हम सिर्फ विकल्प ही तलाशते हैं, वैकल्पिक नजरिया नहीं खोजते

छांदोग्योपनिषद में आया है, ‘दे सोम्य! यह (जगत्) आरंभ में सत ही था, एक ही, अद्वितीय था।’ ‘हे सोम्य! ऐसा कैसे हो सकता है? असत् से सत् कैसे होगा?’ उसने सोचा, ‘मैं बहु होऊं मेरा विस्तार हो।’ उसने तेज उत्पन्न किया। तेज ने सोचा, ‘मैं बहु होऊं, मेरा विस्तार हो।’ उसने पानी उत्पन्न किया। उन जलों ने सोचा ‘हम बहु होवें, हमारा विस्तार होवे।’ उन्होंने अन्न उत्पन्न किया। इन सब प्राणियों में तीन ही बीज अर्थात तीन ही जातियां या प्रकार होते हैं। अंडज (अंडे से उत्पन्न जीव), जीवज (जीवन से भरा हुआ जैसे बच्चा) और उदभिज्ज (यानी धरती फोड़कर बाहर आने वाले जैसे पेड़, पौधे, झरने आदि।)

जीवन की इस परिभाषा को ध्यान में रखें तो स्पष्ट है कि सृष्टि के आदि नियम समकालीन भी हैं। कोई मूलभूत अंतर इनमें आ पाना संभव ही नहीं है। फिर पिछले कुछ दशकों में ऐसा क्या हो गया कि हमें पृथ्वी पर जीवन ही संकट में दिखने लगा। यह संकट उपरोक्त वर्णित तीनों बीजों में साफ दिख रहा है। पशु-पक्षियों, मनुष्य व पशुओं और वनस्पति जगत सब पर संकट है। यदि प्रकृति स्वयंभू है, तो क्या उसे नष्ट किया जा सकता है?

कुछ दशक पहले तक हम प्रकृति पर पुरुष (मनुष्य) की विजय को समारोहित कर रहे थे। परंतु वह तो वास्तव में क्रमबद्ध पराजय ही थी। हम जिस विकास पर्वत पर चढ़ रहे थे, उस प्रक्रिया में हम अपने उतरने के रास्ते स्वयमेव नष्ट करते जा रहे थे। पगडंडी को अपनाने की जगह हमने जो रास्ता बनाया वह धीमे-धीमे चौड़ा होता गया। उस चौड़े रास्ते को बनाने में जो विकास ब्रांड का रोड रोलर इस्तेमाल हुआ, उसने उस सारी जमीन को बंजर बना दिया। उसे इतना सख्त कर दिया कि अब उसमें कोंपलें फूटती ही नहीं।

पृथ्वी ने लाखों-करोड़ों वर्षों से अपने भीतर बहुत कुछ सहेज कर रखा था। मनुष्य ने जहां एक ओर प्रकृति का अतिक्रमण किया, वहीं दूसरी ओर उसने स्वयं अपना भी अतिक्रमण किया। उसका हर कदम कमोवेश अमरत्व प्राप्ति को ही प्रेरित था। ऐसे में उसे लगा कि भविष्य तो उसका ही है। अमरत्व की वह प्रक्रिया उसे कम से कम लंबा जीवन देने में तो सक्षम हो ही गई। सन् 1950 में विश्व जनसंख्या 2.5 अरब थी और आज 7.5 अरब है। यानी तीन गुना वृद्धि। इसी अनुपात में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन भी बढ़ा है।

हम पृथ्वी, पर्यावरण या पारिस्थितिकी को बचाने के लिए प्रयत्नशील ही नहीं हैं। हम सिर्फ अर्थव्यवस्था बचाना चाहते हैं। उपभोग बढ़ाना चाहते हैं। क्या इससे प्रकृति बच पाएगी? वास्तविकता यह है कि हम सिर्फ विकल्प ही तलाशते हैं, वैकल्पिक नजरिया नहीं खोजते। हम हरित व्यवस्था चाहते हैं, लेकिन हरित तकनीक (ग्रीन टेक्नोलॉजी) अमीर देशों की बपौती है। भारत कार्बन उत्सर्जन में भी कमी करेगा, जब उसका स्तर यूरोप व अमेरिका के स्तर तक पहुंच जाएगा। 35 करोड़ का देश व 135 करोड़ का देश यदि समान मात्रा में प्रदूषण फैलाएंगे तो परिणाम क्या होगा?

भारत 50 डिग्री तापमान पर शीशे की बाहरी दीवारें बनाकर तापमान वृद्धि रोकना चाहता है? हर घर में कार पहुंचा कर प्रदूषण रोकना चाहता है? हर खेत को रसायन निर्भर बनाकर नदियां बचाना चाहता है? बांध बनाकर नदी बचाना चाहता है? अगर बचना और बचाना है तो उत्पादन इकाइयों में बाह्य उर्जा के प्रयोग को बेहद सीमित करना होगा। गांधी को याद करने से बात नहीं बनेगी, उन्हें अपनाना ही पड़ेगा। वर्ना वह दिन दूर नहीं जब हम पश्चाताप में उनकी मूर्ति पर सिर फोड़ रहे होंगे।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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