही में प्रधानमंत्री ने बताया कि भारत में पिछले सात सालों में मेडिकल कॉलेजों की संख्या 54 परसेंट बढ़ गई है. सिर्फ दूर दराज के इलाकों में मेडिकल कॉलेज स्थापित करने की घोषणा से ही समस्या का समाधान नहीं हो जाता. इनमें से अधिकांश “नए” कॉलेज शिक्षकों और इन्फ्रास्ट्रक्चर की कमी के कारण बंद पड़े हैं. अगर जनवरी 2022 तक की बात करें तो पांच एम्स में अभी भी विकास कार्य जारी है. अरुणाचल प्रदेश, गोवा, कर्नाटक, केरल, मिजोरम और त्रिपुरा में एम्स स्थापित करने के भी प्रस्ताव हैं. ऐसे में यह स्वाभाविक है कि डॉक्टर और इंजीनियर बनने की उम्मीदों के साथ बड़े होने वाले महत्वाकांक्षी छात्रों को अपने सपनों को साकार करने के लिए दूसरे रास्ते तलाशने पड़ते हैं.
NEET प्रवेश परीक्षा
विदेशों में मेडिकल की पढ़ाई का एक और कारण उन देशों में NEET जैसी प्रवेश परीक्षा का न होना भी है. जहां हर साल लाखों छात्र NEET में शामिल होते हैं, वहीं इनमें से लगभग 40,000 को ही सरकारी मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश मिलता है. ऐसी स्थिति में, बड़ी संख्या में NEET में पास हुए छात्र यूक्रेन जैसे “छोटे विदेशी राष्ट्रों” की ओर रुख करते हैं.
NEET को लेकर कई तरह के विवाद भी सामने आए. तमिलनाडु सरकार द्वारा मेडिकल प्रवेश परीक्षा (NEET) का लगातार विरोध किया गया है. तमिलनाडु सरकार का मानना है कि NEET ग्रामीण और गरीब छात्रों को डॉक्टर बनने से रोकता है. देश में NEET शुरू होने से पहले तमिलनाडु में चिकित्सा पाठ्यक्रमों में प्रवेश केवल बारहवीं क्लास के अंकों के आधार पर दिए जाते थे. 2017 में इसी विवाद के दौरान सामाजिक और आर्थिक रूप से कमज़ोर 17 साल की मेडिकल उम्मीदवार अनीता ने आत्महत्या कर ली – जिसने NEET के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में लड़ाई लड़ी थी.
दक्षिण के अधिकतर छात्रों का कहना है कि NEET CBSE मॉड्यूल पर आधारित है, इसलिए 12वीं क्लास तक अपने राज्य के मॉड्यूल के मुताबिक पढ़ने वाले छात्रों को बहुत परेशानी होती है और CBSE बोर्ड के छात्र NEET में दूसरे बोर्ड के छात्रों से आगे निकल जाते हैं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)